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शुभकामनाएं अकाली दल,राष्ट्रवाद थामे रहिए

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
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कृषि कानून-२०२० के चलते शिरोमणि अकाली दल ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ का साथ छोड़ दिया है। लोकतंत्र में हर दल को अधिकार है कि वह अपनी नीतियों व इच्छा के अनुसार किसी भी दल या गठजोड़ का साथ दे सकता या विरोध कर सकता है। अकाली दल को भविष्य की शुभकामनाएं,परंतु आग्रह भी है कि वह कुछ भी करें,पर नये-नये सीखे राष्ट्रवाद के सबक का पल्लू पकड़े रहें,और स्वयं को कट्टरपंथियों व अलगाववादियों के षड्यंत्रों से बचा कर रखें। यही विभाजनकारी तत्व पिछले दो दशकों से प्रयास में थे कि,अकाली दल सरीखा मजबूत पंथक आधार वाला दल किसी न किसी तरह राष्ट्रवादियों का दामन छोड़े और उनके षड्यंत्रकारी कार्यक्रम को आगे बढ़ाए। अब किसानों के बहाने ही सही बिल्ली के भाग से छीका टूट गया,परंतु अकाली दल को संभल-संभल कर कदम उठाना होगा।
कुछ राजनीतिक पंडित अकाली-भाजपा गठजोड़ को केवल राजनीतिक गठबंधन का हिस्सा मानते रहे हैं,उन्हें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राष्ट्रवादी शक्तियों का यह पूरा प्रयास रहा है कि,अकाली दल सरीखी मजबूत शक्ति अलगाववादियों के हाथों में खेलने न पाए। इसी के चलते राजनीतिक घाटे के बावजूद पंजाब में भाजपा गठजोड़ धर्म निभाती आई है। पंजाब में २००७ से २०१७ तक अकाली-भाजपा गठजोड़ की सरकार में न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं,बल्कि नेताओं तक को अपनी सरकार से शिकायतें रहीं,परंतु राष्ट्रहितों को प्रमुख रख कर भाजपा कई बार अपमान झेलने के बावजूद गठजोड़ का हिस्सा बनी रही। खुशी की बात है कि गठजोड़ में भाजपा चाहे राजनीतिक नुकसान झेलती रही,परंतु अकाली दल को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने में काफी सीमा तक सफल रही। याद करें कि,पंजाब में आतंकवाद के समय अकाली नेताओं पर आरोप लगते रहे कि वे मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकियों के भोग समारोहों में हिस्सा लेते रहे हैं,परंतु नई शताब्दी आते-आते यही अकाली राष्ट्रवाद की भाषा बोलने लगे। देश के वरिष्ठतम अकाली नेता स. प्रकाश सिंह बादल हिंदू-सिख एकता के प्रतीक के रूप में स्थापित हुए। कश्मीर में धारा ३७० के उन्मूलन का मौका हो या तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने की बात,या अन्य इसी तरह के अहम मौके,अकाली दल ने खुल कर भाजपा का साथ दिया।
अकाली दल का देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश में आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने में स्वर्णिम योगदान रहा है,परंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि दल में कुछ कट्टरपंथी व अलगाववादी सोच के लोग भी सक्रिय रहे हैं।
१९६७ के आम चुनावों में जब देश के ९ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ,तो पंजाब में अकाली दल ने प्रमुख भूमिका निभाते हुए भारतीय जनसंघ के साथ गठजोड़ करके स्व. गुरुनाम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाईl यह सरकार बेशक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी,मगर अकाली-जनसंघ गठजोड़ अटूट रहा और जब राज्य में मध्यावधि चुनाव हुए तो पुन: यही गठजोड़ सत्तारूढ़ हुआ,परन्तु १९७१ की इंदिरा लहर में लोकसभा चुनावों में यह गठजोड़ बुरी तरह परास्त हुआl
पिछले लगभग ३ दशक से अकाली-भाजपा गठजोड़ निरंतर चलता आ रहा थाl यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि जब भाजपा देश की राजनीति में अछूत थी,तो उसका साथ देने वाले चुनिंदा दलों में अकाली दल सबसे आगे था। दूसरी ओर भाजपा ने भी अकाली दल को कभी निराश नहीं कियाl यहां तक कि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने अपनी ही पार्टी के पंजाब के स्थानीय नेताओं की शिकायतों को नजरंदाज किए रखा,ताकि किसी न किसी तरह राष्ट्रीय हित में गठजोड़ बना रहे। यह संयोग ही है कि अपनी स्थापना के १०० साल बाद अकाली दल पुन: उसी मार्ग पर खड़ा दिखाई दे रहा है,जब उसे राष्ट्र हितों और अलगाववाद के बीच भेद करना पड़ रहा है तो उसे भविष्य में फूँक-फूँक कर कदम उठाने होंगे। दल ने राहें जुदा कर तो लीं,परंतु पार्टी नेतृत्व पर जिम्मेवारी आन पड़ी है कि वह राष्ट्रवाद को अपने कार्यक्रम में शामिल करे और पृथकतावादियों से दूरी बनाए रखे।

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