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राहुल को बोलने की सद्बुद्धि दें भगवान!

ललित गर्ग
दिल्ली
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युगीन भारतीय राजनीतिक मनोरचना में शालीनता एवं शिष्टता के स्थान पर स्वच्छन्दता, अशालीन एवं अभद्र भाषा के व्यवहार का अधिक सक्रियता से प्रचलन चिन्ताजनक है। ऐसी स्थिति में शीर्ष राजनेता राजनीतिक शिष्टता एवं लोकतांत्रिक मर्यादा में अपना योगदान कैसे दे सकते हैं ? यह प्रश्न समूचे विपक्ष के साथ कांग्रेस के राहुल गांधी को लेकर व्यापक चर्चा में है। किसी को कुछ भी कह देना और यहां तक अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना गैर जिम्मेदाराना हरकत ही नहीं, स्वयं को अति विशिष्ट समझने की अहंकारी मानसिकता भी है, जो एक बड़ी राजनीतिक विसंगति बनती जा रही है। सार्वजनिक जीवन में ऐसी सामंती मानसिकता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसीलिए सूरत की एक अदालत की ओर से आपराधिक मानहानि के एक मामले में राहुल गांधी को २ साल की सजा सुनाए जाने के बाद उनकी संसद सदस्यता भी चली गई है। यह एक बड़ी राजनीतिक घटना है। इस तरह की सजा सुनाया जाना राजनीति के अहंकार को पाले लोगों के लिए एक सबक है, एक सन्देश है। यह विचित्र है कि कांग्रेसजन राहुल गांधी का बचाव करते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
भारतीय राजनीति में सभी स्तरों पर आदर्शहीनता व अभद्र वचनों की वाचाल आंधी चल रही है, जो नई कोपलों के साथ पुराने वट-वृक्षों को भी उखाड़ रही है। मूल्यों के बिखराव के इस चक्रवाती दौर में भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है। अब नायक नहीं बनते, खलनायक सम्मोहन पैदा कर रहे हैं। पर्दे के पीछे कई ने तो यह नीति अपना रखी है कि गलत करो और गलत कहो, तो हमें सब सुनेंगे। बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ। अब शब्दों की लीपा-पोती एवं गलत बयानबाजी की होशियारी से सर्वानुमति बनाने का प्रयास नहीं होना चाहिए, क्योंकि मात्र शब्दों एवं बयानों की सर्वानुमति किसी एक गलत शब्द के प्रयोग से ही पृष्ठभूमि में चली जाती है। यह रोज सुनते हैं और राहुल गांधी प्रकरण में समूचा राष्ट्र इसे देख रहा है। अपनी सजा पर राहुल गांधी के यह कहने का कोई मतलब नहीं कि सत्य मेरा भगवान है। महात्मा गांधी के इस कथन का उल्लेख करना इसलिए व्यर्थ है, क्योंकि उन्हें जिस बयान के लिए मानहानि का दोषी पाया गया, उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधने के लिए ललित मोदी, नीरव मोदी का उल्लेख करते हुए यह जो कहा था कि ‘सारे मोदी चोर क्यों होते हैं’, वह हर दृष्टि से एक अपमानजनक और अभद्र बयान था, जिससे जाति-विशेष के लोगों का आहत होना स्वाभाविक है। यही कारण रहा कि उन्हें दोषी पाया गया। राहुल गांधी को यह आभास होना चाहिए था कि, किसी राजनीतिक दल का सर्वेसर्वा होने का अर्थ यह कदापि नहीं कि वे किसी को भी कुछ भी कह दें। समस्या यह है कि वह ऐसा ही करते रहते हैं और इसी कारण रह-रहकर आलोचना और विवाद का केंद्र बनते रहते हैं।
ऐसे में नई पीढ़ी के बारे में, जो नए विश्व का आधार है, कोई आदर्श सोच पनप नहीं पा रही है, उनके लिए कोई आदर्श पदचिन्ह स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। अगर कोई प्रयास कर भी रहा है तो वह गर्म तवे पर हथेली रखकर ठण्डा करने के प्रयास जैसा है। जिस पर राजनीति की रोटी तो सिक सकती है, पर निर्माण की हथेली जले बिना नहीं रहती। यही विचित्र कारण है कि, कांग्रेसजन गलत का साथ देते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। किसी को राजनीति करने के नाम पर कुछ भी कहने की छूट कैसे दी जा सकती है ?
भले ही राहुल गांधी अपने अपमानजक बयान के लिए राजनीतिक कारणों से माफी मांगने से इन्कार कर रहे हों, लेकिन परिणाम यह है कि अब उनकी राजनीति पर ही बन आई है। वह जिस कठिनाई में फंसे हैं, उसके लिए अपने अतिरिक्त अन्य किसी को दोष नहीं दे सकते। राहुल गांधी राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व इंसान है, इस बात को उन्होंने बार-बार साबित किया है।
उनके बचकाने बयानों को लेकर पहले से ही राजनीति गरमाई हुई है, अब सूरत अदालत का फैसला राजनीति में उबाल का एक और बिंदु जरूर बन गया है।
इस फैसले ने भाजपा के तरकश में एक शक्तिशाली बाण तो डाल ही दिया है। भाजपा नेता और कार्यकर्ता अब इस फैसले के हवाले से यह दावा कर सकते हैं कि, राहुल गांधी के बयान अदालत की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते, आम जनता की अदालत में कैसे खरे उतरेंगे ?

आजादी के अमृतकाल में भारतीय राजनीति के लिए बेहतर होगा कि, हमारे नेता अपने बयानों के प्रति संवेदनशीलता बनाए रखें, शालीनता, शिष्ट भाषा एवं बयान का उपयोग करें। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- ‘सबको सन्मति दे भगवान’ में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- ‘केवल आकाओं को सन्मति दे भगवान’ एवं ‘बोलने वालों को सद्बुद्धि दे भगवान्।’

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