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सुप्त देवत्व का पुर्नजागरण अन्तर्चेतना से ही

मुकेश कुमार मोदी
बीकानेर (राजस्थान)
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मनुष्य के वर्तमान चरित्र का गहनतापूर्वक अध्ययन करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि, सृष्टिचक्र के आदिकाल में उसके चरित्र में देवत्व विद्यमान था, जो जन्म-जन्मान्तर पांच विकारों के चंगुल में फंसते-फंसते चारित्रिक गिरावट के कारण आज सुप्त अवस्था में जाकर मूर्छित सा हो गया है।
बर्हिमुखता का संस्कार नैसर्गिक होने के फलस्वरूप औरों के अवगुण देखते-देखते मनुष्य स्वयं ही अवगुणों का भण्डारगृह बन गया है। अन्तर्चेतना में विद्यमान दिव्य गुणों रूपी हीरे, पन्नों, माणक, मोतियों के ऊपर विकारों और अवगुणों रूपी धूल, मिट्टी व कचरे का ढ़ेर आच्छादित होने के कारण इन गुणों की चमक व्यक्ति के आचरण, व्यवहार व चरित्र को देदीप्यमान नहीं कर पा रही है।
आज तो मनुष्य के समक्ष अपने जीवन को सुख-शान्ति से व्यतीत करने की सबसे बड़ी चुनौती है। देवत्व का पुनर्जागरण करना तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।
कहीं-ना-कहीं मानव की अन्तर्चेतना को यह स्पर्श अवश्य करता होगा कि, उसका जीवन ऐसा क्यों है ? वह दुखों, कष्टों, पीड़ाओं और असाध्य रोगों के घेरे में क्यों है ?
जीवन की सभी दुविधाओं, समस्याओं, परेशानियों से मुक्त होकर सुख-शान्ति सम्पन्न जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य सदियों से प्रयासरत भी है। इसी लिए, उसने अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं विकसित की है, मनोरंजन के अनेक साधन अविष्कृत किए हैं, ज्योतिष व हस्तरेखा विज्ञान के माध्यम से भी सुख- शांति की आस लगाए बैठा है, किन्तु उसके सभी प्रयास लगभग विफल ही रहे हैं, या अल्पकालिक रूप से ही सफल हुए हैं।
देखा जाए तो, इन सभी साधनों और विधियों से हम भ्रमित ही होते हैं, क्योंकि इनका सहारा लेकर भी आत्मा की मूल अवस्था, मूल स्वरूप, हमारे नैसर्गिक देवत्व और अलौकिक पहचान से दिन-प्रतिदिन विस्मृत होते जा रहे हैं। वर्तमान में यह विस्मृति सामाजिक प्रचलन का रूप ले चुकी है, क्योंकि भोग विलास के आकर्षण में हर पीढ़ी आत्मा के अस्तित्व को लगभग नकारती आई है।
आज मनुष्य यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि, उसकी ही अन्तर्चेतना में वह देवत्व विद्यमान है जो उसके आत्मिक सुख और शान्ति से भरपूर सामाजिक जीवन का आधार है। यदि यह देवत्व सम्पूर्ण रूप से उसके व्यक्तित्व और चरित्र के माध्यम से प्रस्फुटित हो गया तो वह चैतन्य पूज्य देवता भी बन सकता है। आखिर कैसे उस देवत्व का पुर्नजागरण होगा ? भटकते हुए कदमों को सही दिशा कौन देगा ? बिखरे हुए व्यक्तित्व को कैसे एकीकृत रूप से श्रेष्ठ विचारों के व्यक्तित्व का रूप दिया जाएगा ?
सदियों से बहिर्मुखी दृष्टिकोण होने के कारण अक्सर हम इन प्रश्नों के उत्तर की खोज अथवा जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पूजा स्थलों, तीर्थों, दान-पुण्य, कर्म काण्ड या संसार के भौतिक संसाधनों में करते हैं, किन्तु हम समाधान के द्वार तक पहुंच नहीं पाते। जब हमारा देवत्व हमारी ही अन्तर्चेतना में मूर्छित अवस्था में पड़ा है, तो फिर इसका पुर्नजागरण इन सांसारिक स्थूल उपायों से कैसे सम्भव है ?
इसलिए, इस त्रुटि को सुधारकर खोज की विधि बदलने से समाधान के रूप में सफलता भी निश्चित रूप से प्राप्त होगी। हमें केवल दर्शन की दिशा को अपनी ओर घुमाना है, अर्थात् जो दृष्टि संसार की ओर है, उसे अपने भीतर की ओर मोड़ना होगा।
उदाहरण के लिए घर के भण्डार कक्ष में कभी-कभी हम भूल से कोई मूल्यवान वस्तु रखकर भूल जाते हैं। उसी प्रकार अन्तर्चेतना रूपी भण्डार-कक्ष में फालतू कचरे रूपी व्यर्थ विचारों के नीचे ही हमारा देवत्व चिरनिंद्रा में विद्यमान है, हम तो अज्ञानतावश उसे कहीं और ढूंढ़ रहे हैं। जब अन्तर्मुखी होकर अपनी अन्तर्चेतना के तले में देखेंगे तो हमारा देवत्व सुप्त अवस्था में पड़ा हुआ मिल जाएगा। केवल मन और बुद्धि की एकाग्रता के बल से व्यर्थ के कचरे को हटाकर उस देवत्व के दर्शन स्वयं के भीतर करें और उसे झाड़-फूंककर स्वच्छ करें। उस पर पड़ी हुई विकारों की धूल, मिट्टी और परत को हटाएं। एक बार देवत्व जागृत हो गया तो अध्यात्म का दीपक स्वतः ही प्रज्वलित हो जाएगा, जो जीवन की सभी अंधकारमय विषमताएं विलुप्त कर देगा।
कहा जाता है कि, कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मनचाही उपलब्धियाँ अर्जित हो सकती है, किन्तु धरती पर इस कल्पवृक्ष के वास्तविक अस्तित्व स्थल का किसी को ज्ञान नहीं। सच्चाई यह है कि, मनुष्य स्वयं के विचारों से अपने व्यक्तित्व रूपी कल्पवृक्ष जन्म देकर उसे विकसित करता है। आत्मा या अन्तर्चेतना की भूमि पर जिन विचारों के बीज अंकुरित किए जाएंगे, वैसे ही व्यक्तित्व का ढांचा निर्मित होगा।
हर समस्या के समाधान की बात घूम-फिरकर विचारों की गुणवत्ता पर आकर अटक जाती है। इंसान के लिए विचारों पर नियन्त्रण या उन्हें संशोधित करना चाँद पर जाने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है, लेकिन विधिपूर्वक किया गया कोई भी कार्य कठिन नहीं होता।
आज विश्व में अनेक कार्यों को निष्पादित करने की प्रणालियाँ और विधियाँ लागू है। हर स्थान विशेष के अपने-अपने नियम और विधि-विधान हैं। सड़क पर चलने के नियम भी हैं, तो वाहन चलाने के नियम भी हैं। सरकारी कार्यालयों के नियम हैं, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका आदि व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने के नियम और विधान हैं। इसी प्रकार चिन्तन और विचार करने के भी कुछ नियम और विधान है, किन्तु इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। विधेयात्मक और सृजनात्मक चिन्तन ही आत्मशुद्धि करते हुए मनोबल बढ़ाता है जो कर्म व्यवहार के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है। इससे श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण होता है। एक क्षुद्र भी सतत शुद्ध चिन्तन द्वारा श्रेष्ठ व्यक्तित्व की सम्पदा से भरपूर हो सकता है।
इसलिए, अन्तर्मुखी होकर पंच तत्वों के विनाशी शरीर से पृथक अपने आत्म स्वरूप और उसके सप्त गुणों अर्थात् ज्ञान, शांति पवित्रता, प्रेम, सुख, आनन्द और शक्ति पर ध्यान केन्द्रित करें। अपने हर कर्म व्यवहार में आत्मा के इन्हीं गुणों को आधार बनाएं। तब आपकी आत्मसत्ता से दिव्य और पवित्र विचारों की गंगोत्री निकलेगी, जिससे शुद्ध संकल्पों के बीज अंकुरित होंगे, जिससे भीतर सुप्त पड़े देवत्व का पुनर्जागरण होगा।

परिचय – मुकेश कुमार मोदी का स्थाई निवास बीकानेर में है। १६ दिसम्बर १९७३ को संगरिया (राजस्थान)में जन्मे मुकेश मोदी को हिंदी व अंग्रेजी भाषा क़ा ज्ञान है। कला के राज्य राजस्थान के वासी श्री मोदी की पूर्ण शिक्षा स्नातक(वाणिज्य) है। आप सत्र न्यायालय में प्रस्तुतकार के पद पर कार्यरत होकर कविता लेखन से अपनी भावना अभिव्यक्त करते हैं। इनकी विशेष उपलब्धि-शब्दांचल राजस्थान की आभासी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक प्राप्त करना है। वेबसाइट पर १०० से अधिक कविताएं प्रदर्शित होने पर सम्मान भी मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज में नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना है। ब्रह्मकुमारीज से प्राप्त आध्यात्मिक शिक्षा आपकी प्रेरणा है, जबकि विशेषज्ञता-हिन्दी टंकण करना है। आपका जीवन लक्ष्य-समाज में आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की जागृति लाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-‘हिन्दी एक अतुलनीय, सुमधुर, भावपूर्ण, आध्यात्मिक, सरल और सभ्य भाषा है।’


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