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बोझ ज़िन्दगी का लेकर के

नरेंद्र श्रीवास्तव
गाडरवारा( मध्यप्रदेश)
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धूल-धूसरित दुर्गम पथ ये जिस पर चलना नहीं गंवारा,
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के,चलते-चलते मैं तो हारा।

पतझड़-सा मौसम छाया है,
नीरसता का वातावरण है।
कल-कारखानों का गुंजन क्यों ?
खामोशी की लिए शरण हैll

वीरानी-वीरानी दिखती है,जिधर नजर करती इशारा,
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के,चलते-चलते मैं तो हाराll

घुटन भरे हैं,दर्द भरे हैं,
यादों के भंडार पड़े हैं।
प्यासे हैं ये होंठ कभी के,
यूँ तो आँसू भरे घड़े हैंll

पीड़ा ही पीड़ा दे पाया,अपनों का संसार ये सारा,
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के,चलते- चलते मैं तो हाराll

दूर कहीं दीपक दिखते,
मन में जग जातीं आशाएं।
तारे वे तो नीलगगन के,
दे जाते हैं निराशाएंll

मृगमरीचिका-सा क्रम यह,चलता है फिर से दोबारा,
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के,चलते-चलते मैं तो हाराll

मस्ती भरी नन्हीं ज़िन्दगी,
जैसे-जैसे बड़ी हुई है।
घुटनों के बल चलते-चलते,
अब कंधों पर चढ़ी हुई हैll

दुर्बल देह द्रवित हो कोई,ऐसा कहाँ सौभाग्य हमारा,
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के,चलते-चलते मैं तो हाराll

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