रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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“मैं बार-बार कह रही हूॅं कि, किशन को अंतर्राष्ट्रीय आयोजन समिति से बाहर रखिए, पर आप मेरी बात ही नहीं समझ रहे हैं।” झुंझलाहट से भरी रेखा मीटिंग के दौरान अपने इंचार्ज से थोड़ा चिढ़कर बोली।
उसे पता था कि, यदि इंचार्ज सुबन्ध उससे नाराज़ हो गए तो उसके हाथ से वह सारी पावर छिन जाएगी, जो उसको बस भगवान की कृपा से ही मिल पाई है।
वैसे, उसको अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा तो था पर २५ वर्षों के कार्यकाल में केवल इन २ वर्षों से यह निदेशक उसकी कार्यप्रणाली को समझ रहे थे तथा पुरस्कृत भी कर रहे थे। इसीलिए वह अपने कार्यों पर पैनी नज़र रखे हुए थी।
आज किसी लालची तथा जुगाड़ू कर्मचारी को अगले माह होने वाले अंतर्राष्ट्रीय आयोजन की समिति का सदस्य होता देख रेखा चिड़चिड़ा रही थी।
“अरे मैडम! बुढ़ा गई हैं, पर बुद्धि नहीं चलाती हैं। अरे यदि लालची लोग ही नहीं रहेंगे तो हमारी संस्था चलेगी कैसे ? बतलाइए तो जरा ?”
कुटिलता से मुस्कराते हुए सुबन्ध बोला।
“देखिए, उसको ललचवाएंगे तो वह कुछ अपने जैसे लोगों को जोड़ेगा, जो हमारे कार्यक्रम में आने के लिए उत्साहित होंगे। मुन्ना-बच्चा करके १-२ प्रमाण-पत्र दे दिया जाएगा तो आवश्यक रसीदों का जुगाड़ भी हो जाएगा और अंटी से पइसा भी नहीं खिसकेगा।” कहते हुए सुबन्ध ठहाका लगाता हुआ सीट से उठा तथा रेखा के कान के पास आकर यह बोलता हुआ निकल गया कि-
“ये लबरे और लालची लोग न हों ना, तो काम करने में, डाटा इकट्ठा करने में नानी याद आ जाए! अरे उनको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करना भी कोई सरल काम है क्या ?”