कुल पृष्ठ दर्शन : 967

You are currently viewing हिन्दी:प्रचार की वर्तमान पद्धति बदलने की जरूरत

हिन्दी:प्रचार की वर्तमान पद्धति बदलने की जरूरत

रामवृक्ष सिंह
***************************

हिन्दी प्रचार की वर्तमान पद्धति अब कारगर नहीं रही। इसे बदलने की जरूरत है। कुछ हिन्दीदां मिलकर परस्पर हिन्दी का गुणगान करें, उसका चालीसा पढ़ें और आरती उतारें, इससे हिन्दी एक सूत भी आगे नहीं बढ़ती, लेकिन वही हिन्दीदां २ नए हिन्दी- प्रयोक्ता तैयार करें तो हिन्दी कई कोस आगे बढ़ जाती है। इसलिए हमें अपने-अपने विश्रान्ति-कक्ष से बाहर निकलकर हिन्दी को लोकप्रिय बनाने पर ध्यान देना होगा। इसकी शुरुआत हम अनेक स्तरों पर कर सकते हैं, जैसे-
हिन्दी में शिशु-गीतों के आकर्षक वीडियो निकालकर (आज जितने आकर्षक शिशु-गीत अंग्रेजी में हैं, उतने हिन्दी या इतर भारतीय भाषाओं में नहीं हैं), हिन्दी में बाल-कथाएं, कविताएँ आदि की अल्पमोली, आकर्षक पुस्तकें छापकर (वर्तमान में ऐसे प्रकाशन नहीं हैं, या बहुत महंगे और स्तरहीन), हिन्दी शिक्षकों का पुनर्भिमुखीकरण करके (हमारे हिन्दी शिक्षक, उचित तरीके से पढ़ाते नहीं उनका उच्चारण सदोष होता है। छोटी ई, बड़ी ई बोलकर पढ़ाते हैं, जो उचित नहीं। वे छात्रों के मन में भाषा के लिए अनुराग नहीं जगा पाते। शिक्षक को छात्र का आदर्श होना चाहिए। हिन्दी शिक्षक इसमें विफल रहते हैं।), हिन्दी पत्रकारिता का स्तर बढ़ाकर (हमारे अधिकतर हिन्दी पत्रकार न भाषा अच्छी लिखते हैं, न उनमें वैचारिक सांद्रता होती है। हमारे हिन्दी पत्र अंग्रेजी पत्रों की तुलना में दोयम सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वे पाठक के समक्ष हिन्दी को आदर्श रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाते। उनके विज्ञापन और समाचार लोक-रुचि को और कुत्सित बनाते हैं। अंग्रेजी पत्रों में अपराध समाचार कम छपते हैं। सेक्सवर्धन और जादू-वशीकरण के विज्ञापन वहाँ नहीं होते। हिन्दी पत्रों में इनकी भरमार होती है।), हिन्दी का प्रकाशन जगत इस समय गड्ढे में गिरा हुआ है। जो संस्थाएँ हिन्दी के प्रचार- प्रसार में जुटी हैं, उन्हें अपनी हिन्दी-प्रकाशन योजनाओं पर विशेष बल देना चाहिए (मसलन इस समूह में बहुत-से सदस्य लिखते-पढ़ते हैं। हम सब मिलकर अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर सकते हैं। आपस में एक-दूसरे की किताबें खरीदकर एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं, क्योंकि प्रकाशक से तो किसी ईमानदारी और भलमनसाहत की आशा करना बेकार है।), हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए हम जनसभाएं कर सकते हैं, विभिन्न मॉल और बड़े स्टोरों से अनुरोध कर सकते हैं कि हिन्दी क्षेत्रों में वे दुकानों के नाम हिन्दी में प्रदर्शित करें, रसीदें हिन्दी में काटें,
हमारे केन्द्रीय मंत्रालय हिन्दी नियमों की अनदेखी करते हैं। बार-बार लिखने पर भी जो मंत्रालय न मानें, हम उनकी भर्त्सना में विज्ञापन छपवा सकते हैं, और उनके अधिकारियों को ‘अंग्रेज श्री’ की उपाधि से अलंकृत कर सकते हैं।
और सबसे बड़ी बात-अपनी बोलचाल व लेखन में अंग्रेजी के शब्दों से बचें। अंग्रेजी व अंग्रेजियत ने हमारा बहुत नुकसान किया है। सबसे बड़े अंग्रेज तो हम हैं-हम हिन्दी वाले।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

Leave a Reply