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हिंदी के प्रचार की संस्थाओं की दशा-दिशा

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान और उसके पश्चात अनेक राष्ट्रीय नेताओं और देशप्रेमियों ने राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संवाद की दृष्टि से हिंदी भाषा के लिए अनेक संस्थाएँ खड़ी की थीं, हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष किया था, जिसके लिए अनेक लोगों ने अपनी जमीनें दान दीं और धन भी दिया। अनेक व्यापारियों व उद्योगपतियों ने भी इसमें तन, मन, धन से सहयोग दिया था। महात्मा गांधी, विनोबा भावे, स्वामी दयानंद, आर्य समाज के अनेक नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों एवं धर्मगुरुओं, संघ या उसे विचारधारा से जुड़े अनेक महानुभावों व लाखों
देशप्रेमियों ने इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।इन संस्थाओं का मूल उद्देश्य हिंदी भाषा के प्रयोग व प्रसार को बढ़ाना था, ताकि हिंदी राष्ट्रीय संपर्क की भाषा बन सके, लेकिन आज इन ज्यादातर संस्थाओं की स्थिति क्या है ?
आज उनके पास बड़े-बड़े भवन हैं, जमीनें हैं, उनसे प्राप्त भारी आमदनी है। अनेक संस्थाओं को सरकारी सहायता भी प्राप्त है, लेकिन अगर उनकी स्थिति और कार्य प्रणाली देखी जाए तो प्राय: न वह भावना है, न ही कोई ऐसा कार्य, जिसे हिंदी का प्रयोग व प्रसार बढ़ सके।
देश-प्रेम की भावना से अनेक लोगों ने जो भूमि इन्हें दान दी थी, कई जगह, कुछ लोग उसकी लूट-खसोट में लगे हैं। कई संस्थाएँ राजनीति की तरह परिवार आधारित या वंशानुगत हो गई हैं। हिंदी के नाम पर कुछ औपचारिक कार्यक्रम कर लिए जाते हैं। हिंदी का प्रयोग व प्रसार बढ़ने का कोई संघर्ष या प्रयास दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। सबकी निगाहें कमाई पर लगी हैं। यहाँ भी राजनीति से जुड़े लोगों का प्रभुत्व है। प्राय: कुछ गतिविधियाँ हैं भी तो समाज से उसका कोई सरोकार नहीं। यदा-कदा कुछ साहित्यकारों के नाम पर कहानी-कविता वगैरह हो जाती है। पिछले ७५ वर्षों में पूरा देश अपनी भाषाओं से विमुख होकर अंग्रेजी की तरफ जाता रहा और ये बंद कमरों में कहानी, कविता करते रहे। उसके नाम पर कुछ पत्रिकाएं वगैरह निकालते रहे, अपने चहेतों को पुरस्कार – सम्मान बांटते रहे। धीरे-धीरे ये संस्थाएँ भाषायी संघर्ष से बहुत दूर चली गईं। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ऐसी ज्यादातर संस्थाएँ जिनके पास अपार धन और संसाधन हैं, अब भाषायी संघर्ष से बहुत दूर हैं। जहाँ संसाधनयुक्त संस्थाएँ निष्क्रिय मठों का रूप ले चुकी हैं, वहीं कहीं-कहीं कुछ इक्का-दुक्का लोग जो भाषायी संघर्ष में लगे हैं, वे बिना साधन-सुविधा और समर्थन के प्रयासरत तो हैं, लेकिन अभावों के कारण विवश हैं।
विभिन्न राज्यों में स्थापित हिंदी साहित्य अकादमियाँ, जो सरकार के पैसे से चलती हैं, अक्सर वे मानते हैं कि वे तो साहित्य के लिए हैं, भाषा के प्रचार-प्रसार से उनका क्या लेना-देना ? वहाँ भी प्राय: राजनीति की बैसाखी लिए साहित्य के कथित पुरोधा और विश्वविद्यालयों के शिक्षक आदि कहानी, कविता , आलोचना, समीक्षा आदि और पुरस्कारों की बंदरबांट करते रहते हैं। भाषायी संघर्ष और उसके प्रयासों से उसका कोई सरोकार नहीं। यदि रोजगार, व्यापार-व्यवहार,
शासन-प्रशासन व न्याय आदि में भाषा नहीं होगी तो कोई पढ़ेगा क्यों ?, यदि विद्यार्थी कोई भाषा पढ़ेंगे नहीं तो उस भाषा का साहित्य क्यों और कैसे पढ़ेंगे ? आज वही स्थिति है, लेकिन इन तमाम संस्थाओं को अभी भी यह नहीं दिख रहा कि, ४० साल के नीचे के कितने लोग साहित्य से जुड़े हैं ? साहित्य को बचाना-बढ़ाना है तो भारतीय भाषाओं को सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करने से ही बात बनेगी। साहित्य का अर्थ
केवल ललित साहित्य नहीं, ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के साहित्य पर भी किसी का ध्यान नहीं।
बड़ी संख्या में लोग तो देश के बजाए विदेशों में हिंदी बचाने-बढ़ाने के महाअभियान में लगे हैं। यह ठीक वैसी ही बात है कि, जब जड़ें सूख रही हों और जो टहनियाँ कभी थोड़ी-बहुत पड़ोसियों के घर पहुंच गई थीं, उनके पत्तों पर पानी की कुछ बूँदें डालकर हम वृक्ष को मजबूत करने और उसका विस्तार करने का प्रयास करें। महाकवि कालीदास का स्मरण होने लगता है। शायद उनके लक्ष्य ही कुछ भिन्न हैं। एक समस्या यह भी है कि, भाषा के क्षेत्र में विशेषकर हिंदी के मामले में कार्य से बहुत ज्यादा जोर केवल कार्यक्रमों पर है। किसी कार्यक्रम से भाषा के प्रसार को कितना या क्या लाभ मिला, इसका विचार भी कोई नहीं करता। ऐसे अनेक बिंदु हैं, जिन पर विचार की आवश्यकता है। इसके लिए भी कितने लोग तैयार हैं ?
मुझे लगता है कि संघ, सरकार अथवा राज्य सरकारों द्वारा जो ऐसी ऐतिहासिक अथवा सरकारी सहायता- अनुदान प्राप्त संस्थाएँ, जिस किसी के भी नियंत्रण या कार्यक्षेत्र में हों, उन्हें इनकी दशा-दिशा पर ध्यान देते हुए इनकी संपत्ति की लूट रोकने, इन्हें हिंदी के प्रयोग व प्रसार बढ़ाने की दिशा में सक्रिय करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इसी प्रकार हिंदी व अन्य भाषाओं की अकादमियों को भाषा की अकादमी का रूप देते हुए भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए सक्रिय किया जाना चाहिए। हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को बढ़ाने में इन तमाम संस्थाओं के योगदान व उपलब्धियों की समीक्षा भी की जानी चाहिए।
भारतीय भाषा-प्रेमियों की अपेक्षा है कि, भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, शिक्षा मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्रि गण तथा संबंधित मंत्रियों व वरिष्ठ अधिकारीगण इस पर ध्यान दें और आवश्यक कदम उठाएँ।