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नई शिक्षा नीति से शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन…?

वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-२……….

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य'(महाराष्ट्र)-

यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि,मातृभाषा में शिक्षा बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। विश्व के सभी विकसित देशों के बच्चे अपनी मातृभाषा में ही पढ़ते हैं और वहाँ सभी कार्य भी उनकी भाषा में ही होते हैं। इसलिए विकास की गति में भी वे बहुत आगे हैं। हमने तो बी.ए. तक और शायद बहुत लोगों ने एम.ए. तक भी मातृभाषा माध्यम से ही पढ़ाई की। स्वतंत्रता के समय भी देश के ९९.९९ फीसदी लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे। राजीव गांधी के शासनकाल में जो शिक्षा नीति आई,उसके बाद देश में धीरे-धीरे पूरी तरह शिक्षा का अंग्रेजीकरण होता चला गया। जब पैदा होते ही बच्चे को अंग्रेजीमय बना दिया जाए तो फिर मातृभाषा, राज्य भाषा और राष्ट्रभाषा की बात कौन करता ? इसलिए धीरे-धीरे पूरी व्यवस्था अंग्रेजी के रंग में रंगती चली गई। भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों,चैनलों,सिनेमा,विज्ञापन आदि में भी अंग्रेजी ने अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। विदेशी भाषा माध्यम के कारण नई पीढ़ियों की मौलिक सोच के बजाय रटने की प्रवृत्ति ने देश के विकास पर भी अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
नई शिक्षा नीति का मसौदा बनाए जाते समय ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के इसी समूह के माध्यम से देश के अनेक विद्वानों द्वारा मातृभाषा माध्यम से शिक्षण के लिए लगातार एक अभियान चलाया गया था। तमाम विद्वानों के विचार नई शिक्षा नीति समिति के अध्यक्ष कस्तूरीरंगन जी को तथा मंत्री जी को भेजे गए थे। यह प्रसन्नता का विषय है कि,उन तमाम सुझावों आदि पर भी समिति व सरकार द्वारा विचार किया गया है।
नई शिक्षा नीति में कम से कम प्राथमिक शिक्षा स्तर तक मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान निश्चय ही स्वागत योग्य है,लेकिन अगर यह प्रावधान ऐच्छिक बनकर रह गया तो निश्चय ही इससे किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं होगा बल्कि नुकसान होने की आशंका है। नई शिक्षा नीति के माध्यम से देश में कम से कम प्राथमिक शिक्षा स्तर तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो,इसका कार्यान्वयन सरकार की इच्छा शक्ति व राजनीतिक कौशल पर निर्भर करेगा‌। पिछले करीब ३५ वर्षों से अंग्रेजी को ही शिक्षा मानने वाले अंग्रेजी में रंगे भारतीय समुदाय को सच्चाई समझाने के लिए भी हमें विशेष प्रयास करने होंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। सभी मातृभाषा प्रेमियों को अपने-अपने राज्य में मातृभाषा माध्यम की नीति लागू करने के लिए पूरी शक्ति से प्रयास करने चाहिए।

प्रेम चन्द अग्रवाल(पंजाब)-

       प्रधानमंत्री ने नई शिक्षा नीति पर बोलते हुए अन्य बातों के अतिरिक्त पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा में शिक्षा के माध्यम पर विशेष रूप से अपना मत व्यक्त किया। प्रधानमंत्री के मुख से मातृभाषा के पक्ष में बोलना बहुत महत्त्वपूर्ण है और हमें आशा बंधाता है। हमारा प्रधानमंत्री से निवेदन है कि वे-मातृ‌भाषा में शिक्षा की नीति सभी,सरकारी और निजी विद्यालयों पर समान रूप से लागू हो। प्रधानमंत्री यह तो सुनिश्चित कर ही सकते हैं कि जिन प्रदेशों में भाजपा सरकार हैं,उन प्रदेशों में तो इस शिक्षा नीति का कठोरता से पालन हो। मातृभाषा में शिक्षा तभी सफल होगी,जब मातृभाषाओं में शिक्षा पाए बच्चों को रोजगार मिलने में कोई भेदभाव नहीं होगा। इसके लिए सरकार को नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करनी होगी,अन्यथा मातृभाषा में शिक्षा की नीति अर्थहीन है और असफल ही सिद्ध होगी। जो भाषा आपको रोजगार उपलब्ध नहीं करवा सकती,कोई क्यों उसमें शिक्षा लेकर अपने भविष्य को अंधकारमय बनाएगा। हमें आशा है कि प्रधानमंत्री देश को अंग्रेजी की दासता से भी मुक्ति दिलाएंगे।

डॉ. राजेश्वर उनियाल-

         शिक्षा लेना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है और वह किस विषय या माध्यम से शिक्षा लेना चाहता है,यह उसके विवेक पर निर्भर करता है। किसी भी छात्र पर भाषाई बंधन नहीं डाला जा सकता है,लेकिन जब एक शिशु अपनी माँ की गोद से निकलकर विद्यालय जाए तो वहां उसे अपनी मातृभाषा अवश्य दिखनी चाहिए। नई शिक्षा नीति में इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा पर बल दिया गया है।  

प्रवीण जैन(महाराष्ट्र)-

         `राशिनी` में हिन्दी और संस्कृत अनिवार्य करने का उल्लेख कहीं भी नहीं है,लेकिन यह स्वभाविक है कि सीखने में आनंद आने पर विद्यार्थी अतिरिक्त भाषा सीखने में रुचि दिखाते हैं। राज्य में हजारों सीबीएसई पाठ्यक्रम आधारित विद्यालय हैं,जो कई भाषाओं को पहले से ही सिखाते आ रहे हैं,लेकिन सरकारी शाला के विद्यार्थी अतिरिक्त भाषा सीखने के अवसर से वंचित हो रहे हैं। हम स्वयं ही विद्यार्थियों को हिन्दी या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखने के अवसर से दूर कर रहे हैं। वर्ष १९६२ और २०२० के समय में बहुत बदलाव आ गया है और विचार भी बदल गए हैं। जब तमिलनाडु के विद्यार्थी अतिरिक्त भाषा के रूप में हिन्दी,कन्नड,तेलुगु और मलयालम का चयन करेंगे तो अन्य राज्य के विद्यार्थी भी तमिल का चयन करना शुरू कर देंगे,लेकिन इसका विरोध कर हम ऐसे अवसरों को नजरअंदाज कर रहे हैं। नई शिक्षा नीति में प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च अध्ययन तक विश्व स्तरीय शिक्षा की परिकल्पना की गई है और इसका उद्देश्य शैक्षणिक संस्थानों में सुधार करना भी है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षण को दिए गए महत्व का सभी ने स्वागत किया है।

निर्मल कुमार पाटौदी(मप्र)-

  सबके अंतर्मन में यह व्यावहारिक समझ आना आवश्यक है कि,३ भाषा की नीति को दफ़ना दिया जाए,२ भाषा नीति से ही देश का भला होगा। आठवीं अनुसूची की भाषाओं के माध्यम से राज्यों का कामकाज हर क्षेत्र में चले। बिना अंग्रेज़ी की वैशाखी के हमारी भाषाओं के अपने दम पर खड़े होना ही पड़ेगा। तब ही उनको अपना वास्तविक अधिकार प्राप्त हो सकेगा। पूरे भारत राष्ट्र को जोड़ने का काम हिंदी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा नहीं कर सकेगी। हिंदी और हिंदीतर भाषी प्रदेशों में सर्वाधिक प्रचलित हिंदी ही है। अंग्रेज़ी तो मात्र कुछ मुट्ठीभर लोगों की स्वार्थ पूर्ति कर रही है। इस सत्य को जितनी जल्दी पहचान लिया जाएगा,उतना ही १४५ करोड़ लोगों का भला होगा। देश तेज़ी से अपनी महान भाषाओं के सहारे विकास कर लेगा। उन्नत राष्ट्रों की पंक्ति में पहुँच सकेगा। अपनी भाषाओं को अपनाने से ‘इण्डिया’ से मुक्ति मिल जाएगी ‘भारत’ अपने ज्ञान,अध्यात्म और प्राचीन विरासत के आधार पर पुन: अपने स्वर्ण युग जैसा गौरव प्राप्त कर लेगा।

उदय कुमार सिंह-

     भारत की  नई शिक्षा नीति वर्ष-२०२० में इस बार जो परिवर्तन किए गए हैं उससे बहुत सारी समस्याओं  का निदान होना प्रारंभ हो जाएगा । प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को माध्यम रखने का निर्णय लिया गया है और इसके लिए आवश्यक दिशा निर्देश भी वर्ष २०२० की शिक्षा नीति में उल्लिखित हैं। राज्य सरकारों को इसे शीघ्र लागू करने के लिए अवश्य तत्काल पहल करना है,तो यह उनके ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस तरह से लागू व क्रियान्वित करती हैं ? केन्द्र सरकार द्वारा एनसीईआरटी को यह जिम्मेवारी दी गई है कि वह भारत के संविधान की अष्टम अनुसूची में वर्णित भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें तैयार करें और उसे शीघ्र संबंधित कक्षाओं के लिए उपलब्ध कराएं और राज्य के स्तर पर संबंधित राज्य सरकार इस प्रसंग में एससीआरटी को आवश्यक दिशा निर्देश देकर पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराने की कार्यवाई सुनिश्चित करें। एससीआरटी को इस क्षेत्र में पहल करना है,ताकि प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा में पठन-पाठन शीघ्र सुदृढ़ हो सके। जब प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होगी तो उस भाषा में बच्चों के पठन-पाठन की जड़ें तो मजबूत होगी हीं,और बच्चे धीरे-धीरे उसे अपने साथ स्वयं विकसित करने लगेंगे तथा आने वाले समय में,माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा-दोनों में भी इसके परिणाम पहले से बेहतर जरूर होंगे। मेरा तो यही मानना है कि आने वाले समय में अंग्रेजी का पठन-पाठन धीरे-धीरे स्वयं क्षीण होता जाएगा और लोक चेतना के साथ विकसित हो रही आधुनिक भारतीय भाषाएं अपने-अपने क्षेत्रों में नव विकास के साथ-साथ केन्द्रीय स्तर पर प्रयोग में आ रही हिंदी को भी और परिवर्तित एवं परिष्कृत करेंगी। अब हमारी कोशिश होनी चाहिए कि इस नई शिक्षा नीति के साथ कोई राजनीति न की जाए और आधुनिक भारतीय भाषाओं को अपनाए जाने के बारे में जिस प्रकार के प्रावधान इसमें  किए गए हैं,उनको तत्काल कार्यान्वित करने के लिए देश के सभी राज्यों में उनके स्वयं के स्तर से अथक प्रयास किए जाएं। यदि प्रबुद्धजन अपने निजी सम्मान और व्यक्तिगत उत्कर्ष को तिलांजलि देकर सामाजिक उत्थान और राष्ट्र-हित के लिए काम करना चाहते हैं तो उन्हें नई शिक्षा नीति के भाषा संबंधी महत्वपूर्ण प्रावधानों को बिना कोई लाग लपेट या हिचक के कार्यान्वित करने के लिए तत्काल पहल करना चाहिए।

हरिसिंह पाल-

       यह बहुत ही उत्साहवर्धक प्रस्ताव है कि अब भविष्य में कक्षा  ५वीं तक घरेलू-मातृभाषा में पढ़ाई होगी,किंतु मेरे जैसे छिद्रान्वेशी विद्यार्थी के मन में इसके बारे में अस्वभाविक शंका है कि,नई शिक्षा नीति में न तो हिंदी भाषा का जिक्र है और न नागरी लिपि का। ज्यादा से ज्यादा शहरों में ही हिंदी बोली जाती है। वह भी मथुरा,आगरा,अलीगढ़, हाथरस जैसे शहरों में तो ब्रजभाषा ही बोली जाती है। अगर कोई हिंदी बोलता भी है तो उसे डांटकर चुप करा दिया जाता है कि,-"जादै अंग्रेजी मति झारै।" यही स्थिति अन्य क्षेत्रों में भी है। यदि यह स्पष्ट कर दिया जाता कि अष्टम अनुसूची में उल्लिखित क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण कराया जाएगा,तो कुछ गनीमत थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में और भी स्थिति विषम है। मेघालय,त्रिपुरा,नागालैंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में कौन-कौन सी मान्य घरेलू और क्षेत्रीय भाषाएं हैं,यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। मेरे विचार से प्रवेश परीक्षाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं को भारतीय भाषाओं में लिया जाना सुनिश्चित किया जाए और इनमें अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए तो स्वमेव विद्यार्थी भारतीय भाषाओं की ओर उन्मुख होंगे। भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता से शहरी-ग्रामीण,अमीर-गरीब और साधन-संपन्न एवं साधनहीन के बीच की दीवार भी ढह जाएगी।

सुरेंद्रसिंह शेखावत-

              ठीक नहीं भाषा के प्रश्न पर विवाद। निश्चित ही भारत में प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा होने से देश की बौद्धिक संपदा समृद्ध ही होगी। इस पर आपत्ति जताने वालों को एक बार भाषा विज्ञानियों की बातों पर गौर करना चाहिए।    

हीरालाल कर्णावट(मप्र)-

              और इधर `बिज़नेस स्टैंडर्ड` (हिंदी) में शेखर गुप्ता वही राग अलाप रहे हैं कि,जनता अंग्रेजी माध्यम चाहती है पर जनता दुनियाभर के मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों के मत के विरुद्ध क्यों जा रही है,इसकी पड़ताल कौन करेगा ?

डॉ. अशोक कुमार तिवारी-

         मैं कहना चाहता हूँ,-राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिएl नि:संदेह भारत के लगभग १० राज्यों की राजभाषा होने-बोलने के आधार पर विश्व में क्रम एक पर स्थान रखने, वैज्ञानिक और सरल देवनागरी लिपि,निर्माण में अरबी-फ़ारसी के साथ सभी भारतीय भाषाओं तथा संस्कृत के समायोजन से परिपूर्ण हिन्दी के अलावा अन्य कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा की अधिकारिणी नहीं हैl विद्यालय आदि में हिन्दी पहले स्थान पर,दूसरे स्थान पर अंग्रेजी के साथ ही साथ अन्य सभी भारतीय भाषाओं को विकल्प में रखा जाए,जिसमें विद्यार्थी कोई एक चुनेंगेl दूसरी तरफ गैर हिन्दी भाषी राज्यों में राज्य के विद्यालयों में पहले क्रम की भाषा उस राज्य की जनभावना के अनुसार राज्य निर्धारित करेंगेl दूसरे स्थान पर हिन्दी-अंग्रेजी के साथ अन्य सभी भारतीय भाषाएँ होंगीl अन्य विषयों के माध्यम के मामले में भी केन्द्र-राज्य सरकारें अपने यहाँ पाठ्य पुस्तकों की उपलब्धता तथा जनभावना के अनुसार निर्णय ले सकेंगेl इसी तरह प्रतियोगी परीक्षाओं तथा नौकरियों में अन्य अनिवार्य विषय के साथ केवल एक भाषा लेनी होगी-विकल्प में हिन्दी-अंग्रेजी के साथ सभी भारतीय भाषाएँ भी होंगी(चीन-जापान-जर्मनी आदि कुछ ऐसी ही मिलती-जुलती व्यवस्थाएँ अपनाकर आज उन्नति कर रहे हैं।)l इस व्यवस्था से निकले कर्मचारी-अधिकारी आज की तुलना में अधिक ईमानदार और गरीब जनता के प्रति उत्तरदायी होंगे,सभी भाषाओं को न्याय मिलेगाl ये बातें अन्य भाषा-भाषियों को समझाकर राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत संस्थाएं पहल करके एक राय बना सकती हैं। 

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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