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राजस्थान में ‘राजस्थानी’ की राजनीति

राजस्थान में अंग्रेजी विद्यालय….

*डॉ. रामवृक्ष सिंह (महाप्रबंधक, सिडबी)
◾राजस्थान में हिन्दी चल रही है। अब आजादी के पचहत्तर वर्ष व्यतीत कर लेने के बाद राजस्थानी को राज-काज में लागू करना एक प्रकार से पश्चगमन होगा। राजस्थान और ग्वालियर जैसे कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में हिन्दी सदियों से राज-काज में प्रयुक्त होती आई है। हम सब बहुत गर्व से यह बात कहते हैं। समूचा रासो साहित्य राजस्थान में रचा गया। यदि राजस्थानी अलग हो गई तो हिन्दी का आदिकाल भी लगभग निकल जाएगा। मैथिली को अलग भाषा मान लेने पर हम विद्यापति से भी लगभग हाथ धो चुके हैं, जो आदिकाल के श्रंगार और कृष्ण भक्त कवि माने जाते हैं। इधर भोजपुरी वाले भी जोर लगाते रहते हैं। वे सफल हो गए तो कबीर और तुलसी का बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी से निकल जाएगा।
वस्तुत:, भाषा को राजनीतिक मुद्दा होना ही नहीं चाहिए। इसलिए हम सबको हिन्दी के हक़ में राजस्थान सरकार के उक्त प्रस्ताव का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए।

सच्चे हिंदीप्रेमी कुकृत्य का विरोध करें

*डॉ. साकेत सहाय (मुख्य प्रबंधक, राजभाषा, पंजाब नेशनल बैंक)
◾रविदत्त गौड़ जी का उनके तटस्थ, तर्कपूर्ण एवं ज्ञानप्रद आलेख के लिए अभिनंदन। आपने राजस्थान सरकार के राजनीतिक लालसा की ख़ातिर उठाए गए इस कदम से जुड़े हुए महत्वपूर्ण विमर्श को बेहद गंभीरता के साथ प्रस्तुत किया है। यह सच है कि, वर्ष १९४७ तक हिंदी अखिल भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में सशक्तता के साथ स्थापित थी, समय के साथ मत और पद-पिपासुओं ने इसे कथित हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित करने का प्रयास किया, जबकि यह भाषा संविधानिक रूप से और जनमत के बल पर भी सर्वस्वीकार्य रही है। यह भी सच है कि, जान-बूझकर हीनता बोध से ग्रसित व्यवस्था हिंदी की ज़मीन को खिसका रही है और हिंदी की इस उर्वर ज़मीन को बहुत तेज़ी से अंग्रेज़ी हथिया रही है और इसे हथियाने में, सहयोग देने में, पूरी व्यवस्था ही प्रत्यक्षत:-अप्रत्यक्षत: हिस्सेदार है। दुर्भाग्य से हिंदीप्रेमी समाज अपने निहित स्वार्थों की ख़ातिर इससे आँखें मूँदे बैठा है।
अब समय आ गया है कि, सच्चे हिंदी प्रेमी इस कुकृत्य का विरोध करें और बोलियों के विरोध से अधिक हिंदी के प्रति विद्यमान राजनीतिक और प्रशासनिक जहर को नष्ट करने के लिए एकजुट प्रयास करें।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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