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वैश्विक शान्ति के लिए हिन्दी बने विश्वभाषा

डॉ. मनोहर भण्डारी
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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फिजी यात्रा-विश्व हिंदी सम्मेलन…

फिजी के नांदी शहर में आयोजित बारहवें ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ को सार रूप में देखें तो ऐसा ध्वनित और स्पष्ट प्रतीत होता है कि फिजी सरकार और भारत सरकार के संयुक्त तत्वावधान में इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य हिन्दी को विश्वभाषा बनाना रहा है। फिजी के नागरिकों के अतिरिक्त ३० देशों के साढ़े ३०० से अधिक सहभागियों ने सम्मेलन में सक्रियतापूर्वक भाग लिया। वास्तव में परमाणु, जैविक और तीसरे विश्व युद्ध के आसन्न खतरों और सामूहिक मानव संहार की भीषण संभावनाओं के चलते विश्व शान्ति की स्थापना में भारत ही एकमात्र आशा की अन्तिम किरण के रूप में निर्विवाद रूप से एक ऐसी महाशक्ति के रूप में उभरा है, जो महत्वपूर्ण और परिमाणमूलक भूमिका निभा सकता है। विश्व शान्ति, वर्तमान परिस्थितियों में एक आवश्यकता बनकर उभरी है। हिन्दी के विश्वभाषा बनने पर समूचा विश्व यह भली-भांति जान सकेगा कि, विश्व पर एकाधिकार करना या विश्व को अपना बाजार समझना-बनाना नहीं, अपितु ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भारत की मूल आत्मा है। भारत की ज्ञान-विज्ञान परंपराओं का अन्तिम लक्ष्य भी ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ ही है।
इस सम्मेलन में अपने वक्तव्यों में भारत के विदेश मंत्री, फिजी के उप प्रधानमंत्री, भारत के विदेश राज्य मंत्री और गृह राज्य मंत्री ने भी भारतीय ज्ञान-विज्ञान परम्परा, जो विश्वशांति का सन्देश देती है, के व्यापीकरण के लिए हिन्दी के वैश्वीकरण को आवश्यक निरूपित किया है। भारत की मूल अवधारणा ‘जियो और जीने दो’ है और इसकी प्राण-प्रतिष्ठा समय की आवश्यकता है। इसी पावन उद्देश्य से भारतीय ज्ञान-विज्ञान परम्परा, हिन्दी और कृत्रिम मेधा पर केन्द्रित विचार- विमर्श इस सम्मेलन का मुख्य बिन्दु था।
माता सरस्वती की स्तुति के उपरान्त फिजी के पण्डितों ने सम्मेलन की सफलता के लिए जनजातिय विधि-विधान के साथ देवी-देवताओं का आव्हान किया। सम्मेलन में उपस्थित हरेक व्यक्ति यह अनुभव कर रहा था कि फिजी के नागरिक परंपराओं, आस्थाओं, मान्यताओं एवं धरती से कितनी आस्था और गहराई के साथ जुड़े हुए हैं। आत्मनिर्भरता और अपने पारंपरिक कुटीर उद्योग के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा को सगर्व प्रकट करते हुए सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर हाथों से बनाई गई विविध प्रकारी चटाइयों को पूजा-अर्चना के साथ भारत के प्रतिनिधि डॉ. जयशंकर को भेंट किया गया।
हिन्दी के विश्व भाषा बनने से कालान्तर में यह लाभ होगा कि धीरे-धीरे समूचा विश्व यह जान सकेगा कि पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रची गई गीता का सार यह है कि, समूचा संसार एक ही सत्ता का विस्तार है और प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का निवास है। कण-कण में भगवान की बात में परोक्ष रूप से साम्यता है, और प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर की उपस्थिति सनातन संस्कृति का सार्वभौमिक और सार्वकालिक उद्घोष है। गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि, कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के भीतर विराजमान परमात्मा को कष्ट पहुँचाता है तो यह अधर्म है और इसी के कारण अनैतिकता का साथ देने के चलते भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण, महादानी कर्ण जैसे धार्मिक व्यक्तियों के वध को भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मोचित निरूपित किया। जो भी व्यक्ति नैतिकता अथवा भातृत्व अथवा सभी प्राणियों में मैत्री भाव रखता है, वह धार्मिक है। धर्म का पूजा-पद्धतियों से कोई विशेष सरोकार नहीं है। यह अटल सत्य है कि, भाषा से संस्कृति मुखरित होती है और हिन्दी के विश्वभाषा बनने से भारतीय संस्कृति वैश्विक रूप से मुखरित होगी। उन्मुक्त यौनाचार में संलग्न रहे वयस्कों से साक्षात्कारों पर आधारित अमेरिकी लेखक गैब्रीएल ब्राउन द्वारा ब्रह्मचर्य पर लिखित पुस्तक ‘द न्यू सेलेबेसी’ में ब्रह्मचर्य की जो अवधारणा दी गई है, वह ब्रह्मचर्य को उतनी गहराई से नहीं बता और समझा पाई है, जितना हमारे शास्त्रों में उसकी विवेचना है। इसी तरह महाभारत का ६ खण्डों में मंदारिन भाषा (चीनी) में अनुवाद हुआ है, इसमें भी महाभारत की मूल अवधारणाओं का गहराई से विवेचन नहीं सम्भव हो पाया है। ये अनुवाद इस बात का स्पष्ट संकेत है कि, विश्व के शक्ति-सम्पन्न देशों को भारतीय धार्मिक ग्रंथों और भारत से बहुत अपेक्षा है।
वेदों में मानव स्वास्थ्य से जुड़ी ऐसी अनेक चिकित्सा पद्धतियों का उल्लेख है, जो न केवल निरापद, औषधिविहीन और अत्यधिक प्रभावी है, अपितु अनेक देशों के आधुनिक वैज्ञानिकों ने उनकी प्रभावशीलता पर प्रामाणिक तथा उच्च स्तरीय वैज्ञानिक शोध किए हैं और वे अपने रोगियों पर उनका सफलतापूर्वक उपयोग भी कर रहे हैं। इसी तरह आयुर्वेदिक दिनचर्या के कई बिंदुओं पर पर्याप्त वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं। आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, मन्त्र चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा, आभार चिकित्सा आदि कुछ ऐसी ही पद्धतियों के नाम हैं, जिनकी प्रभावशीलता पर वैज्ञानिकों ने अनेक पुस्तकें तक लिख डाली हैं। इन सभी का वैश्विक व्यापीकरण, विश्वभर में प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों की प्रभावशीलता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी कर सकेग। जिस दिन ये चिकित्सा पद्धतियाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के वैश्विक पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होंगी, वह दिन मानवीय स्वास्थ्य के इतिहास में एक स्वर्णिम युग का शुभारम्भ दिवस होगा।
इस सम्मेलन में जिन विषयों पर विचार, विमर्श और विस्तृत चर्चा हुई, उनके शीर्षकों से ही अनुमान लग सकता है कि सम्मेलन कितना सार्थक रहा होगा। परम्परागत ज्ञान, हिन्दी और कृत्रिम मेधा, भारतीय ज्ञान परम्परा का वैश्विक सन्दर्भ और हिन्दी, बदलते परिवेश में प्रवासी साहित्य, वैश्विक सन्दर्भ में भाषाई समन्वय और हिन्दी अनुवाद, हिन्दी और सिनेमा, गिरमिटिया देश और हिन्दी, हिन्दी और प्रशांत क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी और २१ वीं सदी में हिन्दी, हिन्दी पर वैश्विक धारणा और मीडिया आदि जैसे विषयों पर विशेषज्ञ विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए।जिज्ञासा समाधान के समय सुधि श्रोताओं ने अपने ज्ञान से उन विषयों को और भी समृद्ध किया। इस सम्मेलन में देशभर के अनेक भूतपूर्व और वर्तमान कुलपति सहित शिक्षाविदों ने सहभागिता की, साथ ही हिन्दी के व्यापीकरण में अनेक वर्षों से प्रयास कर रही संस्थाओं के पदाधिकारियों प्रसिद्ध साहित्यकारों, कवियों और हिन्दीसेवियों ने अपनी वैचारिक आहुतियाँ दी हैं- अतुल भाई कोठारी, (राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास), डॉ. रजनीश शुक्ल, (कुलपति, वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय), खेमसिंह डेहरिया (कुलपति, अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय) डॉ. रवीन्द्र शुक्ला (पूर्व शिक्षा मंत्री उत्तर प्रदेश), डॉ. विकास दवे (सदस्य, केंद्रीय साहित्य अकादमी एवं निदेशक साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश), विजय मनोहर तिवारी (सूचना आयुक्त, मध्य प्रदेश शासन) आदि भाषाविदों ने भी इस सम्मेलन को गरिमा प्रदान की।
भारतीय संस्कृति में ‘अतिथि देवो भव’ का उल्लेख है, उसे फिजी में साकार होते देखा जा सकता है। तुलसीदास जी ने कहा था कि ‘आवत हिय हरषै नहीं, नयनन नहीं स्नेह, तुलसी वहां न जाइए चाहे कंचन बरसे मेह’ अर्थात् आपको देखते ही हृदय प्रसन्नता से नहीं खिलें और आँखों में स्नेह नहीं हो तो वहाँ नहीं जाना चाहिए, चाहे सोने की वर्षा हो रही हो। फिजी प्रवास के समय ऐसा स्पष्ट अनुभव हुआ कि, हम भारतीयों ने भले ही अपने सामान्य दैनिक व्यवहार में तनाव और चिंताओं को अपने व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना कर अपरिचितों अथवा परिचितों से अकारण उत्साह के साथ राम-राम का सम्बोधन करने की अपनी सनातनी परंपरा को त्याग दिया हो, परन्तु फिजी में निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिक और वहाँ के मूल नागरिकों ने प्रसन्नता और उत्साह के साथ हरेक परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति को ‘बुला’ (नमस्ते-हार्दिक स्वागत) शब्द के सोत्साह उद्घोष के साथ गर्मजोशी से अभिवादन करने की अपनी परम्परा को त्यागा नहीं है। ‘बुला’ शब्द का उच्चारण करते समय उनके शरीर का हरेक अंग और रोम-रोम प्रफ्फुलित हो उठता है और सुनने वाले लोग भी अपने भीतर एक अनूठी ऊर्जा का संचरण अनुभव करते हैं, और स्वयं भी उसी गर्मजोशी से ‘बुला’ का उच्चारण करते हैं, क्योंकि ये सांस्कृतिक धरोहरें संक्रामक होती हैं। चिकित्सा विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि फिजी के नागरिकों द्वारा दिनभर में अनेक बार उच्चरित ‘बुला’ शब्द उनके रक्त में तनावकारी रसायन कॉर्टिसोल का स्राव कम कर देता होगा और सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसिन तथा एंडोर्फिन आदि ऊर्जादायक, प्रसन्नतादायक, दर्दनाशक, हृदय की रक्त वाहिकाओं को चौड़ा रखने वाले रसायनों का उपहार देता होगा। तभी तो फिजी में रोगों का प्रतिशत बहुत कम है। फीजी के अधिसंख्य नागरिक, बच्चे भी सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जाग जाते हैं, छुट्टी के दिनों में भी।
खुले हृदय से स्वागत और अकारण अपरिचितों के प्रति सहायता के दुर्लभ भाव ने मुझे श्रीरामचरित मानस आदि धर्म ग्रंथों में वर्णित ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ को सहसा स्मृति में ला दिया। पहले दिन तो यही लगा कि राजकीय अतिथि होने के कारण शासकीय आदेशों के तहत प्रसन्नता के साथ अभिवादन और सहायता कर रहे होंगे, परन्तु जब बाजार में निकला और अचानक बरसात शुरू हुई तो एक दुकानदार महिला दुकान छोड़कर छाता लेकर दौड़ते हुए आई। हालांकि, मैंने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि इस हल्की बरसात में भीगना चाहता हूँ, परन्तु सहायता का यह भाव अनोखा और दुर्लभ है l यही तो भारतीयता का वास्तविक परिचय है और भारत की असली पहचान है। फिजीवासी इसे ‘बुला चेतना’ कहते हैं। जितने भी फिजी नागरिक, चाहे भारतीय मूल के हों या फिजी के मूल निवासी, सभी में लघु भारत के दर्शन होते हैं। नांदी शहर में अनेक संस्थानों के नाम ‘बुला’ हैं। फिजी नागरिक, अतिथि को अपने परिवार का अंग मानते हैं और बिछड़ते समय उनकी आँखों के कोनों में विरह जल की सूक्ष्म बूंदें स्वतः प्रकट होते देखी जा सकती हैं। एक फिजी विद्यार्थी ने कहा कि हमारा देश विश्व के नक्शे पर एक छोटी-सी बूँद जैसा है और हम गरीब भी हैं, परन्तु हम भारत से बहुत प्रेम करते हैं और भारत से हमें अपेक्षा भी है। उम्र में छोटे अथवा बड़ों में भेदभाव न करते हुए सभी का सम्मान करने वाले फिजीवासियों ने अपनी आत्मीयता के भाव से हमारे हृदयों में आत्मीयता और प्रसन्नचित्तता की अमिट छाप छोड़ी है। उप प्रधानमंत्री बिमन प्रसाद ने एक बहुत ही मार्मिक बात कही थी कि, जब हमारे पूर्वजों ने भारत छोड़ा था तो गीता, रामायण और महाभारत अपने सिर पर रखकर लाए थे और ये सभी ग्रंथ आज हमारे हृदयों में बसते हैं।
फिजी में होली, दीवाली आदि अनेक भारतीय त्यौहार मनाए जाते हैं, साथ ही श्राद्ध पक्ष में पितरों की पूजा भी पंडितों से करवाई जाती है। हालांकि, सबसे बड़ा पर्व स्वतन्त्रता दिवस (१० अक्टूबर) है, इसी तरह गणतंत्र दिवस भी समारोहपूर्वक मनाया जाता है।
मैंने युवा और प्रौढ़ आयु के दर्जनों फिजी स्त्री-पुरुषों से चर्चा की और भारत के प्रति प्रेम, विश्वास व सम्मान का स्पष्ट दर्शन किया। युवाओं की अपेक्षा है कि भारत में रहने वाले उनके सगे-सम्बन्धी उनसे किसी प्रकार से सम्पर्क करें तो हम पर बड़ा उपकार होगा। हम उनसे मिलने के लिए उत्सुक हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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