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हिंदी:डीएमके सांसद वायको की संकीर्ण मानसिकता

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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आसमान की तरफ थूकने से थूक खुद के मुँह पर आता है। सूर्य को कितना भी कोसो,उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। हिंदी राजभाषा है,पर कुछ विघ्नसंतोषियों के कारण वह राष्ट्रभाषा नहीं बन पा रही है। इससे हिंदी की कोई प्रतिष्ठा नहीं गिरी,और न गिरेगी। आज भी दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों को देखने की ललक रहती है,इसका मतलब वहां के निवासी हिंदी जानते, समझते और आनंद उठाते हैं। आज भी जब भी कोई साक्षात्कार होता है तो प्रश्न कर्ता हिंदी में प्रश्न करता है,और उसका जबाव वो अंग्रेजी या मातृभाषा में देते हैं,इसका मतलब वे हिंदी जानते हैं।
हर भाषा बहुत समृद्ध और धनी है, उनका साहित्य अद्वितीय है और सभी भाषाओं ने देश की उन्नति में भरपूर योगदान दिया है। इसी के आधार पर सब लोग हिंदी और अन्य भाषाओं को अपने उदाहरण में उल्लेखित करते हैं। हिंदी संस्कृत भाषा बहुत विशाल हृदय रखती है,और हिंदीभाषी भी सब भाषाओं को स्वीकार करते हैं। हिंदी भाषी दकियानूसी विचारों को भी स्थान नहीं देते हैं। आज भी हिंदी सशक्त भाषा है,इसको मानने वाले बहुसंख्यक हैं,और यह सामान्यजन की भाषा है,जो सबको समझ में आती है।
तमिलनाडु के निवासी भी हिंदी जानते समझते हैं,पर जान-बूझकर नहीं बोलते उसका कारण हिंदीभाषी लोग जब दक्षिण में जाते हैं,तब उनको मूर्ख, धोखा और लूटने का काम बहुत सुगमता और सरलता से करते हैं,और उससे उनका मकसद पूरा होता है, जबकि उनका व्यापार में अधिकतम योगदान हिंदी बहुल क्षेत्रों का होता है, पर संकीर्ण मानसिकता के कारण हिंदी को पचा नहीं पा रहे हैं। दक्षिण भारतीय सांसद अपनी भाषा में बात करें,किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। अंग्रेजी भाषा गुलामी की प्रतीक है,और वह गुलाम मानसिकता का घोतक है।
तमिलनाडु विशेषकर हिंदी विरोधी शुरू से रहा है। उसकी अड़ंगेबाजी के कारण हिंदी राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा प्राप्त नहीं कर पा रही है,और उससे देश की पहचान नहीं हो पा रही है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि, दक्षिण भारत विरोध कर रहा इस कारण दक्षिण भारतीय मुख्य धारा से दूर हो रहे हैं,जबकि केरल,तमिलनाडु, कर्णाटक,आंध्र प्रदेश,तेलंगाना,ओडिसा के लोग उत्तर भारत में आकर यहाँ की भाषा बोलते-सीखते और लिखते हैं,क्या वायको उनको रोकेंगे ? खुद वायको हिंदी जानते हैं,इसीलिए तो विरोध करते हैं,ना जानते होते तो कैसे विरोध करते ? यह सब बहाना है विदेशों में क्या करते हैं होंगे ? वहां की भाषा बोलना जरूरी होता है।
देश में स्वच्छंदता होने से सब विरोध कर रहे हैं,अन्यथा जापान चीन में वहां की भाषा राष्ट्रभाषा है,वहां कोई विरोध नहीं करता,पर भारत में हर बात का विरोध चाहे अच्छा हो या बुरा।वायको हो या करूणानिधि,या ललिता सबने हिंदी क्षेत्र में नाम कमाया,पर विरोध हिंदी का करना,यह दोगलापन दिखाता है,दोहरा चरित्र है,और कुछ नहीं।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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