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२०५० तक भारत में कोई अपनी भाषा नहीं बोलेगा-राहुल देव

मुम्बई (महाराष्ट्र)।

हजारों वर्षों से भारतीयता का निर्माण किया गया है। जिन भाषाओं के माध्यम से उस वाङ्मय का निर्माण किया गया है, उन भाषाओं के अस्तित्व पर ही संकट है। बात तो इन भाषाओं को आगे बढ़ाने की थी, लेकिन हालत यह है कि अब बचाने की स्थिति आ गई है। सच तो यह है कि, जो डरते हैं, वही बचते हैं। जरूरत इस बात की है कि खतरों को पहचानें और निडरता से उनका सामना करें। यही स्थिति १९-२० के अंतर से सभी भारतीय भाषाओं के साथ है। सबसे खराब हालत तो हिंदी की है। २०५० के आसपास अन्य भाषाओं की भी ऐसी ही स्थिति होनी है। आज जब हमारी आँखों के सामने ऐसे हालात हैं, तो २०५० के भारत में कोई अपनी भाषा नहीं बोलेगा, भले ही भारत महाशक्ति हो चुका हो।
१५ अप्रैल २०१७ को गोरेगांव (मुंबई) में दीनदयाल समाज सेवा केंद्र द्वारा व्याख्यानमाला के आयोजन में प्रथम पुष्प के अंतर्गत वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक राहुल देव (गुरूग्राम) ने खुले मैदान में उपस्थित भारी भीड़ के बीच ‘भारतीय भाषाओं से भारत की प्रगति’ विषय पर यह झकझोरने वाला व्याख्यान दिया था। इस कार्यक्रम के लिए उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक विशेष रूप से मुंबई आए थे। इस अवसर पर मुंबई के कई भारतीय भाषा समर्थक भी वहाँ पहुंचे थे। इस अवसर पर ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ सहित कई भारतीय भाषा-प्रेमियों ने देश-प्रदेश की भाषा के संबंध में चर्चा की। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक राहुल देव ने कहा कि भारत की करीब ३०० भाषाएं हैं। दुनिया में ६ हज़ार में से ३ हज़ार के लुप्त होने की आशंका है। भारत की भी १० या २० भाषाएं ही बचेंगी। उन्होंने देश को सजग करते हुए कहा कि हमारी भाषाओं का विषय हमारे सामने खड़ा है। आप पाएँगे कि हमारे और हमारे बच्चों के जीवन में से एक-एक कर शब्द निकल रहा है। एक बहुत बड़ा भ्रम यह है कि, भाषा केवल संवाद का माध्यम होती है। जैसे माँ के शरीर से हमारा शरीर है, वैसे ही हमारा अंतः शरीर भाषा के परिवेश में गढ़ा जाता है। हमारी भाषा हमारे ‘स्व’ की मर्मस्थल होती है। भाषा बदलती है तो हमारी समग्र चेतना बदल जाती है। स्वाद, दृष्टि, जीवन दृष्टि, सृष्टि को देखने, सुख-दुख, सपने महत्वाकांक्षाएं, जीवन-शैली, जीवन-पद्धति, संस्कार सब कुछ बदल जाता है |

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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