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शिक्षा के व्यवसायीकरण पर चिंतन जरूरी

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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कुछ दिन पूर्व मैं किताब खरीदने गई तो वहाँ एक महाशय अपने बच्चों की किताब खरीदने के लिए पुस्तक विक्रेता से दाम की अधिकता के बारे में तथा पुरानी किताब को बेचने के लिए अनुरोध कर रहे थे, और बड़बड़ा रहे थे कि क्या जमाना आ गया, शिक्षा व्यापार बन गई, पहले घर के एक बच्चे की किताब से पूरा परिवार पढ़ लेता था, अब तो हर वर्ष कोर्स की किताब बदलना जैसे शालाओं का जन्म सिद्ध अधिकार हो गया, ताकि अधिक से अधिक व्यापार किया जा सके।
किताब बदलती रहती है, वह भी पहले से अधिक महँगे दामो में। पुरानी किताब रद्दी की टोकरी में फेंकने के सिवा कोई चारा नहीं। हम जैसे मध्यम वर्ग के लोग इसलिए अपने बच्चों को अच्छे विद्यालयों में पढ़ा नहीं पाते हैं। ऊपर से फीस इतनी कि रीढ़ की हड्डी टूटती हुई मालूम पढ़ती है।
मैंने उनका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-तो जरूरत क्या है अँग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाने की ! सरकारी शाला में क्यों नहीं पढ़ाते हैं ?
वे महाशय बोले-सरकारी विद्यालय का हाल आपको पता है, अधिकतर शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, जो उपस्थित भी रहते हैं, वह ठीक से पढ़ाते नहीं।
मैंने कहा-हाँ, यह बात तो मैंने भी सुनी है, पर मेरा विचार है कि, विद्यालय कोई भी अच्छा या बुरा नहीं होता, खुद को देखना ही पड़ता है, ऊपर से ट्यूशन कोचिंग आदि ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है।
महाशय बोले,- मैडम सुना है आप एक लेखिका हैं। अतः इस विषय पर कुछ लिखिए न। कम से कम सरकार को तो पता चले कि क्या घोटाला मचा हुआ है शिक्षा के नाम पर।
मैंने कहा, कोशिश करूंगी लिखने की, पर सरकार के कान तक यह बात जाएगी या नहीं, यह नहीं बता सकती।
जब उद्देश्य ही गलत हो तो, शिक्षा का कोई तात्पर्य नहीं रह जाता। आज की बढ़ती हुई अँग्रेज़ी शिक्षा का दौर हमें यह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि क्या यह सही है ?
अँग्रेजों के आगमन के पूर्व हमारे भारत की शिक्षा संस्कृत या देशीय भाषा में होती थी, नालन्दा विश्वविद्यालय सबसे बड़ा उदाहरण है। हमारे प्राचीन भारत में गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था न सिर्फ बच्चों को भारत की संस्कृति का ज्ञान कराती थी, वरन् वह आध्यात्मिक, आत्मिक एवं व्यवहारिक शिक्षा पर भी
जोर देती थी ।
उन दिनों भारत की यह श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी। यदि नालन्दा विश्वविद्यालय मोहम्मद गोरी द्वारा न जलाया जाता तो आज भारत की शिक्षा का रूप कुछ और ही होता।
अंग्रेजों के आगमन के बाद भारत में शिक्षा प्रणाली का परिवर्तन होना स्वाभाविक था। लार्ड मैकाले (कानून मन्त्री) जब भारत आया तो, सर्वप्रथम उसने शिक्षा व्यवस्था को बदला। पहले की पाठशालाओं को जबरदस्ती बंद कराया, गुरूकुल शिक्षा को समाप्त करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। और तो और मूलभूत शिक्षा पद्धति पर भी कानून का पैंतरा चलाया। अंग्रेजी ढंग की शिक्षा की व्यवस्था की और अंग्रेजी को भारत वर्ष की राष्ट्रभाषा घोषित किया।
उन्होंने खुले शब्दों में कहा,-“मेरा उद्देश्य इस शिक्षा से केवल मात्र यही है कि, भारत कभी भी सर न उठा सके। भारत में क्लर्क हो और भारत कभी भी सर उठाकर स्वतंत्रता की माँग न कर सके। भारत बहुत दिनों तक गुलाम बना रहे।”
इस शिक्षा को उस समय प्रतिष्ठित वर्ग ने बहुतायत से अपनाया, क्योंकि वह अँग्रेजों की चाटुकारिता में विश्वास रखते थे। इस प्रकार हमारे प्राचीन भारत की शिक्षा का उद्देश्य सर्वागीण विकास की धारणा बदल गई। स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा की नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। सन् १९४८ में बी.जी. खेर की अध्यक्षता में कई बेसिक शिक्षा समिति का निर्माण हुआ। यह योजना पूरी हुई और डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन के अनुसार विश्वविद्यालय शिक्षा के पूर्व १२ वर्ष तक की शिक्षा के अध्ययन के निम्न आयाम रखे गए। उच्च शिक्षा के ३ प्रमुख उद्देश्य-सामान्य शिक्षा, संस्कारी शिक्षा और व्यवसायिक शिक्षा रखे गए। योजना तो अच्छी थी, पर फलीभूत नहीं हो पाई।
संंभ्रात एंव धनाढ्य परिवारों के अभिभावकों ने ऊपरी चमक-दमक देखकर अपने बच्चों को अंग्र माध्यम के विद्यालयों में ही पढ़ाना उचित समझा। आज भी यही धारणा है कि, हमारा बच्चा अंग्रेजी शाला में पढ़कर खूब पैसे कमाएगा, विदेश जाएगा। इस धारणा के आम होने से शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य कहीं तिरोहित हो गया।
इस भौतिकवादी युग में अधिक से अधिक पैसा कमाना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य रह गया है। संस्कार, संस्कृति एवं देशप्रेम की भावना को लोगों ने महत्व ही नहीं दिया। यही स्वार्थपरकता हर संंभ्रात परिवार में इस तरह पैठ कर गई है कि, वह इसके अतिरिक्त कुछ अलग हटकर सोचना ही नहीं चाहते।
स्वतंत्रता के बाद भी यही धारणा बनी हुई है।
ईसाई मिशनरियों द्वारा भी अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने से मैकाले की शिक्षा नीति में आग में घी का काम किया और हुआ भी यही। अँग्रेज़ी माध्यम के कई विद्यालय खोले गए। फल यह हुआ कि, बेसिक शालाओं व अंग्रेजी शालाओं मे एक खाई-सी खुद गई। न केवल विद्यालयों में, बल्कि शिक्षार्थियों में भी सम्पन्नता और विपन्नता की खाई खुद गई।
आज भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थी के अभिभावक की धारणा ज्यों की त्यों बनी हुई है, और इसी होड़ में उच्च मध्यम श्रेणी के परिवार भी चपेट में आ गए हैं। सरकारी शालाओं के अध्यापकों की नगण्यता ने इस आग में घी डालने का काम किया है। धन की लोलुपता में वे अपने देश की संस्कृति, सभ्यता, गंभीरता, आध्यात्मिक चिंतन और भावना तथा संस्कार को भूले जा रहे हैं। उनकी देखा-देखी सभी अँग्रेज़ी शिक्षा के मुरीद हो गए हैं।
सभी भेड़ चाल की तरह ही चलने लगे, ऐसे परिवार के लोगों को केवल अपना स्वार्थ ही नज़र आया, भारतवर्ष के मूलभूत सिद्धांतों का, न ही भारत की अस्मिता की चिंता हुई। यही कारण है कि, आज भी हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप मे प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। कुछ हमारी शिक्षा-नीति तथा रोज़गार चयन नीति में भी दुर्बलता है, जिस कारण भारत की प्रतिभाओं ने विदेशों के लुभावने वेतन के आगे अपने घुटने टेक दिए तथा विदेशी नौकरी के प्रति आकृष्ट होकर विदेश चले गए।

आज की शिक्षा नीति पर पुनर्वलोकन और पुनरावर्धन होना चाहिए, तभी हम एक विशाल एंव सुसंगठित भारत की कल्पना कर सकते हैं।

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