योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
********************************************************
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह जयंती-२३ सितम्बर विशेष………………
कवि कुलभूषण रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को श्रोता-पाठक ‘राष्ट्र कवि’ कहते हैं। किसी देश के संविधान में राष्ट्रगान,राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा,राष्ट्रभाषा (भारत में राजभाषा),राष्ट्रीय चिह्न आदि का विधान है,पर राष्ट्रकवि का कहीं विधान नहीं है। वैसे हमारे देश में कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राष्ट्रकवि की संज्ञा से जाने जाते हैं।
अगर रविन्द्रनाथ टैगोर ने मोहनदास करमचन्द गांधी को ‘महात्मा’ नाम दिया,तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को ‘राष्ट्रकवि’ की पहचान किसने दी ? प्रसिद्ध बी.बी.सी. संवाददाता मार्क टूली के अनुसार दिनकर को राष्ट्रकवि का नाम किसी व्यक्ति-विशेष ने नहीं, पर आम जनता ने दिया। ‘मानव-मात्र के दु:ख-दर्द से पीड़ित होने वाले कवि थे। राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था, इसीलिए वह जन-जन के कवि बन पाए और आज़ाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला।’
तब राष्ट्रकवि कहते किसे हैं ? स्वयं ‘दिनकर’ ने इस बारे में अपनी डायरी में (दिनकर की डायरी,पृष्ठ २१०)लिखा-
‘राष्ट्रकवि किसे कहना चाहिए ? अपने देश में और कई अन्यदेशों में भी यह प्रथा चल रही है कि जो भी कवि राष्ट्रीय कविताएँ लिखता हो,उसे राष्ट्रकवि कह देते हैं,किन्तु यह काफी नहीं है। प्रत्येक जाति की आध्यात्मिक विशेषता होती है,कोई सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होता है, संसार और जीवन को देखने की कोई दृष्टि होती है। जो कवि इस दृष्टिबोध को अभिव्यक्ति दे सके,वही राष्ट्र का राष्ट्रकवि कहलाने योग्य है। भारतवर्ष में हम मैथिलीशरण जी,माखनलाल चतुर्वेदी जी और सुव्रह्मन्यम भारती जी को राष्ट्रकवि कहते हैं,किंतु यह आंशिक सत्य है। हमारे असली राष्ट्रकवि वाल्मीकि हैं,कालिदास हैं, तुलसीदास हैं और रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं, क्योंकि- भारत धर्म को इन्होंने सबसे अधिक अभिव्यक्ति दी है।’
अपनी पुस्तक ‘वट-पीपल’ में दिनकर ने कहा है(पृष्ठ ५८-५९) कि गेटे के अनुसार-‘राष्ट्रकवि उसे कहना चाहिए जिसने-अपनी जाति के इतिहास की सभी प्रमुख घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का सन्धान पा लिया है। जिसे यह ज्ञात हो चुका है कि उसके जातिय इतिहास में कौन-कौन सी बड़ी घटनाएं घटी हैं। उनके परिणाम क्या निकले हैं ?
राष्ट्रकवि की एक पहचान यह भी है कि उसे अपने देशवासियों के भीतर निहित महत्ता का ज्ञान होता है। अपनी जाति की गहरी अनुभूतियों से परिचय होता है। उसे इस बात का पता होता है कि,उसकी जाति की कर्मठता का प्रेरणास्रोत क्या है। राष्ट्रकवि का एक लक्षण यह भी है कि,उसकी जाति जिस उमंग से चालित होकर सम्पूर्ण इतिहास में काम करती आयी है,उसे कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करे। राष्ट्रकवि केवल वह कवि हो सकता है,जिसकी रचना में जाति अपनी आत्मा की प्रतिच्छाया देखती हो। जिसमें उस जाति के बाहुबल का आह्वान हो। उसके विचारों की ज्योति और भावनाओं का गुञ्जन विद्यमान हो और कोरे कवि जातिय कवि होने का दावा कर भी नहीं सकते।’
हिन्दी मेंं २ मुख्य कवि राष्ट्रकवि के रूप में पहचाने गए हैं-मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
आईए दिनकर की साहित्यिक-साधना के बारे में कुछ जानें-
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी भाषा के कवि लेखक एवं निबंधकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर-रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। उनका जन्म २३ सितम्बर १९०८ को सिमरिया घाट बेगूसराय (बिहार, भारत) में हुआ था,तथा मृत्यु २४ अप्रैल १९७४ को मद्रास-तमिलनाडु में परिजनों से दूर हुई।
वे गद्य और पद्य विधा में लिखते थे। उनका विषय था-कविता, खंडकाव्य,निबंध,समीक्षा। राष्ट्रवाद,प्रगतिवाद के साहित्यिक आन्दोलन चलाने वाले में वे एक थे।
उनका उल्लेखनीय कार्य था-कुरुक्षेत्र,रश्मिरथी,उर्वशी,हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय,परशुराम की प्रतीक्षा,हाहाकार। उन्हें उल्लेखनीय सम्मान मिला-साहित्य अकादमी पुरस्कार,पद्म विभूषण,ज्ञानपीठ पुरस्कार। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने २०१५ में नई दिल्ली में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के कार्यों की स्वर्ण जयंती समारोह में कहा कि,-
”दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गए। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज,विद्रोह,आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्ति का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।’
इनकी जीवनी को देखें तो पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान में स्नातक किया। संस्कृत, बांग्ला,अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बिहार सरकार की सेवा में कई पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर महाविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे,भागलपुर विवि के उप-कुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे। द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना ‘महाभारत’ पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया है। वे अपने जीवन में विभिन्न विशिष्ट पदों पर रहे।
१९५२ में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ,तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर १२ वर्ष तक संसद-सदस्य रहे।
उनके युवाकाल में काव्य का ज्वार उभरा,जिसमें रेणुका,हुंकार, रसवंती और द्वंद्व गीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाएं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी। बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। ४ वर्ष में २२ बार उनका तबादला किया गया।
अपनी प्रमुख कृतियों में उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का ताना-बाना दिया। उनकी महान रचनाओं में ‘रश्मिरथी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शामिल है।भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।
ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना ‘उर्वशी’ की कहानी मानवीय प्रेम,वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है,वहीं ‘कुरुक्षेत्र’ महाभारत के शान्ति-पर्व का कविता रूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है।
दिनकर को श्रद्धा-सुमन अर्पण करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था-‘दिनकरजी अहिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।’ हरिवंश राय बच्चन ने कहा था- “दिनकरजी को एक नहीं,बल्कि गद्य,पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिए अलग-अलग ४ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने चाहिए। नामवर सिंह ने कहा है- ‘दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।’
दिनकर की रचनाओं के कुछ अंश-
‘किस भांति उठूँ इतना ऊपर ? मस्तक कैसे छू पाऊँ मैं ?
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते,उँगलियाँ न छू सकती ललाट
वामन की पूजा किस प्रकार,पहुँचे तुम तक मानव विराट ?
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा,लौटा दे अर्जुन भीम वीर।(हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को,जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो दन्तहीन,विषहीन, विनीत, सरल हो।(कुरुक्षेत्र से)
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की,तभी जवानी पाती जय। (रश्मिरथी से)
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया,तो राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। १९९९ में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।
इस प्रकार देखेंगे तो पाएंगे कि ‘दिनकर’ एक देदीप्यमान कवि थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के बाद उन्होंने राष्ट्रकवि की ख्याति स्वत: पाई। दिनकर के बाद काव्य क्षितिज पर ऐसा कोई नक्षत्र दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, जो अपनी पहचान राष्ट्रकवि के रूप में दे सके!
‘दिनकर’ के संघर्ष में बढ़ते जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए कि उनके पथ पर चल सकें। वे कवि के रूप में तो अद्वितीय हुए ही,गद्य लेखन में भी असाधारण लेखक होकर गद्य-धरा से ऊपर उठ गए। ऐसी विशिष्टता कौन नहीं पाना चाहे।
परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”