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रस्म:नारी की उलझन

मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’
जयपुर(राजस्थान)
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‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ स्पर्धा विशेष…………………

उम्र के खूबसूरत शहर में साँसों की फ़िजाओं में ख़्वाबों और ख़्वाहिशों का आता-जाता काफ़िला है। कई रातें गुजारने के बाद एक मुलाकात होगी लेकिन कई मुलाकातों के लिए एक मुलाकात बहुत जरुरी थी………वो थी रस्मl
हर बेटी को अपने बाबुल का अँगना छोड़कर पिया संग जाना ही पड़ता हैl अपनी बचपन की सब यादों को पोटली में बाँध घर के किसी कमरे में छिपाकर बेटी विदा हो जाती है। बाबुल तो माली की तरह उस फूल को सिर्फ और सिर्फ इसलिए सींचता है,पालता है कि कोई भँवरा इसे मेरे पास से ले जाएगा,लेकिन..ब-रस्म,ब-रिवाज।
कितने सपने पलने लगते हैं उन नन्हीं पलकों में शनै-शनै वो ख़्वाब आकार लेने लगते हैं। वक्त पंख लगाकर उड़ जाता है किसे खबर,नन्हीं पलकें कब सयानी हो गई,पता ही नहीं चलता। बेटी को इसका अहसास तब हुआ,जब अग्नि का साक्ष्य रिवाजों की ड़गर दूर तक उसकी निगाहों में दिखाई देती है। जब बाबुल के आँगन में रिश्तों की हलचल होने लगती है। वह छुपकर सब-कुछ सुन लेना चाहती है,उसका भोला मन सब जान लेने को आतुर हो जाता है। वह देख रही है अम्मा के आँचल में बँधी आशीष की गाँठ को,जिसे वह बड़े जतन से बाबुल को सौंपती रही है ताकि बटोही ले जा सके।
बेटी पिया मिलन की सपनीली गलियों में खो जाती है,परन्तु माँ के चन्दोवे की छाया से दूर जाने के डर से सहमत जाती है। और न जाने ऐसे कितने ख्वाब पलते हैं एक लड़की के मन में,जब घर में उसके रिश्ते की चर्चा होती है। वो तो पगली शर्म से लाल हो जाती है,और पिया संग ख्वाबों में भटकने लग जाती है। धीरे-धीरे हल्दी लगी पीली आभा पर गुलाबी रंग चढ़ने लगता है। चाची,ताई,भाभी,सखी-सहेलियाँ सब चुटकी लेती हैं और बन्नो को समझाती हैं-“बन्नो रानी वो मायका नहीं है,जो हिरण की चौकड़ी मारोगी,वहाँ पर ज़रा सिकुड़-सिमटकर रहनाl तुम्हारे ही हाथों में अब हमारी लाज है। मायके की लाज रखना बन्नो…।’
तब जहाँ मन में गुदगुदी-सी होती है,वहीं मन सहम भी जाता है। एक अनजान भय मन में घर कर जाता है,कुछ अनजाने चेहरे दिखने लगते हैंl इन सबका प्रभाव उसके चेहरे पर साफ़ झलकने लगता है। कुछ इसी तरह की मिली-जुली सोच के साथ बेटी ससुराल के आँगन में पैर रखती है। उसे हर पल डर लगा रहता है कि कहीं जब़ान चूक न जाए,कहीं अम्मा-बाबा पर इल्जाम ना आ जाए,कुछ ऐसा न हो जाए… कुछ वैसा न हो जाए। कब कितना बोलना है,कितना सुनना है ? यही सब समझने की कोशिश कर रही है वो।
उसे अम्मा की सीख याद आ रही है(“बेटी! तुम रूप धूप से नये घर को रोशन कर देना,रूप पर रीझना मत,क्योंकि यह तो बनावटी श्रृंगार है,तेरा असली गहना तो तेरा पति है। अपने गुणों से सबका मन मोह लेना,न कभी सास की बुराई करना,न ननद से बैर रखना। बेटी न पिताजी से रूठना और न कभी देवर से नाराज होना।)
उसे कभी बाबा की सीख याद आती है,कभी भैया की बातें ….(ओ बहना, तुम अपनी सास की दुलारी बन जाना,लाड़ली व चहेती बनकर रहना। बहना तुम अपनी ननद की सीख बन जाना,राम की सीता बनकर लक्ष्मण की प्यारी भावज बन जाना।)l
वह सोच रही है…कहीं ऐसा न हो बाबा की सारी तपस्या बेकार चली जाए, आँखें भर आए और दिल ये पुकारे-
“बाबा काहे को बिहायो परदेश,
अम्मा काहे को निकाला मोहे बिदेश
बीरा अब तो आजा लेने,बहना का सुन ले संदेश,
यहाँ न सखियाँ न अपना कोई
क्यों भेजा मोहे परायों के देश…?”

फिर मन को समझाती है-
बेटी को तो एक दिन जाना ही पड़ता है पिया घर,इसलिए मन को भारी मत करो। कुछ सुख-कुछ दु:ख हर आँगन में पलते हैं। हर आँगन में धूप, छाँव होती है। उस आँगन को भी अपने गुणों से स्वर्ग बना देना है,ताकि अम्मा-बाबा का जनम सफल हो जाए,ताकि खुशियों का दरिया बहता रहे हरदम,हरपल,अनवरत……l

परिचय-मनोज कुमार सामरिया का उपनाम `मनु` है,जिनका  जन्म १९८५ में २० नवम्बर को लिसाड़िया(सीकर) में हुआ है। जयपुर के मुरलीपुरा में आपका निवास है। आपने बी.एड. के साथ ही स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) तथा `नेट`(हिन्दी साहित्य) की भी शिक्षा ली है। करीब ८  वर्ष से हिन्दी साहित्य के शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और मंच संचालन भी करते हैं। लगातार कविता लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन भी श्री सामरिया करते हैं। आपकी रचनाएं कई माध्यम में प्रकाशित होती रहती हैं। मनु  कई वेबसाइट्स पर भी लिखने में सक्रिय हैंl साझा काव्य संग्रह में-प्रतिबिंब,नए पल्लव आदि में आपकी रचनाएं हैं, तो बाल साहित्य साझा संग्रह-`घरौंदा`में भी जगह मिली हैl आप एक साझा संग्रह में सम्पादक मण्डल में सदस्य रहे हैंl पुस्तक प्रकाशन में `बिखरे अल्फ़ाज़ जीवन पृष्ठों पर` आपके नाम है। सम्मान के रुप में आपको `सर्वश्रेष्ठ रचनाकार` सहित आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैंl  

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