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जन विमुख जनतन्त्र

अवधेश कुमार ‘अवध’
मेघालय
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२६ जनवरी को फिर से मनाया जाएगा गणतन्त्र दिवस,ठीक वैसे ही जैसे ५ महीने पहले मनाया गया था स्वाधीनता दिवस। ये दोनों हमारे जन्म से बहुत पहले से मनाए जा रहे हैं। हमने सुना है लोगों से कि सच तो सनातन है,अजर-अमर है। अजन्मा है,ईश्वरीय है…और दस्तक ? दस्तक भी आदिकालीन है। पूरा पाषाणकालीन है। तभी तो लोग पत्थर फेंककर जगाते थे। कंकड़ मारकर उठाते थे। हनुमान जी ने अशोक वाटिका में अंगुठी गिराकर दस्तक दी थी। रावण ने साधू के वेश में माँ जानकी के समक्ष दस्तक दिया था तो अंगद ने पाँव जमाकर रावण की लंका में। प्रेमी जोड़े कबूतर द्वारा पाती पहुँचाकर दस्तक देते थे,अब मोबाइल द्वारा इस नैसर्गिक कार्य को पूरा करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सच और दस्तक दोनों आदकालीन हैं तो सच की दस्तक भी…..। देवर्षि नारद,गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर जी भी सच की दस्तक ही थे। सच की दस्तक सदैव होती रही है। सुकरात ने भी सच की दस्तक दी थी,ईशू ने भी,सत्य हरिशचन्द्र ने भी। सबको कीमत चुकानी पड़ी। पड़ेगी ही,क्योंकि सच की दस्तक स्वयं में शिव है,सुंदर है,कल्याणकारी है,सर्वोच्च है। इसके लिए ही भगवान को आना पड़ा था रोहिताश्व को जिंदा करने। माँ शैव्या का आँचल पुत्र के कफ़न बनने से रोकने। कहते हैं न कि जितना बड़ा पद चाहिए,उतनी बड़ी परीक्षा पास करनी होगी। सच की दस्तक के लिए नीलकंठ बनना होगा,आशुतोष बनना होगा। सच की दस्तक क्या है ? यह सच का दस्तावेज है जो शाश्वत है,सनातन है, पुरातन है। इसे कोई देवेश,गणेश,या ब्रजेश सदैव अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करता रहेगा।
जनतन्त्र ने भी दस्तक दी थी किसी झरोखे से। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने देखा भी था। देखे होंगे,जरूर देखे होंगे। आम्बेडकर जी देखे थे। नेहरू जी समेत उनके सारे वंशज देखे थे। कुछ महीनों के लिए शास्त्री जी भी देखे थे। यह कन्हैया के चीर की तरह था,जो पलभर के लिए द्रौपदी की लाज रख पाया। सत्तर से अस्सी के बीच यह भीष्म की तरह शरशैया पर था। आज की पीढ़ी शायद वेंटीलेटर कहना अधिक पसंद करे। वेंटीलेटर ही ठीक है,क्योंकि यह जीवन से जोड़ सकता है। शरशैया तो मुक्ति की ओर ले जाती है। अपने कर्मों से, कुकर्मों से,सुकर्मों से। इसे पश्चाताप की शैया कहना भी उचित ही है। यह जीवन की सारी छोटी-बड़ी घटनाओं की रील को दुहराने की शैया है। तिल- तिलकर मृत्यु को पुकारने की शैया है।
अस्सी का दशक जनतन्त्र के लिए वेंटीलेटर पर रहने का समय था। आपातकाल ने इसके प्राण ही सोख लिए थे। यह मृतप्राय: ही हो गया था। जयप्रकाश,लोहिया और राजनारायण ने सावित्री वट पूजा की। सतहत्तर में लौट आया जाता हुआ प्राण। तभी तो लोहिया जी को कहना पड़ा कि जब तक राजनारायण हैं,जनतन्त्र को जिंदा रहना ही पड़ेगा। जनतन्त्र बेचारा है बहुत नाजुक। छुई-मुई की तरह। इसकी इज्जत और प्राण दोनों पर सदैव खतरा मँडराता रहता है। एक लोकोक्ति है न कि जिसकी लाठी,उसकी भैंस। यह आज भी उतना ही सच है जितना फिरंगियों के राज में। बस लाठी का स्वरूप बदला है। भला क्यों न बदले! तन्त्र बदलेगा तो शस्त्रास्त्र भी बदलेंगे ही। लॉर्ड इरविन के साथ हुए समझौते ने सब-कुछ बदल डाला था। हम अपने शब्दों का अर्थ अंग्रेजों की डिक्शनरी में खोजने लगे थे। धीरे-धीरे इसके आदी भी हो गए। तभी तो भगत,शेखर,बिस्मिल सरीखे समस्त क्रांतिकारी उग्रवादी हो गए।
जनतन्त्र को दुनिया चाहे तो सौ-दौ सौ साल पुराना कह सकती है। पीछे पीछे हम लोग भी कह सकते हैं। कहते भी हैं,वैसे ही जैसे बोधायन को नकारकर समकोण त्रिभुज प्रमेय का नियंता पाइथागोरस को कहते हैं। आज हम डंके की चोट पर एक बात कह देना चाहते हैं कि जनतन्त्र हमारे यहाँ बहुत पहले से आता-जाता रहता है। महाराज दशरथ ने भरे दरबार में पूछा था कि अगर सभी लोग सहमत हों तो राम को युवराज बनाया जाए। राजतन्त्र में एक सक्षम चक्रवर्ती राजा द्वारा अपने ही बड़े सुपुत्र को युवराज बनाने के लिए मत संग्रह का आह्वान करना ही तो जनतन्त्र है। महाराज दशरथ ने जनतन्त्र का पूर्णतः अनुपालन किया। यह आज के समय में भी महत्वपूर्ण है,..लेकिन परिणाम! एकमात्र कैकेयी के विरोध ने जनतन्त्र को मटियामेट कर डाला। मटियामेट तो उस दिन भी हुआ था जनतन्त्र,जब कांग्रेस में पट्टाभिसीतारमैया की हार या नेहरू की पराजय हुई थी। जनतन्त्र तो उस समय भी खून के आँसू रोया होगा जब एक व्यक्ति विशेष की मंशा पूरे देश पर भारी पड़ रही थी। भरत के भारत के बाप,चाचा,भाई,पुत्रादि गढ़े जा रहे थे। जनतन्त्र उस समय भी रौंदा गया था,जब आजादी के बाद भी माउंटबेटन दम्पत्ति का भारतीय राजनीति में पूरा हस्तक्षेप था।
हम इस यथार्थ को झुठला नहीं सकते कि भारतीय जनतन्त्र में कैकैयी के अनुयायी सदैव रहे हैं। मन्थराएं भी रही हैं। लोकतन्त्र और राजतन्त्र के बीच फँसकर जान गँवाने वाले दशरथ भी रहे हैं। वचनबद्ध पिता के चलते युवराज की दावेदारी से विमुख होकर वन जाने वाले राम भी रहे हैं। बड़ी कुर्सी ठुकराकर छोटी पर बैठते हुए भी बड़े से भी बड़ा दायित्व निभाते हुए अपने नाम सरदार को सार्थक कर रहे थे पटेल। अपनी अपनी डफली-अपना-अपना राग वाले दलदल में शास्त्री जी जैसे सपूत भी जो पाकिस्तान में अंगद-पाँव जमाने में सक्षम थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह,जिन्होंने आम्बेडकर के सपनों को जमीन पर उतारा। मनमोहन और मोदी भी। एक अति मौन,दूसरा अति मुखर। देवगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल भी सर्वोच्च दायित्व निभाने हेतु लाए गए। कितना निभा पाए! शायद उन्हें ही पता होगा। युवा तुर्क तो फिर भी आदत से बाज नहीं आए थे। उनका प्रधानमंत्री बनकर आना और जाना दोनों ही कांग्रेस की देन थी।
जनतन्त्र जनता का जनता के लिए,जनता द्वारा शासन पद्धति है। सबसे आदर्श शासन प्रणाली। इसमें जन को छोड़कर सिर्फ तन्त्र ही दिखता है। तन्त्र…धन का तन्त्र,बल का तन्त्र,दलदल का तन्त्र,जन से विमुख होकर भी जनतन्त्र बने रहने का कुटिल तन्त्र।
इस बार भी होगा,वह सब होगा। वही सब होगा,जो होता आया है दशकों से। नई तकनीक में होगा। नयापन बीच में होगा जन और तन्त्र के। गोंद की तरह विमुख करके भी चिपकाए हुए। राष्ट्र अपनी शक्ति दिखाएगा। जनता तन्त्र से जुड़कर जनतन्त्र होने के लिए सतत,अबाध,अहर्निश सहयोग कर रही है। विश्वास मरा नहीं है। शायद अगली बार तन्त्र जन से पूरी तरह जुड़कर मुकम्मल जनतन्त्र हो जाए।

परिचय-अवधेश कुमार विक्रम शाह का साहित्यिक नाम ‘अवध’ है। आपका स्थाई पता मैढ़ी,चन्दौली(उत्तर प्रदेश) है, परंतु कार्यक्षेत्र की वजह से गुवाहाटी (असम)में हैं। जन्मतिथि पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर है। आपके आदर्श -संत कबीर,दिनकर व निराला हैं। स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र),बी. एड.,बी.टेक (सिविल),पत्रकारिता व विद्युत में डिप्लोमा की शिक्षा प्राप्त श्री शाह का मेघालय में व्यवसाय (सिविल अभियंता)है। रचनात्मकता की दृष्टि से ऑल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ व परिचर्चा का प्रसारण,दूरदर्शन वाराणसी पर काव्य पाठ,दूरदर्शन गुवाहाटी पर साक्षात्कार-काव्यपाठ आपके खाते में उपलब्धि है। आप कई साहित्यिक संस्थाओं के सदस्य,प्रभारी और अध्यक्ष के साथ ही सामाजिक मीडिया में समूहों के संचालक भी हैं। संपादन में साहित्य धरोहर,सावन के झूले एवं कुंज निनाद आदि में आपका योगदान है। आपने समीक्षा(श्रद्धार्घ,अमर्त्य,दीपिका एक कशिश आदि) की है तो साक्षात्कार( श्रीमती वाणी बरठाकुर ‘विभा’ एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा)भी दिए हैं। शोध परक लेख लिखे हैं तो साझा संग्रह(कवियों की मधुशाला,नूर ए ग़ज़ल,सखी साहित्य आदि) भी आए हैं। अभी एक संग्रह प्रकाशनाधीन है। लेखनी के लिए आपको विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। इसी कड़ी में विविध पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन जारी है। अवधेश जी की सृजन विधा-गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधाएं हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जनमानस में अनुराग व सम्मान जगाना तथा पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जनभाषा बनाना है। 

 

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