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वासना रसायन में उलझे सब

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आशाओं के सब भँवर टूट गए,
तट विहीन हो रही मोह नदियाँ
तृष्णाओं के जाले फेंक-फेंक कर,
पकड़ रहे हैं विकारों की मछियाँ।

झुरमुट बन मद झाड़ है उपज रहे,
दब रही है जिनमें ज्ञान की फसलें
प्रेम की खाद अब मिलती कहां है ?
वासना रसायन में उलझे सब मसले।

फरिश्ते तो हो गए हैं दूर की कौड़ी,
रिश्ते ही नित निरन्तर जर्जरा रहे हैं
प्रेमी-प्रेमिका के तो भला क्या कहने ?
भाई-बहन मदहोशी में सठिया रहे हैं।

छल-छदम तो होते सदियों से आए हैं,
बेशर्मी तो इस युग में देखो आई नई है
न बच्चों में तहजीब पहनावे-बरतावे की,
न अभिभावकों में आज वह शेष रही है।

फिर कहते हैं क्यों टिकते नहीं रिश्ते ?
यह प्रश्न तो शायद आज बेईमानी है
शादी से पहले ही संबंधों को बनाना,
वासनाओं को प्रेम समझना नादानी है।

हम मानव हैं, समझाते क्यों नहीं ?
क्यों पशु की नकल सब करते हैं ?
वासनाओं की आजादी, अमर्यादी,
निज पद में कुठाराघात क्यों करते हैं।

विकारों को समझना स्वर्ग से बढ़ कर,
वासनाएं ही क्यों पीयूष-सी लगती है ?
इनकी प्यास कहां बुझती है किसी की ?
ये तो युगों-युगों से यूँ ही बस भभकी है॥

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