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सही दिशा की ओर ले चलो नारी को

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आत्म शलाघाओं के नशे में चूर भारतीय समाज नारी के विषय में प्राय एक वेदोक्त मंत्र बड़े चाव से जपता नज़र आता है “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।” नारी शक्ति की पूजा करने के खिलाफ नहीं हूँ, परंतु सवाल है कि, क्या हम इस पंक्ति के सही मायने को समझ पाए ? यदि हाँ, तो सवाल यह है कि, इस पंक्ति में कौन से रमण करने वाले देवताओं की बात की गई है ? क्या इंद्र सरीखे उन्हीं देवताओं का ज़िक्र किया गया है, जिन्होंने त्रेता काल की अहल्या माता का चालाकी से उपभोग करके उसे सदा-सदा के लिए सजा भोगने हेतु छोड़ दिया ? क्या यही उनके दैवत्व का लक्षण है ? चापलूसी, छल, प्रपंच, धोखा आदि उपहार ही तो नारी के खाते में अनादिकाल से पड़ते आए हैं। कितनी भयंकर विडंबना है कि, संसार के महा-सौंदर्य और सृष्टि की सृजन शक्ति की महानायिका हमेशा से ठगी-सी गई है, और आज भी समाज उसे निरन्तर ठगता ही चला जा रहा है। इसने छोटे-बड़े सभी घरों में सिवाय ज़लालत के कुछ नहीं पाया है। फिर भी यह बेचारी अपनी तनिक प्रशंसा सुन कर फूली न समाती है। उस चापलूसी भरी प्रशंसा के उन्माद में यह अपने साथ हुए तमाम जुल्मों को भूल कर यूँ महसूस करती है-मानो इसने संसार का सब सुख पा लिया हो। यही इसकी उस कमजोरी का वह पहलू है, जिसके बूते यह ऊपर कही पंक्ति ईजाद की गई हो शायद…। अर्थात नारी सदा से सौंदर्य की प्रतिमूर्ति समझी जाती आई है और समझी जा रही है। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, यह तो स्वयं नारी की अपनी मनःस्थिति और व्यवहार सिद्ध करता है। हम प्राय: स्त्री के हार-श्रृंगार के प्रति रुचि और दूसरों की देखा-देखी में सौंदर्य प्रसाधनों का ज़रूरत से ज्यादा प्रयोग करने की प्रवृत्ति को सदियों से देखते आए हैं। उसका सज-धज कर रहना सिद्ध करता है कि, वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है। उसकी यही वृत्ति कई बार उस बेचारी के गले की फांस भी बन चुकी है। यदि इंद्र जैसे देवताओं के रमण की बात की जा रही है, तो वह देवताओं के विलासी समाज की ओर ही इशारा करती है। तो यह सिद्ध हुआ कि, नारी की पूजा का समर्थन इसलिए भारतीय समाज में किया जाता है, ताकि वह अपनी खुशामद से रीझ कर हमारे उपभोग की वस्तु बनना स्वीकार करती रहे बस।
देवताओं की बात करें तो, स्वयं ब्रह्मा तक ही नारी सौंदर्य से अभिभूत हो कर अपनी ही बेटी संध्या के रूप पर लट्टू हो बैठे। क्या यही नारी की पूजा है ? क्या यही देवताओं का रमण है ? फिर चाहे सीता, अहिल्या, द्रोपदी, पद्मावती जैसी उच्च गृहस्थ नारियों के साथ हुए शोषण की बात हो, या फिर आम घरों की बहन- बेटियों की ज़लालत का मामला हो।
खैर, पौराणिक आख्यानों पर चर्चा नहीं, पर वेदोक्त की उक्त पंक्ति का सहारा ले कर नारी का चापलूसी से शोषण करने और उसे बहकाने वाले समाज की पोल खोलना आवश्यक है। पीछे जो हुआ सो हुआ, उसे हमने भी किताबों में ही पढ़ा है। वह अपनी आँखों से घटते नहीं देखा, इसलिए वह कितना सत्य है और कितना असत्य, इसे ठीक समझ पाना मुश्किल है। अतः उसे छोड़ देना ही उचित समझा जाना चाहिए।
आइए, अब वर्तमान समाज में ही नारी जीवन पर पक्षपात रहित एक नजर डालते हैं। हम देखें तो आज भी नारी के साथ वही कुछ हो रहा है। वही दुष्कर्म, वही चापलूसी और वही शोषण। छोटे से बड़े घरों तक। आप कहेंगे कि कैसे ? तो सिद्ध करते हैं। छोटे घरों में तो हम आए दिन पत्नियों, बेटियों के कत्ल और तलाकों की खबरें सुनते ही रहते हैं, पर यह बीमारी बड़े घरों में भी कम नहीं है। यहाँ मीडिया, फ़िल्म जगत और प्रतिष्ठित समझा जाने वाला उच्च वर्गीय समाज नारी की चापलूसी से बाज नहीं आता। वे उसे उत्तरोत्तर गर्त में धकेल रहे हैं। वह बेचारी अपनी उसी वाह-वाही की कमजोरी के कारण इस भंवर में डूबती जा रही है। ये सभी उसे अपनी-अपनी ज़रूरतों के मुताबिक चंद पैसों के लालच में यूँ प्रयोग करते हैं, जैसे वह कोई वस्तु है, मानव नहीं। यह सब अनादि काल से हो रहा है। हैरानी तो इस बात की है कि, इस नारी ने कभी विरोध क्यों नहीं किया कि, क्यों मैं ही सदा से हर महफ़िल में नचाई जाती आ रही हूँ ? क्यों मुझे ही फ़िल्मों, समाचार पत्रों के विज्ञापनों या फिर सामाजिक सूचना प्रसारण में अर्धनग्न हो कर परोसा जा रहा है ? मैं भी तो किसी की माँ, बहन, बेटी या पत्नी हूँ। जब वे सब मेरी ये तस्वीरें देखते होंगे तो क्या सोचते होंगे ? क्यों न मेरे काम को अब स्वयं मर्द करें ?, ये सवाल खड़ा करना आज नारी समाज की ज़रूरत बन गया है, वरना समाज के ये धुरंधर नारी के जिस्म से सब कुछ उतार कर एक दिन इतना शर्मिंदा करेंगे कि, वह बेचारी ख़ुद की दुर्दशा पर रो भी नहीं पाएगी। तब भी मीडिया वाले यही पंक्ति हमेशा की तरह कहेंगे कि “हमें नज़रिया बदलना चाहिए। बदलाव तो समाज का नियम है और फिर नारी की यह हालत मैंने थोड़े ही न की है। यह तो ख़ुद ही यह सब करने को राजी हुई थी।”
ध्यान दें कि चंद पैसों के लालच में हमें अपना ज़मीर नहीं बेचना चाहिए। जो चंद मातृशक्ति इन व्यवसायों में काम करती भी है, उन्हें भी इस वस्त्र अल्पकरण का सामूहिक विरोध करना चाहिए, क्योंकि सिनेमा, मीडिया और उसके कर्णधार समाज का आईना तथा आदर्श होते हैं। समाज में बहू-बेटियाँ आदि आपकी नक़ल करती हैं और वस्त्र अल्पता के नशे में मदहोश अनजाने में अपना ही अहित कर बैठती है। मीडिया के लोग किसी घटना पर जब बात करते हैं, तो बस नज़रिया बदलने की ही नसीहत देते हैं। अरे भाई नज़रिया जब विश्वामित्र जैसे राजर्षि नहीं बदल पाए, तो आम लोग कैसे बदलेंगे। अगर कोई यह कह दे कि, यदि पुरुष समाज अपने बदन को ढक कर रहता है तो क्या नारी समाज नहीं रह सकता। वे भी तो उसी वातावरण में रहते हैं, तो पुरुष को दबाने में सब लग जाते हैं। अरे बहादुरों, सत्य को तुम्हारे प्रमाण-पत्र की ज़रूरत नहीं है। यदि सच में नारी की इतनी ही चिंता है, तो उसे सही दिशा की ओर ले चलो और शोषण से बचाओ। तो समझ आएगा कि आपने कुछ अच्छा किया है।