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हिन्दी:राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा की उपेक्षा क्यों ?

ललित गर्ग

दिल्ली
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‘विश्व हिन्दी दिवस’ विशेष….

‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का उद्देश्य दुनियाभर में फैले हिंदी जानकारों को एकजुट करना, हिन्दी को विश्व स्तर पर स्थापित एवं प्रोत्साहित करना और हिंदी की आवश्यकता से अवगत कराना है। अंग्रेजी भाषा भले ही दुनियाभर के कई देशों में बोली और लिखी जाती है, लेकिन हिंदी हृदय की भाषा है। विश्व योग दिवस, विश्व अहिंसा दिवस आदि भारतीय अस्मिता एवं अस्तित्व से जुड़े विश्व दिवसों की श्रंखला में यह दिवस प्रति वर्ष मनाया जाता है, ताकि विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूकता पैदा हो तथा अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता मिले। आज हिन्दी विश्व की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा है, विश्व में हिन्दी की प्रतिष्ठा एवं प्रयोग दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन देश में उसकी उपेक्षा एक बड़ा प्रश्न है। सच्चाई तो यह है कि, देश में हिंदी अपने उचित सम्मान को लेकर जूझ रही है। राजनीति की दूषित एवं संकीर्ण सोच का परिणाम है कि, हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान आजादी के अमृत महोत्सव मना चुके राष्ट्र में अंग्रेजी को मिल रहा है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं की सहायता जरूर ली जाए, लेकिन तकनीकी, कानून की पढ़ाई एवं राजकाज की भाषा के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को प्रतिबंधित या नियंत्रित किया जाना चाहिए। आज भी भारतीय न्यायालयों में अंग्रेजी में ही काम-काज होना राष्ट्रीयता को कमजोर कर रहा है। हिन्दी के बहुआयामी एवं बहुतायत उपयोग में ही राष्ट्रीयता की मजबूती है, जीवन है, प्रगति है और शक्ति है, किन्तु इसकी उपेक्षा में विनाश है, अगति है और स्खलन है।
हिंदी इस समय विश्व में तेजी से उभरती हुई भाषा है। दुनियाभर में ७० करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी भाषा बोलते हैं। यही वजह है कि, अंग्रेजी और मंदारिन (चीनी भाषा) के बाद हिंदी दुनियाभर में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है।
एथनोलॉग के वर्ल्ड लैंग्वेज डेटाबेस के २२वें संस्करण में बताया गया है कि, दुनियाभर की २० सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में ६ भारतीय हैं, इनमें हिंदी विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है। हिंदी भारत की राजभाषा है। सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व को समेट हिंदी अब विश्व में लगातार अपना फैलाव कर रही है, राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने के नाम पर भारत में उदासीनता एवं उपेक्षा की स्थितियाँ परेशान करने वाली है, विडम्बनापूर्ण है। विश्वस्तर पर प्रतिष्ठा पा रही हिंदी को देश में दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी त्वरा से राजनीतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी है। यही कारण है कि आज भी देश में हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए।
हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रयत्नों को राष्ट्र सदा स्मरणीय रखेगा,श्री क्योंकि मोदी ने सितम्बर २०१४ में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर न केवल हिन्दी को गौरवान्वित किया, बल्कि देश के हर नागरिक का सीना चौड़ा किया। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों ? दुनिया में हिन्दी का वर्चस्व बढ़ रहा है, लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होना विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों को ही दर्शाता है। स्वभाषा हिन्दी, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे उसी प्रकार लड़ना होगा। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है।
विशेषतः अदालतों में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहना एक बड़ा प्रश्न है। देश की सभी निचली अदालतों में संपूर्ण कामकाज हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में होता है, किंतु उच्च और उच्चतम न्यायालय में यही काम केवल अंग्रेजी में होता है। यहाँ तक कि जो न्यायाधीश हिंदी व अन्य भारतीय भाषाएं जानते हैं, वे भी अपीलीय मामलों की सुनवाई में दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद कराते हैं। आमजन के लिए न्याय की भाषा कौन-सी हो, इसका सबक भारत और भारतीय न्यायालयों को अबू धाबी से लेने की जरूरत है। संयुक्त अरब अमारात याने दुबई और अबूधाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। वहाँ के जनजीवन में हिन्दी का सर्वाधिक प्रचलन है। दुनिया में जितने भी देश महाशक्ति के दर्जे में आते हैं, उनकी शासकीय कार्य एवं अदालतों में मातृभाषा चलती है। यूरोपीय देशों में जैसे-जैसे शिक्षा व सम्पन्नता बढ़ी, वैसे-वैसे राष्ट्रीय स्वाभिमान प्रखर होता चला गया। रूस, चीन, जापान, वियतनाम और क्यूबा में भी मातृभाषाओं का प्रयोग होता है, लेकिन भारत, भारतीय अदालतें एवं सरकारी महकमें कोई सबक या प्रेरणा लिए बिना अंग्रेजी को स्वतंत्रता के ७७ साल बाद भी ढोती चली आ रही हैं।

हालांकि अंतरजाल के बढ़ते इस्तेमाल ने हिंदी भाषा के भविष्य के संबंध में भी नई राहें दिखाई है। गूगल के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा में जहाँ विषयवस्तु निर्माण की रफ्तार १९ फीसदी है, तो हिंदी के लिए यह आँकड़ा ९४ फीसदी है। इसलिए हिंदी को नई सूचना-प्रौद्योगिकी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो ये इस भाषा के विकास में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के स्तर पर तो प्रयास किए ही जाने चाहिए, निजी स्तर पर भी लोगों को इसे खूब प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हिंदी भाषियों को भी गैर हिंदी भाषियों को खुले दिल से स्वीकार करना होगा। उनकी भाषा-संस्कृति को समझना होगा, तभी वो हिंदी को खुले मन से स्वीकार करने को तैयार होंगे। बात चाहे राष्ट्र भाषा की हो या राष्ट्र गान या राष्ट्र गीत-इन सबको भी समूचे राष्ट्र में सम्मान एवं स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सरकार को चाहिए कि वह ऐसे आदेश जारी करें, जिससे सरकार के सारे अंदरुनी काम-काज भी हिन्दी में होनेे लगे और अंग्रेजी से मुक्ति की दिशा सुनिश्चित हो जाए। अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करने की दिशा में नया भारत-सशक्त भारत बनाने की अनुकरणीय एवं सराहनीय पहल होगी। ऐसा होने से महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर और डॉ. राममनोहर लोहिया का सपना साकार हो सकेगा, तभी हिन्दी अपना सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर सकेगी।