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हिंसामुक्त नारी समाज का सपना अधूरा ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस (२५ नवम्बर) विशेष…

पूरे विश्व में महिलाओं के प्रति हिंसा, शोषण एवं उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के उन्मूलन हेतु संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिवर्ष २५ नवम्बर को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस’ मनाया जाता है। भारत ही नहीं, दुुनियाभर की महिलाओं पर बढ़ती हिंसा, शोषण, असुरक्षा एवं उत्पीड़न की घटनाएं एक गंभीर समस्या है। संघ द्वारा महिलाओं पर की जा रही इस तरह हिंसा के उन्मूलन के लिए और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
यह दिवस उन मिराबैल बहनों का भी सम्मान करता है, जिनकी वर्ष १९६० में इसी दिन राजनीतिक कार्यकर्ता डोमिनिकन शासक राफेल ट्रुजिलो के आदेश पर ( पैट्रिया मर्सिडीज मिराबैल, मारिया अर्जेंटीना मिनेर्वा मिराबैल व एंटोनिया मारिया टेरेसा मिराबैल) क्रूरता से हत्या कर दी गई थी। इन बहनों ने ट्रुजिलो की तानाशाही का कड़ा विरोध किया था। महिला अधिकारों के समर्थक व कार्यकर्ता वर्ष १९८१ से इस दिन को इन बहनों की मृत्यु की स्मृति के रूप में मनाते हैं।
देश एवं दुनिया में विकास के साथ महिलाओं के प्रति हिंसक सोच थमने की बजाय नए-नए रूपों में सामने आती रही है। इसी हिंसक सामाजिक सोच एवं विचारधारा पर काबू पाने के लिए यह महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है, जो दायित्व-बोध की चेतना का संदेश देता है, महिलाओं के प्रति सभ्य एवं शालीन सोच विकसित करने का आह्वान करता है। यह दिवस उन चौराहों पर पहरा देता है, जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव एवं नारी-हिंसा की संभावनाएं हैं। यह उन आकांक्षाओं को थामता है, जिनकी हिंसक गति तो बहुत तेज होती है, पर जो बिना उद्देश्य समाज की बेतहाशा दौड़ को दर्शाती है। यह दिन नारी को शक्तिशाली, प्रगतिशील और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है।
हर घंटे में ५ से अधिक महिलाओं या लड़कियों की उनके ही परिवार में किसी न किसी द्वारा हत्या कर दी जाती है। लगभग ३ में से १ महिला को अपने जीवन में कम से कम १ बार शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है। ८६ प्रतिशत महिलाएँ और लड़कियाँ लिंग आधारित हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा के बिना देशों में रहती हैं। महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा दुनिया में सबसे प्रचलित और व्यापक मानवाधिकार उल्लंघनों में से एक है। यह संकट कार्यस्थल और आभासी स्थानों सहित विभिन्न व्यवस्थाओं में तीव्र हो गया है, और महामारी के बाद के प्रभावों, संघर्षों और जलवायु परिवर्तन के कारण और भी गंभीर हो गया है। अनुमान है कि दुनियाभर में ३५ प्रतिशत महिलाओं ने शारीरिक और यौन हिंसा का अनुभव किसी असहयोगी द्वारा अपने जीवन में किया है। हालांकि, कुछ राष्ट्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि, ७० प्रतिशत महिलाओं ने अपने जीवनकाल में एक अंतरंग साथी से शारीरिक और यौन हिंसा का अनुभव किया है। दुनियाभर में पाए गए सभी मानव तस्करी के पीड़ितों में से ५१ प्रतिशत वयस्क महिलाओं का खाता है। यूरोपीय संघ की रिपोर्ट में १० महिलाओं में से एक ने १५ साल की उम्र से साइबर-उत्पीड़न का अनुभव किया है। १८ से २९ वर्ष की आयु के बीच युवा महिलाओं में जोखिम सबसे अधिक है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक वैश्विक महामारी है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े भी महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में वृद्धि को स्पष्ट करते हैं। इनमें बलात्कार, घरेलू हिंसा, मारपीट, दहेज प्रताड़ना, एसिड हमला, अपहरण और कार्यस्थल पर उत्पीड़न आदि शामिल हैं।आँकड़ों के अनुसार २०१७ में भारत में कुल ३२,५५९ बलात्कार हुए, जिसमें ९३.१ प्रतिशत आरोपी करीबी ही थे। २०१७ की रिपोर्ट के हिसाब से देश में सबसे ज्यादा ५५६२ मामले मध्यप्रदेश में दर्ज हुए। इस सूची में ३३०५ दुष्कर्म मामलों के साथ राजस्थान दूसरे क्रम पर रहा। राजस्थान में तो कन्या-शिशुओं को जन्म लेते ही मार देने की भयावह मानसिकता रही है। कुछ चिंतन और मनन करने से हमें पता चलता है कि, यौन उत्पीड़न, फब्तियाँ कसने, छेड़खानी, वैश्यावृत्ति, गर्भाधारण के लिए विवश करना, महिलाओं-लड़कियों को खरीदना-बेचना, युद्ध से उत्पन्न हिंसक व्यवहार और जेलों में भीषण यातनाओं का क्रम अभी भी महिलाओं के विरुद्ध जारी है। इसमें कमी के बजाय वृद्धि हो रही है।
आज हिंसा एवं उत्पीड़न से ग्रस्त समाज की महिलाओं पर विमर्श जरूरी है। विकसित एवं विकासशील देशों में महिलाओं पर भेदभाव एवं उत्पीड़न का साया छाया रहता है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप इंटरनेशनल ने ‘दुनिया के अल्पसंख्यकों और मूल लोगों की दशा’ नामक अपनी सालाना रिपोर्ट में बताया है कि, कैसे दुनियाभर में अल्पसंख्यक और मूल समुदाय की महिलाएं हिंसा का शिकार ज्यादा होती हैं, चाहे वह संघर्ष का दौर हो या शांति का दौर। यह स्थिति भारत के सन्दर्भ में भी भयावह है। भले ही भारत सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान में महिला सशक्तिकरण के लिए सराहनीय कार्य कर रही है, बावजूद इसके आधुनिक युग में हजारों अल्पसंख्यक ही नहीं, आम महिलाएँ अपने अधिकारों से कोसों दूर हैं। सरकार ने महिलाओं के उत्थान के लिए भले ही सैकड़ों योजनाएं तैयार की हों, परंतु महिला वर्ग में शिक्षा व जागरूकता की कमी आज भी खल रही है। अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों से बेखबर महिलाओं की दुनिया को चूल्हे-चौके तक ही सीमित रखा है। भारत में आदिवासी समुदाय की महिलाएँ अपने अधिकारों से बेखबर हैं और उनका जीवन आज भी एक त्रासदी की तरह है।
नारी को छोटा व दोयम दर्जा का समझने की मानसिकता भारतीय समाज की रग-रग में समा चुकी है। असल प्रश्न इसी मानसिकता को बदलने का है। इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्म होने लगी है। वे चाहे ‘मी-टू’ जैसे आन्दोलनों से हो या निर्भया कांड के बाद बने कानूनों से। इसलिए ऐसे अपराध पूरे न सही, लेकिन फिर भी काफी सामने आने लगे हैं। अन्यायी तब तक अन्याय करता है, जब तक कि उसे सहा जाए। महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिए न्याय प्रणाली और मानसिकता में मौलिक बदलाव की भी जरूरत है। देश में लोगों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है और इसका पालन पूरी गंभीरता और इच्छाशक्ति से नहीं होता है। महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं। उन्हें इस बात को समझना होगा कि, दुर्घटना व्यक्ति और वक्त का चुनाव नहीं करती है और यह सब-कुछ होने में उनका कोई दोष नहीं है।
पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं, बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। विश्व महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के प्रति जन-जागरूकता फैलाने का अवसर होता है। दुनिया को महिलाओं की मानवीय प्रतिष्ठा के वास्तविक सम्मान के लिए भूमिका प्रशस्त करना चाहिए, ताकि वास्तविक अधिकारों को दिलाने का काम व्यावहारिक हो सके, जिससे इस सृष्टि में बलात्कार, नारी उत्पीड़न, नारी-हिंसा जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।