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राष्ट्रभाषा बिना देश नहीं गतिमान

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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हिन्दी संग हम (१४ सितम्बर) विशेष…

नवीनतम शोध यह कह रहे हैं कि, जिस भाषा में माँ गर्भकाल में गर्भस्थ शिशु से बात करती है, जिस भाषा में बच्चा सोचता है, जिस भाषा में सपने देखता है, जिस भाषा में में वह जन्म से संवाद करना सीखता है, यदि उसी भाषा में बचपन और किशोर अवस्था में बच्चे की शिक्षा हो तो उसका मानसिक विकास इतना अच्छा होता है कि, वह उच्च शिक्षा के सभी विषय ज्यादा अच्छी तरह से ग्रहण करने में सक्षम होता है। तब उसे ज्ञान को रटना नहीं होता है, वह सही मायने में ज्ञान को ग्रहण करता है, जो शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य-ज्ञान है।

जिस भाषा में बच्चा सोचता है, उसी भाषा में वह अपने आपको सबसे अच्छी तरह से अभिव्यक्त करने भी सक्षम होता है। उसे परीक्षा में उसी भाषा में प्रश्न-पत्र मिले और उसी में उत्तर लिखने की आज़ादी मिले तो वह तनावग्रस्त नहीं होगा तथा अपने ज्ञान को अधिक अच्छी तरह से प्रस्तुत कर अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकता है।
मातृभाषा से भिन्न भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बच्चे अधिकांश ऊर्जा और समय उस भाषा को सीखने में व्यय होती है। समय और शक्ति के अभाव में वह अन्य विषयों में स्वाभाविक रूचि नहीं ले पाता। परिणाम स्वरुप थकन और तनाव से ग्रस्त हो जाता है, उसका सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। अंग्रेजी या अन्य किसी भी भाषा का विरोध नहीं है, पर वह शिक्षा का माध्यम न होकर एक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए।
हिंदी को राजभाषा माना जाए या नहीं..! राष्ट्रभाषा तो बहुत दूर की चिड़िया है, यह बात संसदीय समिति की अनुशंसा पर है। बात इस बात पर लिखने को बाध्य हो रहा हूँ कि, हिन्दी की वकालत अंग्रेजी में हो रही थी। इस बात की चिंता नहीं है कि, हिंदी राष्ट्रभाषा या राजभाषा बने। क्या अभी तक कुछ नहीं बनी बेचारी हिंदी तो, क्या वो मर गई या उसका अस्तित्व ख़तम हो गया। जैसे तालाब के शांत पानी में एक पत्थर फेंक दो तो, उससे उठने वाली तरंग से समझ में आता है कि, पत्थर कितना बड़ा था, कितनी दूर फेंका और उससे कितनी बड़ी तरंग उठी। यह भी राजनीति का अंग है। जैसे एक नाम उछाल दो कि फलां को राष्ट्रपति बनाना है, बस उससे उठने वाली तरंग को समझ लो…!
हमारा देश समस्या-विवाद प्रधान देश है। केकड़ा प्रवृत्ति है। बस एक-दूसरे की टांग खींचो, कोई नहीं बढ़ने पाए। कोई किसी को फलने-फूलने नहीं देना चाहता।
जब हम एक देश में एक नियम-कानून को नहीं मानना चाहते तो, क्या यहाँ पर सैन्य शासन लगे या हिटलरशाही। जैसे, एक माँ के अधिक पुत्र होने पर वह किस-किसको सम्हाले ?
दक्षिण प्रांतीय राज्यों को हिंदी से इतना क्यों ईर्ष्या भाव! हमारा कहना यह नहीं है कि, आपकी भाषा को दोयम दर्जा दिया जाएगा। आपकी भाषा का आज भी उतना महत्व है, हमारे लिए जितना पहले था। किसी भी भाषा को सीखना कोई अपराध नहीं है, ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें हमेशा अपने दिल-दिमाग की खिड़की दरवाजों को खुला रखना चाहिए। पूरा भारत वर्ष विभिन्न भाषाओं से रचा-पचा है। हर भाषा की अपनी एक पहचान है पर हमारे देश की कोई भाषा जो सर्वमान्य हो, उसे राजकीय भाषा और राष्ट्र भाषा का गौरव प्राप्त होना चाहिए लेकिन, हमेशा किसी भी बात पर विरोध करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। इतना संकुचित होना एक देश के लिए उचित नहीं है।
क्या दक्षिण राज्यों में अब कोई हिंदी नहीं जानता! आज सबसे अधिक हिंदी फिल्म वहीं देखी जाती है। व्यापार में कोई सीमाएं नहीं होती, वहाँ के लोग देश के रुपयों से इतनी नफरत क्यों नहीं करते ? उन राज्यों के बहुत अधिक कुशल काम करने वाले उत्तरीय प्रांतों में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उन्होंने यहाँ रहकर पूर्ण रूप से भाषा को-स्थानीय भाषा को स्वीकार किया ! क्यों ? क्या मात्र पैसों के लिए या यहाँ के वातावरण में घुलने-मिलने के लिए। ज्ञान के लिए सब भाषाएँ खूब उन्नत हैं। हिंदी १०० वर्ष से राष्ट्रभाषा के गौरव को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है, और इसी प्रकार के विघ्न संतोषी लोगों के कारण वह सिसकी भर रही है। ५० वर्ष पूर्व भी इसी बात पर तनाव हुआ था।
भारत वर्ष और प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं में सबके भावों को आदर दिया जाता है। सम्मान दिया जाता है और सबकी बात सुनी जाती है। इस कारण हम पिछड़े है। आज जापान, चीन और रूस आदि में एक भाषा का चलन है। उन्होंने अधिक प्रचलित-सर्वमान्य भाषा को अपनी राष्ट्र-भाषा का गौरव दिया और वे अपने-आपको गौरवशाली मानते हैं, पर हमारे देश में स्वच्छंदता होने से सब स्वतंत्र हैं। सबमें मनमानापन है। इसके लिए कहीं न कहीं वर्तमान की शासन व्यवस्था भी दोषी है। कोई भी मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सचिव, न्यायालय, केंद्र-राज्य शासन आज भी अंग्रेजी को अपनी राजकीय भाषा मानकर काम करते हैं ऐसा क्यों ? क्या हिंदी में बोलकर उनमे हीन भावना का बोध होता है ? आज हिंदी फिल्मों के कलाकार जिनकी आजीविका हिंदी हैं, उन्हें अंग्रेजी भाषा में ही बात करना गौरव महसूस होता है। अंग्रेजी जानना और उपयोग करना २ अलग पहलू हैं, पर जिसको आप अपनी आजीविका मानते हो, उसके साथ न्याय करो। व्यापार में भी अपनी भाषा का उपयोग करो। अंग्रेजी आज संपर्क भाषा के रूप में सर्वमान्य है, पर हिंदी में भी उससे अधिक संपर्क की संभावनाएं हैं, किन्तु जब गंगोत्री ही अपवित्र है तो, गंगा कहाँ तक पवित्र होगी ?
‘भारत’ देश तो एक है, पर ‘इंडिया’ विचित्रताओं से भरा पड़ा है। कोई न भाषा का गौरव जानता है, ना आहार का, ना चरित्र का और ना आत्मीयता का। बस हम भेड़-चाल में चल कर कहाँ जाना चाहते हैं ! भाषा के लिए केंद्र सरकार कटिबद्ध होकर एक बार निर्णय लेकर क्रियान्वयन कराए। गर्म लोहे पर तत्काल चोट मारकर प्रकरण को इतिश्री कर हम हिंदी भाषियों को उचित स्थान प्रदान करे। यह कोई भीख नहीं, यह तिरस्कार है। कारण हम हिंदी-भाषी एकजुट नहीं हैं और हैं भी तो, सब अपने-अपने श्रेय की होड़ में लगे हैं कि इसका ताज मुझे मिल जाए। सरकार यह ताज जिसको चाहे, पहना दे, पर हिंदी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान करे।
जर्मनी ,फ्रांस ,जापान .इंग्लैंड ,ईरान रसिया ,चीन आदि देशों पढाई स्वभाषा में होती है, इसीलिए वहां शत-शत साक्षरता है। अंग्रेजी से भारत २ टुकड़ों में बंटा हुआ है। यदि अंग्रेजी अनिवार्य न हो तो गरीब और ग्रामीण बच्चों को भी अवसरों में समानता मिलेगी। जिस भाषा में विद्यार्थी सरलता से ज्ञान ग्रहण कर सके, जिस भाषा में विद्यार्थी बारीकी के साथ वस्तु के यथार्थ का चिंतन का सके, जिस भाषा में विचारों को सरलता से अभिव्यक्त कर सके, यह केवल मातृभाषा में ही संभव है।
वैज्ञानिक अविनाश चंदरकर के अनुसार भारत विज्ञान में दुनिया के लिए पिछड़ा है क्योंकि, हम अपनी भाषा में विज्ञान को नहीं अपना रहे हैं। हमने अगली पीढ़ी को अपनी भाषा में लिखकर नहीं, श्रुति के आधार पर पहुंचाया है। इसलिए हिंदी में वैज्ञानिक खोज होनी चाहिए। लोगों तक नई तकनीकी और वैज्ञानिक खोजों का लाभ पहुँचाना है तो, इसके लिए हिंदी को विज्ञान की भाषा बनाया जाना जरुरी है।
हम मोबाइल में फेसबुक, व्हाट्सप्प आदि के कारण लिखना-बोलना हिंदी में सीख रहे हैं। इस प्रकार हिंदी प्रयोग बढ़ा, पर राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनना बहुत दुरूह है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।