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कांग्रेस के ‘राजनीतिक कोरोना’ का टीका संभव ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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कोविड-१९ विषाणु का टीका(वैक्सीन)तो देर-सबेर बन ही जाएगा,लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के आंतरिक कोरोना विषाणु का कोई टीका शायद ही बन पाए। और बन भी गया तो कारगर शायद ही हो पाए। यह बात इसलिए उठी कि,कल तक कांग्रेस और राहुल को कोसने वाली शिवसेना ने कांग्रेस में ताजा आतंरिक बगावत के बाद गांधी परिवार का तगड़ा बचाव किया है। उसने गांधी परिवार के एकाधिकार पर सवाल उठाने वाले बागी कांग्रेसियों को ‘राजनीतिक कोरोना’ बताया है। वास्तव में यह गजब नजारा है,क्योंकि देश में लोकतां‍त्रिक मू्ल्यों की रक्षा का झंडा उठाने वाली कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की आवाज बुलंद करने वाले ही ‘पार्टी द्रोही’ और ‘भाजपा के एजेंट’ करार दिए जा रहे हैं। शाब्दिक निंदा के बाद अब ‘पत्र साजिश’ में शामिल नेताओं का सड़कों पर विरोध भी शुरू हो गया है। इससे परेशान वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल को कहना पड़ा कि,करना ही है तो अपनों के बजाए भाजपा पर ‘‍सर्जिकल स्ट्राइक’ करें। यूँ एआईसीसी बैठक के एक दिन पहले फूटे पत्र बम के बाद नुकसान नियंत्रण,लेकिन पूर्णकालिक नेतृत्व की मांग के बहाने पार्टी नेतृत्व में बदलाव और सामूहिक नेतृत्व की मांग करने वालों को उनकी जगह दिखाने का काम भी शुरू हो गया है।

इस पूरे प्रकरण में सबसे हैरान करने वाली प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ सत्ता साझा करने वाली शिवसेना की है। शिवसेना ने अपने मुख पत्र ‘सामना’ में गांधी परिवार का कांग्रेसियों से भी एक कदम आगे जाकर यह कह कर बचाव किया है कि,जब राहुल गांधी पर भाजपा हमला कर रही थी,तब ये २३ लोग कहां थे ? क्यों नहीं उन्होंने पार्टी को सक्रिय रखने की चुनौती स्वीकार की ? पार्टी के मुताबिक कि जब भीतर के लोग ही राहुल के नेतृत्व को खत्म करने के ‘राष्ट्रीय षड्यंत्र’ में लिप्त हों तो पार्टी का ‘पानीपत’ होना तय है। ‘सामना’ के अनुसार यह ‘नया राजनीतिक कोरोना’ विषाणु है।

कांग्रेस में यह पत्र बम क्यों,कैसे और कब फूटा,इसकी अंर्तकथाएं मीडिया में आने लगी हैं। उसके मुताबिक पार्टी में बगावत का आगाज मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा कांग्रेस छोड़कर भाजपा का भगवा दामन थामने के साथ ही हो गया था। श्री सिंधिया ने राज्य में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिरा दिया,जिसने कई आला कांग्रेस नेताओं को विचलित कर ‍दिया। सोनिया गांधी को जो चिट्ठी लिखी गई,उसे तैयार करने में ५ महीने लगे। इसको लेकर छोटे-छोटे समूहों में बैठकों का सिलसिला चला,ताकि किसी को शक न हो। ये बैठकें मुख्य रूप से गुलाम नबी आजाद,कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा के घरों पर हुई। बताया जाता है कि,सोनिया के प्रति वफादार रहे पुराने नेताओं को लगने लगा था कि राहुल ब्रिगेड उनके प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त है, और उन सबको ‘यमुना ‍में फिंकवा देना चाहती है। ‘कहते हैं कि इन ‘असंतुष्ट नेताओं’ ने सोनिया गांधी से ‍मिलने का समय भी मांगा,लेकिन वह भी नहीं मिला, तब फिर चिट्ठी लिखने का निर्णय हुआ। जब असंतुष्टों की संख्‍या करीब २० हो गई तो बतौर अं‍तरिम अध्‍यक्ष सोनिया गांधी का एक साल का कार्यकाल पूरा होने पर पत्र बम फोड़ने का फैसला हुआ। हालांकि,सोनिया गांधी के बीमार होने से इसमें भी कुछ देरी हुई। इसीलिए,एआईसीसी की बैठक में राहुल गांधी ने चिट्ठी के समय को लेकर नाराजी जताई थी। बैठक के ठीक एक दिन पहले चिट्ठी बाहर कर दी गई,लेकिन राजनीतिक दलों और खासकर कांग्रेस जैसी परिवार संचालित दल में ऐसे बम ‘बूमरेंग’ साबित होते हैं,वही हुआ भी। दल को जिंदा और सक्रिय रखने के लिए पूर्णकालिक नेतृत्व की मांग को ‘पार्टी द्रोह’ और ‘परिवार द्रोह’ के रूप में लिया गया। परोक्ष रूप से पार्टी को गांधीतर नेतृत्वता देने की फाइल इस प्रति-हमले के साथ ही ख़त्म हो गई कि,ऐसी मांग उठाने वाले ‘भाजपा के साथ मिले’ हुए हैं। अर्थात जो मुद्दा उठाया गया,वह ‘कांग्रेसजन की बात’ न होकर भाजपा के ‘मन की बात’ है। लिहाजा,इस डायनामाइट से बदलाव की झीर फूटने के बजाए अलगाव का नाला जरूर बह निकला। दलों के बहुतांश नेताओं ने जता दिया कि उनकी और दल की परिवारवाद के लौह पिंजरे से निकलने की कोई ख्व‍ाहिश नहीं है। उल्टे जितिन प्रसाद जैसे जिन लोगों ने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किए,उनके खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। पत्र बम पर दस्तखत करने वाले उप्र के इस ब्राह्मण नेता के खिलाफ नाराज कांग्रेसियों ने प्रदर्शन किया। यही नहीं,स्थानीय कांग्रेस कमेटी ने पांचसूत्री प्रस्ताव पारित किया, जिसमें जितिन प्रसाद के खिलाफ कार्रवाई की मांग भी शामिल है। एक और ‘पत्र-बमी’ नेता गुलाम नबी आजाद ने अपना वो बयान कि यदि उन पर भाजपा से साठ-गाँठ का आरोप सिद्ध हो जाए तो वे इस्तीफा दे देंगें,अभी वापस नहीं लिया है। ध्यान रहे कि,चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में कांग्रेस के ३ वरिष्ठ नेता-पृथ्वीराज चह्वाण,मुकुल वासनिक और मिलिंद देवड़ा महाराष्ट्र से हैं। राज्य की वर्तमान महाआघाड़ी सरकार में मंत्री सुनील केदार ने इन नेताओं से बिना शर्त माफी की मांग करते हुए धमकी दी कि,अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वे महाराष्ट्र में खुलेआम नहीं घूम पाएंगे। इस बयान पर दल की तरफ से कोई टिप्पणी नहीं आई। यकीनन ये ऐसा ‘ विषाणु’ है,जो कोरोना की तरह नया भले न हो,लेकिन लाइलाज जरूर है। वैसे भी आजकल सियासी दलों में चुनावी हार का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण एक अवांछित कृत्य बनता जा रहा है,क्योंकि नतीजों के पोस्टमार्टम(जाँच) का अर्थ है दल नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना,और कोई भी नेतृत्व अपने हाथ काटने वाले किसी औजार को सान पर नहीं चढ़ने देता। इसीलिए,हमारे यहां सभी राजनीतिक दलों में जहां जीत का सेहरा किसी के सर बांधने में पलभर की देरी नहीं की जाती,वहीं हार का ठीकरा फोड़ने के बजाए सिर ही गायब कर दिया जाता है। हम क्यों हारे,यह सवाल पूछना भी अब ‘अपशकुन’ की तरह है। कांग्रेस में तो ऐसे प्रेशर कुकर की सीटी न बजे,इसके लिए नेताओं को गंवाने का खतरा भी मोल लेने में कोताही नहीं की जाती। ऐसे नेता कुछ समय बाद कांग्रेस का मैदान साफ कर अपनी जाजम बिछा देते हैं। पार्टी उसका भी रंज नहीं मनाती। शायद,इसीलिए सोनिया गांधी को पत्र लिखने वालों को भी ‘जनाधारहीन’ नेता बताया जा रहा है,जबकि इनमें से अनेक कई बार चुनाव जीतकर संसद या विधानसभाओं में पहुंचे हैं,लेकिन पत्र बम ‍विस्फोट की सजा के बतौर उन्हें दल में हाशिए पर डालने का काम शुरू हो चुका है। दरअसल,भारतीय राजनीति आज जिस चौराहे पर है,वहां विचार,सिद्धांतों और मूल्यों की तरफदारी की बजाए राजनीतिक कार्यकर्ता को केवल अपने आराध्य का भर चुनाव करना होता है। इस ‍दृष्टि से ‘भक्ति में ही शक्ति’ के घोष का यह सर्वाधिक अनुकूल समय है। कांग्रेस सहित ज्यादातर क्षेत्रीय दलों में यह ‘परिवारभक्ति का वसंतोत्सव’ है,तो भाजपा जैसे दलों में ‘व्यक्ति की भक्ति’ का स्वर्ण काल है। इस परिप्रेक्ष्य में आम भारतीय के सामने इतना ही विकल्प है कि,वो झांझ बजाए या मंजीरा। अगर कहीं ‘सामूहिक नेतृत्व’ का स्वांग है भी,तो ध्यान सिर्फ एक व्यक्ति पर ही है। यहां सवाल यह है कि,कांग्रेस का आगे क्या होगा ? क्या वह अंध-परिवारवाद के कंधों पर ही आगे बढ़ेगी या खुद अपने कंधे मजबूत करेगी ? दूसरे विकल्प की संभावना न्यून है, क्योंकि दल का नेतृत्व राहुल गांधी को फिर सौंपने की तैयारी हो रही है। यानी,अभी एक घमासान और होना है। इन सबके बीच सबसे आश्चर्यजनक बात शिवसेना का उन राहुल के नेतृत्व पर भरोसा जताना है,जिनको‍ पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान दल प्रमुख उद्धव ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से ‘बेवकूफ’ कहा था, लेकिन उन्हीं राहुल का नेतृत्व शिवसेना को ‘लाजवाब’ लग रहा है,क्योंकि महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार की पालकी को कांग्रेस भी कंधा दे रही है। तात्पर्य ये है कि,इस ‘राजनीतिक कोरोना’ का कोई नैतिक चरित्र नहीं होता। वह कोविड-१९ से भी कहीं ज्यादा तेजी से रंग और जुबान बदलता है और ऐसे सियासी विषाणु का राजनीतिक टीका बनाने वाली प्रयोगशाला भी अभी बननी है।

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