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वैश्विक हिंदी और हम

दीपक शर्मा

जौनपुर(उत्तर प्रदेश)

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हिंदी  दिवस स्पर्धा विशेष………………..


किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उस राष्ट्र की भाषा में निहित होती है। भाषा का अनुवाद मात्र करने से संस्कृति में परिवर्तन आ जाता है। हिंदी भाषा के ‘प्रणाम’ का बोध हमें अंग्रेजी भाषा के ‘गुड मार्निंग’ से नहीं होता। ‘क्षमा करना’ को ‘साॅरी’ शब्द कहना आसान लगता है। इसी प्रकार थैंक यू,हाय,बाय, वेलकम,एक्सक्यूज मी आदि शब्द हिंदी में आ जाने से अपनी संस्कृति में पाश्चात्य जैसा कुछ बोध होने लगा है। १८३० के दशक में लार्ड मैकाले ने इस बात को समझ लिया था। लार्ड मैकाले ने कहा था-“जो शिक्षा पद्धति लागू कर रहा हूँ उसके पाठ्यक्रम के अनुसार यहाँ के शिक्षित युवक देखने में हिंदुस्तानी लगेंगे,किंतु उनका मस्तिष्क अंग्रेजियत होगा।” इस बात को भारतीय समझ नहीं सके,जिसका प्रभाव आज भी कुछ हद तक बचा है।
लार्ड मैकाले यह भी कहते थे-“हिंदी हमारे रोजगार की भाषा नहीं हो सकती,हिंदी के माध्यम से हम बच्चों को न तो शिक्षा दे सकते हैं और न ही अन्य किसी प्रकार का विकास करने का रास्ता दे सकते हैं।” उनका कहना था हिंदी भाषा के माध्यम से गणित, विज्ञान,वाणिज्य सांख्यिकी एवं साहित्य की शिक्षा दे पाना सम्भव नहीं है। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है-“भारत के सम्पूर्ण साहित्य का भण्डार यूरोप के एक पुस्तकालय के बराबर है।” उस समय की हम बात करें तो हमारी हिंदी भाषा किसी मायने में कमजोर नहीं थी किंतु कई सारी उपभाषाओं-अवधी, ब्रज,मैथिली,खड़ी बोली आदि में विभाजित थी। समस्या यह थी कि कोई एक निश्चित भाषा नही बन सकी थी,जो पूरे भारत के साहित्य एवं समाज का एकसाथ प्रतिनिधित्व कर सके। भारतेन्दु युग के बाद से हिंदी खड़ी बोली देश के साहित्य एवं समाज के केन्द्र में स्थापित हो चुकी थी और देश की आजादी तक यह राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के योग्य हो चुकी थी। आजादी के बाद भारत में डेढ़ से दो प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी ठीक से पढ़ना, लिखना व बोलना जानते थे। इसके बावजूद भी कई बड़े राजनेताओं द्वारा हिदी भाषा का विरोध किया गया। आठ दस की संख्या में लोग सड़कों पर खड़े होकर जबरदस्ती अंग्रेजी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा बनाने की जिद पर अड़े रहे। लार्ड मैकाले जो बात १९वीं शदी के तीसरे दशक में कहा करता था,वही बात पंडित जवाहर लाल नेहरु आजादी के पहले दशक में कहते थे। यही बात तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि एवं जयललिता ने भी काफी दिनों तक दोहरायी।
यदि सही दृष्टि से देखा जाए तो भारतेन्दु युग के बाद से हिंदी की ठोकर खाने जैसी स्थिति कभी आयी ही नहीं,बस कुछ लोगों द्वारा इसे जान-बूझकर ठोकर मारी गयी और आज की परिस्थिति में कोई ऐसा कह रहा हो तो वह सिर्फ और सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहा है। हिंदी विश्व स्तर की भाषा है,इसमें कोई सन्देह नहीं। इसके माध्यम से सभी प्रकार के रोजगार प्राप्त किए जा सकते हैं एवं सभी प्रकार की शिक्षा दी जा सकती है। संविधान की आठवीं अनुसूची में २२ भाषाएँ हैं,जो शब्द ग्रहण के लिए पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त इसमें कुछ विदेशी शब्दों को भी पचाने की भी क्षमता है,किंतु लार्ड मैकाले की बात आज भी हम दोहराते रहें तो यह एक देश की भाषा के साथ नाइंसाफी होगी। विश्व के कई देश हमारा उपहास करते हुए नजर आते हैं। हमारे देश के नेता एवं राजनेता लोग अपनी एकपक्षीय या द्विपक्षीय वार्ता को रखने में ब्रिटिश भाषा की मदद लेते हैं या अपना पत्र-अभिलेख आदि अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत करते हैं। दुनिया के सभी देश अपनी सीमा के अंदर चाहे जिस भाषा का प्रयोग करते हैं,किंतु कूटनीति के मंच पर वे अपने देश की भाषा का ही प्रयोग करते हैं। आज की परिस्थिति में वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा विदेशों में हिंदी भाषा में भाषण देना काफी प्रशंसनीय एवं सराहनीय है। यह कार्य हम सबको शिक्षा,संस्कार से लेकर रोजगार तक मिलकर करना चाहिए।
नि:संदेह हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है और गर्व की भी। जब हम हिंदी की बात विश्व में करते हैं,तो हमारा सीना छप्पन इंच चौड़ा हो जाता है किंतु जब इसकी बात अपनी ही सीमा के अंदर करतें हैं तो हमारा सिर जमीन में गड़ जाता है। बहुत आसान है कहना कि विश्व के कई देशों में हिंदी पढ़ी-लिखी,पढ़ाई एवं बोली जा रही है,किंतु हिंदी को व्यवहारिक बनाने के लिए हम कितना प्रयास कर रहे हैं,खुद से ही नहीं संतुष्ट हो पा रहें हैं,यह चिन्तन का मसला है। हम चाहते हैं कि बच्चों को शिक्षा उनकी मातृभाषा हिंदी में ही दी जाए,किंतु हम पेट काटकर भी बच्चों को कान्वेन्ट विद्यालय में भेजने को विवश हो जाते हैं। बच्चे को ‘अ’ बाद में सिखाते हैं,’ए’ पहले सिखाते हैं,क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य सदैव उपर की ओर जाना होता है,एवं उपर की ओर अंग्रेजी का जाल बिछा होता है। अभियांत्रिकी और चिकित्सा की पढ़ाई का माध्यम ८० प्रतिशत अंग्रेजी है। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा का ०पर्चा अंग्रेज़ी में तैयार किया जाता है। हिंदीभाषियों को उसका अनुवाद मिलता है,जो प्राय: क्लिष्ट शब्दों में होता है। अंग्रेजी कमजोर होने के कारण विद्यार्थियों को साक्षात्कार में भी काफी दिक्कतें आती है। किसी विषय की अच्छी जानकारी लेने के लिए अंग्रेज़ी की तह में जाना पड़ता है। देश में अभी भी कुछ कार्य छोड़कर सारे सरकारी एवं गैर सरकारी कार्यालयीन कामकाज अंग्रेज़ी में हो रहे हैं। राजनेता लोग हिंदीभाषी होते हुए भी अंग्रेजी को ही वरीयता देते हैं। छात्रों की यह विवशता है। अब इन विवशताओं को खत्म करना हमारा पहला दायित्व होना चाहिए। इसलिए,सुधार पहले उपर से होना चाहिए, नीचे तो स्वत: परिवर्तन आ जाएगा। आज जबकि परिवर्तन हिंदी शिक्षा से लेकर तकनीकी तक,वाणिज्य से लेकर व्यापार तक,सिद्धांत से लेकर व्यवहार तक सभी रुपों में विकसित है, तों यहां बदलाव ऊपर से ही किया जाए। किसी राष्ट्र की पहचान उस राष्ट्र की भाषा से होती है,और हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसकी गरिमा को बनाये रखना हमारा दायित्व है। हिंदी को हमें न सिर्फ बचाना है,हिंदी को बढ़ाना भी है। हिंदी को सम्मान देना है। संविधान के अनच्छेद ५१ का पालन करते हुए इसके शब्द ग्रहण एवं प्रचार-प्रसार को भी बढ़ाना है। यह कार्य सिर्फ हिंदी दिवस को ही नहीं,अपितु रोज-रोज करना होगा। जय हिंद,जय हिंदी।

परिचय-दीपक शर्मा का स्थाई निवास जौनपुर के ग्राम-रामपुर(पो.-जयगोपालगंज केराकत) उत्तर प्रदेश में है। आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय से वर्ष २०१८ में परास्नातक पूर्ण करने के बाद पद्मश्री पं.बलवंत राय भट्ट भावरंग स्वर्ण पदक से नवाजे गए हैं। फिलहल विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।आपकी जन्मतिथि २७ अप्रैल १९९१ है। बी.ए.(ऑनर्स-हिंदी साहित्य) और बी.टी.सी.( प्रतापगढ़-उ.प्र.) सहित एम.ए. तक शिक्षित (हिंदी)हैं। आपकी लेखन विधा कविता,लघुकथा,आलेख तथा समीक्षा भी है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ व लघुकथा प्रकाशित हैं। विश्वविद्यालय की हिंदी पत्रिका से बतौर सम्पादक भी जुड़े हैं। दीपक शर्मा की लेखनी का उद्देश्य-देश और समाज को नई दिशा देना तथा हिंदी क़ो प्रचारित करते हुए युवा रचनाकारों को साहित्य से जोड़ना है।विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा आपको लेखन के लिए सम्मानित किया जा चुका है।

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