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लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए समान कानून की बड़ी जरूरत

ललित गर्ग

दिल्ली
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उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने समान आचार संहिता (यूसीसी) के मसौदा बिल को मंजूरी दे दी है, इसी विशेष सत्र में इसे आसानी से पारित भी कर दिया जाएगा। इस तरह देश को आजादी मिलने के बाद यूसीसी लागू करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बन जाएगा। इससे पहले गोवा में यह लागू है। आजादी के अमृतकाल में समानता की स्थापना के लिए इससे अपूर्व वातावरण निर्मित होगा। यह उत्तराखण्ड ही नहीं, समूचे भारत की बड़ी जरूरत है। समानता एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक लोकतांत्रिक मूल्य है। इस मूल्य की प्रतिष्ठापना के लिए समान कानून की अपेक्षा है। यूसीसी देश की राजनीति के सबसे विवादित मुद्दों में रहा है। हालांकि, संविधान में भी नीति निर्देशक तत्वों के रूप में इसका उल्लेख है। इस लिहाज से राजनीति की सभी धाराएं इस बात पर एकमत रही हैं कि, देश में सभी पंथों, आस्थाओं से जुड़े लोगों पर एक ही तरह के कानून लागू होने चाहिए। राष्ट्र का कोई भी व्यक्ति, वर्ग, सम्प्रदाय, जाति जब-तक कानूनी प्रावधानों के भेदभाव को झेलेगा, तब तक राष्ट्रीय एकता, एक राष्ट्र की चेतना जागरण का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। उत्तराखण्ड एवं गोवा के बाद असम और गुजरात जैसे राज्य भी ‘समान आचार संहिता’ को लागू करने की तैयारी में हैं। भारतीय जनता पार्टी एवं नरेन्द्र मोदी सरकार यूसीसी लागू करने की मांग जोरदार तरीके से करती आ रही है और इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से उठाया है। भारतीय न्यायपालिका की तरफ से भी बार-बार इसे लागू करने की जरूरत बताई जा रही है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि, देश में इसे लेकर जागरूकता हाल के दिनों में बढ़ी है।
समान नागरिक संहिता दरअसल ‘एक देश एक कानून’ की अवधारणा पर आधारित है। इसके अंतर्गत देश के सभी धर्मों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था का प्रस्ताव है। भारत के विधि आयोग ने राजनीतिक रूप से अतिसंवेदनशील इस मुद्दे पर देश के तमाम धार्मिक संगठनों से सुझाव आमंत्रित किए थे। यूसीसी में संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन, विवाह, उत्तराधिकार, तलाक और गोद लेना आदि को लेकर सभी के लिए एक समान कानून बनाया जाना है। पिछले कुछ समय से इस पर अच्छी खासी बहस चली है। लिहाजा एक-एक करके अलग-अलग राज्यों में इसे लागू करने और वहाँ के अनुभव के आधार पर आगे बढ़ने का ख्याल गलत नहीं कहा जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि, उत्तराखण्ड विधानसभा में इसे पेश किए से जुड़े तमाम पहलुओं पर रोशनी पड़ेगी और दुविधाएं, शंकाएं एवं संदेह दूर हो जाएंगे। जो अन्य राज्यों के लिए लागू करने का आधार बनेगी।
भारतीय संविधान के मुताबिक भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है, जिसमें सभी धर्मों व संप्रदायों (जैसे-हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध आदि) को मानने वालों को अपने-अपने धर्म से सम्बन्धित कानून बनाने का अधिकार है। भारत में २ प्रकार के व्यक्तिगत कानून हैं। पहला- हिंदू विवाह अधिनियम १९५६, जो हिंदू, सिख, जैन व अन्य संप्रदायों पर लागू होता है। दूसरा-मुस्लिम धर्म को मानने वालों के लिए लागू होने वाला ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ।’ ऐसे में जबकि मुस्लिमों को छोड़कर अन्य धर्मों व संप्रदायों के लिए भारतीय संविधान के तहत बनाया गया अधिनियम १९५६ लागू है, तो मुस्लिम धर्म के लिए भी समान कानून लागू होने की बात की जा रही है, जो प्रासंगिक होने के साथ नए बन रहे भारत की अपेक्षा है।
आज जबकि भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है, जी-२० देशों की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत कर चुका है, भारत की अहिंसा एवं योग को दुनिया ने स्वीकारा है, विश्व योग दिवस एवं विश्व अहिंसा दिवस जैसे आयोजनों की संरचना हुई है। इन सब सकारात्मक स्थितियों को देखते हुए भारत की कानून विषयक विसंगतियों को दूर करना अपेक्षित है, क्योंकि विश्व के कई देशों में समान नागरिक संहिता का पालन होता है। इन देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, अमेरिका व आयरलैंड आदि हैं। इन सभी देशों में सभी धर्मों के लिए एकसमान कानून है, लेकिन भारत में राजनीतिक फायदे के लिए तुष्टिकरण का ऐसा खेल खेला गया, जो विविधता में एकता एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के दर्शन को तार-तार कर रहा है। निजी कानूनों के कारण कहीं-कहीं विसंगति के हालात भी पैदा हो रहे हैं। सामुदायिक घटनाओं को भी राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है, घटना को देखने का यह नजरिया वास्तव में वर्ग भेद को बढ़ावा देने वाला है।
7देश का मुस्लिम भी समाज का एक हिस्सा है, जिसे इसी रूप में प्रस्तुत करने की परिपाटी चलन में आ जाए तो भेद करने वाले विचारों पर लगाम लगाई जा सकती है, लेकिन हमारे देश के कुछ राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को ऐसे भ्रम में रखने के लिए प्रेरित किया कि, वह भी ऐसा ही चिंतन करने लगा, जबकि सच्चाई यह है कि आज के मुसलमान बाहर से नहीं आए, वे भारत के ही हैं। वे सभी स्वभाव से आज भी भारतीय हैं, लेकिन देश के राजनीतिक दल अपने लाभ के चलते मुसलमानों के इस सनातनी भाव को प्रकट करने का अवसर नहीं दे रहे। मुस्लिम पर्सनल लॉ में अनेक विसंगतियां हैं, जैसे शादीशुदा मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को महज ३ बार तलाक कहकर तलाक दे सकता था। इसके दुरुपयोग के चलते सरकार ने इसे खत्म कर दिया है।

वर्तमान में हम देख रहे हैं कि कुछ लोग समान नागरिक कानून का विरोध कर रहे हैं, जबकि मुस्लिम समाज की महिलाएं इस कानून के समर्थन करने के लिए आगे आ रही हैं। इस कानून के समर्थकों का मानना है कि, अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा। फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल ‘मत बैंक’ वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे। इसके लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे। अगर हम यह चिंतन भारतीय भाव से करेंगे तो स्वाभाविक रूप से यही दिखाई देगा कि, समान नागरिक कानून देश और समाज के विकास का महत्वपूर्ण आधार बनेगा।