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शास्त्री जी के हर वाकये में सीख

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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जन्म दिवस (२ अक्टूबर) विशेष…..

सभी जानते हैं कि,२ अक्टूबर को सादगी की प्रतिमूर्ति लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिन है।यह भी जानते होंगे कि यह गाँधी जी को अपना गुरु मानते थे और उन्हीं से उन्होंने सादगी और देश के प्रति प्रतिबद्धता सीखी। एक बार उन्होंने गाँधीजी के लहजे में ही कहा भी था कि ‘मेहनत प्रार्थना के ही समान है।’
वैसे तो अनेक ऐसे वाकये हैं जिससे हँसमुख स्वभाव वाले शास्त्री जी की सादगी के अलावा कर्मठता,सरलता,नियमबद्धता,दृढ़निश्चयता वगैरह स्पष्ट झलकती है,लेकिन एक ऐसा वाकया है, जिससे भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान रखने वाले शास्त्री जी की निःस्वार्थ सेवा भावना को जानने को मिलेगा।
एक बार लाल बहादुर शास्त्री को लोक सेवा मंडल का सदस्य बनाया गया,लेकिन बहुत संकोची थे तो वे कभी नहीं चाहते थे कि उनका नाम अखबारों में छपे और लोग उनकी प्रसंशा और स्वागत करें। एक बार शास्त्री जी के मित्र ने उनसे पूछा,-‘शास्त्री जी! आप अख़बारों में नाम छपवाने में इतना परहेज़ क्यों करते हैं ?’
शास्त्री जी मुस्कुराए और बोले,-‘लाला लाजपत राय जी ने मुझे लोक सेवा मंडल के कार्यभार को सौंपते हुए कहा था कि,लाल बहादुर! ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं-एक बढ़िया संगमरमर के पत्थर हैं,जिन्हें दुनिया देखती है और प्रशंसा करती है। और दूसरे ताजमहल की नींव में लगे हैं,जो दिखते नहीं और जिनके जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है, लेकिन ताजमहल को वे ही खड़ा किए हुए हैं। लाल जी के ये शब्द मुझे हमेशा याद रहते हैं और मैं नींव का पत्थर बना रहना चाहता हूँ।’
इस वाकये द्वारा शास्त्री जी ने अपने सभी चाहने वालों को ‘नि:स्वार्थ भाव से ज़िन्दगी में दिखावे से बचकर वो कार्य करना चाहिए,जो असल में ज़रूरी है’ का सन्देश बड़ी ही स्पष्टता से दे दिया। उनकी सादगी,देशभक्ति और ईमानदारी के लिए मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।

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