जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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दुनिया की सारी इमारतें सब श्रम कौशल की माया है,
बजरी-पत्थर ढोते-ढोते टूटी श्रमिक की काया है।
हाथों में छाले हैं जिसके कांधे,पैरों पर हैं निशान,
महलों को जिसने खड़ा किया,इक रात नहीं सो पाया है॥
पूरे दिन पत्थर तोड़-तोड़ अपनी किस्मत धुनता रहता,
रूखी-सूखी दो रोटी खा कोरे सपने बुनता रहता।
मंदिर-मस्जिद का निर्माता सड़कों का भाग्य विधाता है,
जो पेड़ लगाए हैं उसने क्या भोगी उनकी छाया है॥
अंतड़ियां भूखी सिकुड़ रहीं थोड़ी मिलती मजदूरी है,
गर्मी-सर्दी के मौसम से लड़ना उसकी मजबूरी है।
वो पत्थर का भगवान कहीं मंदिर में बैठा देख रहा,
पत्थर को रूप दिया उसने छैनी से खोदी काया है॥
सदियां बीती युग गुजर गए,मजदूर वहीं का वहीं पड़ा,
अधनंगे बीबी-बच्चे हैं,अधनंगा खुद भी वहीं खड़ा।
‘हलधर’ यह प्रश्न पूछता है सत्ता के ठेकेदारों से,
जो रोग हरे मजदूरों का,क्या दवा खोज के लाया है॥