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कलेजे की बेबसी

मंजू भारद्वाज
हैदराबाद(तेलंगाना)
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माँ…माँ…मैं आ रहा हूँ माँ…मैं आ रहा हूँ माँ…चीख रहा था साहिल। उसकी चीख की गूंज ने दिल्ली के नुमाइन्दों की कुर्सी तक हिला कर रख दी थी। लोक सभा का कार्य कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया था। प्रधानमंत्री खुद इस प्रकरण को संभाल रहे थे। उनकी सख्त हिदायद थी कि,-”साहिल की फाँसी से पहले इस केस से जुड़ी कोई खबर बाहर मीडिया में नहीं आनी चाहिए।” इसी बात ने मीडिया में तहलका मचा रखा था कि,आखिर ऐसा क्या गुनाह किया है साहिल ने। पेपर,मैगजीन,रेडियो, टी.वी. सब एक ही जगह रुक गए थे। पूरा देश साँसें रोके इस कार्यक्रम की गतिविधियों को देख-सुन रहा था। पहली बार फाँसी का सजीव-प्रदर्शन दिखाया जाने वाला था। ऐसा अनोखा प्रकरण न कभी देखा,न सुना गया था। स्तब्ध था पूरा देश…।
दिल्ली के प्रगति मैदान में पहली बार मौत का नजारा जश्ने-आम था। भारत के इतिहास में पहली बार खुले मैदान में फाँसी की सजा दी जा रही थी। लाखों की संख्या में भीड़ जमा थी। सबकी नजरें मंच पर लटकते फाँसी के फंदे पर थी और मन हजारों सवालों के बीच घिरा था,पर जबाब किसी के पास नहीं था। साहिल को जेल से बाहर लाया जा रहा था। शाम के चार बजे फाँसी की सजा का समय निर्धारित किया गया था। साहिल लगातार चीख रहा था ”माँ…मैं आ रहा हूँ…माँ…मैं आ रहा हूँ…।”
उसकी हृदयविदारक चीख सुन वहॉं उपस्थित भीड़ की आँखें नम थी। हर कोई अपनी बुद्धि लगा कर इस जुमले को समझने की कोशिश कर रहा था। बहुत कुरेदने के बाद मीडिया यहां तक ही जान पाई थी कि उसने रामगढ़ के जमींदार की बहन की गला काट कर हत्या कर दी और खून से लथपथ कटार लेकर पुलिस स्टेशन में खुद को सौंप दिया था। उसकी पूरी कहानी सुन पुलिस सकते में आ गई थी। पूरा विभाग दहशत में था। जबरदस्त खलबली मच गई थी पुलिस विभाग में। बढ़ते-बढ़ते बात ऊपर तक पहुँची। इस घटना की खबर जब प्रधानमंत्री के कानों तक पहुँची,तो उन्होंने सारा मामला जानने के बाद पुलिस को सख्त हिदायत देते हुए कहा,-“साहिल को सजा होने तक यदि इस केस का मैटर लीक हुआ तो पूरे के पूरे पुलिस डिपार्टमेंट को सस्पेंड कर दिया जाएगा।” इसी डर ने उन सबकी जुबान पर ताला लगा दिया था।
ऐसा पहली बार हुआ था कि मीडिया की पैनी नजर भी इस प्रकरण की थाह पाने में असमर्थ थी। इसीलिए मीडिया का हर स्रोत बेकरार था सच को कैमरे में कैद करने को। भारी तादाद में पत्रकारों की भीड़ जमा थी। हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। बातावरण में सिर्फ एक ही चीख सुनाई दे रही थी ”माँ…मैं आ रहा हूँ,माँ…मैं आ रहा हूँ “। साहिल की दर्दभरी चीख कलेजे को छलनी कर रही थी। कइयों की तो आँखें भर आई थी। फाँसी का समय हो गया था। सारे दिग्गज मंच पर थे,पुलिस के ऊँचे-आला अधिकारी,जज साहेब,चिकित्सक सब निर्धारित समय का इंतजार कर रहे थे। जल्लाद ने साहिल के गले में रस्सी डाल दी,पर चेहरा नहीं ढँका। सामने मौत खड़ी थी पर इन सबसे बेखबर साहिल आँखें बंद कर लगातार चीखे जा रहा था…-“माँ मैं…आ रहा…हूँ…।” एक…दो…तीन…की गिनती के साथ जल्लाद ने रस्सी खींच दी।
“माँ…।” चीख सदा के लिए शांत हो गई, साहिल मर गया। रस्सी से झूल गया था उसका निर्जीव शरीर। सारे मैदान में मरघट का सन्नाटा छाया था…तभी धूल का गुब्बार उठा…हवाएं तेज हो गई। भीड़ में हलचल होने लगी थी,पर जाने का कोई नाम नहीं ले रहा था। सबके सब्र का बांध टूटने लगा था। तभी साहिल की आवाज पूरे मैदान में गूंज उठी। उसकी गूंज सुनते ही पूरे वातावरण में गहरा सन्नाटा छा गया। बड़ी स्क्रीन पर साहिल की तस्वीर उभरी, उसके हाथ में खून से लथपथ कटार थी। चेहरा और शरीर खून से लथपथ था,फिर शुरू हुआ उसका कन्फेशन(स्वीकारोक्ति) जो मरने के पहले रिकार्ड किया गया था।
”मैं साहिल,उम्र-२७ साल,निवास स्थान-रामगढ़, एजुकेशन-बी.ए. ऑनर्स। मेरे बाबा ४० सालों से रामगढ़ के जमींदार के यहाँ काम कर रहे थे। मेरा बचपन उसी हवेली में गुजरा था। बाद में बाबा ने मुझे पढ़ने चाचा के पास दिल्ली भेज दिया था। १० साल का था,जब बाबा का देहांत हो गया था। मैं माँ के साथ रहना चाहता था,पर माँ चाहती थी अपनी पढ़ाई पूरी करूं। बाबा के जाने के बाद उनके काम की जिम्मेदारी माँ ने संभाल ली थी। मैंने कालेज की पढ़ाई पूरी की और घर वापस आ गया। काम की तलाश में था। ठाकुर साहब को पता चला तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा-“कल से तुम मेरे ऑफिस आ जाना।”
सुबह मैं ऑफिस पहुंचा,ठाकुर साहब ने पूरे खेत-खलिहान के हिसाब-किताब दिखाते हुए कहा-“आज से ये सब तुम्हें संभालना है।” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं अपनी माँ को दुनिया की सारी खुशियाँ देना चाहता था। माँ ने जीवन मे बहुत कष्ट उठाया था। ये उन्हीं की तपस्या थी कि मैं पढ़-लिख पाया। मैंने बचपन से माँ को खटते ही देखा था। माँ मुझे अपनी छोटी-सी सल्तनत का राजकुमार कहती थी। वो दिन-रात मेहनत करती,ताकि मुझे किसी चीज की कमी न हो। गरीबी को अपने फटे आँचल में समेटे वह मुझ पर अमीरी का रंग उड़ेलती रही,पर मेरी आँखें उनके चेहरे पर बढ़ती सिलवटों को देख रही थी। उनकी दुनिया मुझसे थी,और मेरी जिंदगी उनसे थी। मैंने मन ही मन शपथ खाई थी कि,मैं बहुत पैसे कमाऊंगा और दुनिया की सारी खुशियों से माँ का आँचल भर दूंगा। मैं अपनी प्यारी माँ को फूलों की सेज पर रखूँगा। उनके शरीर से दुःख,दर्द की सारी सिलवटें उतार फेकूँगा। अब वो समय आ गया था। अब माँ का काम करना मुझे पसंद नहीं था। माँ ने मेरी बात मान कर काम पर जाना बंद कर दिया था। मैंने भी अपना सारा काम बहुत मुस्तैदी से संभाल लिया था। ठाकुर साहब मेरे काम से बहुत खुश थे। इनाम के तौर पर उन्होंने जमीन का छोटा-सा हिस्सा मेरे नाम कर दिया था। मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था। हमने उस जमीन पर अपना छोटा-सा घर बनाया। माँ बहुत खुश थी,वह दिन-रात घर सजाती रहती और उसी में मगन रहती। माँ के चेहरे पर ख़ुशी देखना ही मेरा सपना था। मुझे माँ के चेहरे पर फ़रिश्ते का नूर दिखता था। हम दोनों अपने छोटे-से राज महल में बहुत खुश थे।
उन्हीं दिनों ठाकुर साहब की बहन मालिनी अपनी पढ़ाई पूरी कर के लंदन से लौटी थी। जमीन के उस टुकड़े के लिए,जो ठाकुर साहब ने हमें दी थी,दोनों भाई-बहन के बीच काफी बहस होने लगी। मालिनी उस जगह पर अपना विद्यालय खोलना चाहती थी। ऐसा माँ ने बताया,पर ठाकुर साहब ने गरजते हुए कहा-“वो जमीन मैंने साहिल को दे दी है। अब उस जमीन को भूल जाओ।”
एक दिन मैं घर लौटा तो मालिनी को अपने घर पर देख कर चौक गया। वह माँ के लगाए बाग़ के हर फूल को बड़े प्यार से देख रही थी। मुझ पर नजर पड़ते ही मुस्कुरा कर बोली-“आप हैं साहिल जी,मैंने बहुत सुना है आपके बारे में।”
अपने घर में उस कमसिन बाला को देख मैं सकपका गया था। उसने मुझे भाँपते हुए कहा-”इतने खूबसूरत फूलों को आपने यहां छुपा रखा है। मुझे गुलाब के फूलों का गुलदस्ता चाहिए।”
माँ जो अब तक शांत थी,चहक कर बोली- “अभी बना देती हूँ मेम साहब।”
माँ बगीचे में चली गयी और सारे गुलाब तोड़ लाई, एवं बहुत ही सूंदर गुलदस्ता तैयार कर दिया। गुलदस्ता लेते हुए मालिनी मुस्कुराते हुए बोली-”मुझे रोज गुलाब का ऐसा ही गुलदस्ता चाहिए।”
”जी जरूर,मैं रोज लाकर दूँगा।” उनके आग्रह को मैं ठुकरा नहीं पाया। अब तो यह रोज का नियम हो गया था। रोज सुबह गुलाब का गुलदस्ता लेकर मैं उनके कमरे में जाता,फूलदान में सजा कर लौट आता। मालिनी मेरी खट-खट सुन कर अंगड़ाई लेते हुए अधखुली आँखों से मुझे देखते हुए कहती-“आ गए आप।” उसकी आवाज में एक कशिश थी,सुन कर मुझे कुछ-कुछ होने लगा था। मुझे देख कर लहरा कर उसका अंगड़ाई लेना,सुराहीदार खूबसूरत गर्दन को उठा कर अधखुली आँखों से मुझे देखना। उसके गोरे गालों पर हल्की लाली का खुमार..उसके रस भरे गुलाबी होंठ…। ऐसा लगता,उसका छलकता यौवन मुझे मौन आमंत्रण दे रहा हो। हर दिन मैं बहुत मुश्किल से खुद को समेटता,पर अगले दिन उसके हुस्न के सामने मैं कतरा-कतरा बिखर जाता। एक दिन मैं फूल गुलदस्ते में डाल कर जाने को मुड़ा ही था कि,मालिनी ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने करीब खींच लिया। मेरा दिल जोर-जोर से उछल रहा था। मुझसे लिपट कर बोली-“तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।” उसकी साँसों की गर्मी को इतने करीब से महसूस कर मैं मदहोश हो गया था। बहुत समय तक हम एक-दूसरे की बाँहों में थे।ओह,मैं तो सब-कुछ भूल बैठा था। अब तो मेरी रातों की नींद उड़ गई थी। सारी-सारी रात खुली आँखों से सुबह की पहली किरण का इंतजार करता। अब हम रोज मिलने लगे थे। धीरे-धीरे हमारा प्यार परवान चढ़ने लगा। हम सब-कुछ भूल कर एक-दूसरे में खोए रहने लगे। कहते हैं न इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते,तो हमारे प्यार की चर्चा कानों-कानों से होती हुई मालिक के कान तक पहुँच गई। उन्होंने मुझे काम से निकाल दिया। इतना ही नहीं,गुंडों से भी बहुत पिटवाया। खबर माँ तक पहुंची,वह भागती हुई आई और मालिक के क़दमों से लिपट कर अपनी जिंदगी की दुहाई देने लगी। उन्होंने माँ पर तरस खाते हुए कहा-”इसे समझा देना,अपनी औकात में रहे,वरना अगली बार जान से मार दूंगा। जमीं की धूल सर का ताज नहीं बना करती समझी।”
चीखते हुए मालिक ने कहा-”अगली बार मेरी बहन को सपने में भी देखा तो उसकी आँखें फोड़ दूँगा,ले जाओ साले को बाहर फेंक दो।”
उनके आदमी अधमरी हालत में मुझे मेरे घर के सामने पटक कर चले गए। माँ ने किसी तह मुझे संभाला,मेरी मरहम-पट्टी की। कुछ घंटों में मुझे होश आया,पर मैं उठने की हालत में नहीं था। १५ दिन तक बिस्तर पर पड़ा रहा। माँ दिन-रात मेरी सेवा करती,मुझे सहलाती,मुझे समझाती रही-”बेटा ये तू क्या कर रहा है,ये सही नहीं है। तू इन बड़े लोगों को नहीं जानता। ये अपनों से प्यार नहीं करते,तो परायों से क्या करेंगे। तू नहीं समझेगा,ये सब इस जगह को हथियाने की चाल है। सुन भी रहा है तू..कुछ समझ भी रहा है तुम्हें…मैं क्या बोल रही हूँ!” पर मैं कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं था। मेरे दिलों-दिमाग पर प्यार का ऐसा नशा छाया हुआ था कि,मैं बिन पिए ही होश खो बैठा था। दिन-रात मालिनी का हसीन चेहरा आँखों के सामने होता,उसकी अंगड़ाई लेती लटें,उसके बदन की खुशबू मुझे पागल कर रही थी। प्यार तो सदियों से पिटता ही आया है। इतिहास गवाह है-प्यार की किताब का हर पन्ना दीवानों के खून से सना है। मेरा पागलपन भी चरम सीमा पर था। मेरे लिए मान-अपमान का,मेरी बेकरारी का और इस मार-पिटाई का कोई अर्थ ही नहीं था। मेरी नसों में दौड़ते खून का उबाल और मेरे जूनून का एक ही नाम था “मालिनी।” उसे पाना ही मेरे जीवन का एकमात्र मकसद हो गया था,पर मालिनी बिल्कुल खामोश थी। उसकी इस रुसवाई ने मेरे दिल की लगी आग में घी का काम किया। स्वस्थ होते ही माँ के लाख मना करने पर भी मैं उसे धकेलता हुआ मालिनी से मिलने उसकी कोठी पर पहुँचा। ठाकुर साहब घर पर नहीं थे। मैं सीधे मालिनी के कमरे में पहुँच गया। वह बिस्तर पर लेटी थी,मुझे देखते ही घबराकर उठ बैठी। मैंने आव देखा-न ताव,बस उसे बाँहों में लेकर प्यार करने लगा। मैं अपने दिल की लगी को बुझाने में इतना व्यस्त था कि,मुझे अहसास ही नहीं हुआ कि, मालिनी बार-बार धकेल कर मझे खुद से दूर करने का प्रयास कर रही थी। उसने जोर से मुझे झटकते हुए कहा-“झूठा प्यार दिखाने की जरूरत नहीं है।”
”मालिनी मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता और तुम्हें मेरा प्यार झूठा लगता है!” तड़प कर मैंने कहा।
”तो इतने दिन कहाँ थे ?” मालिनी ने नाराजगी दिखाते हुए कहा।
”मालिक के गुंडों ने इतना मारा था कि,मैं चलने की स्थिति में नहीं था।” कहते हुए मैंने उसे अपने सारे जख्म दिखाए।
”बस इतनी-सी चोट से हार गए…यदि सच्चा प्यार करते तो हर हाल में आते।”
”मैं दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार तुमसे करता हूँ” कहते हुए मैंने तड़प कर उसे गले से लगा लिया था,पर मुझसे दूर जाते हुए वह बोली-
”अच्छा और अपनी माँ को…माँ को तुम प्यार नहीं करते ?”
”करता हूँ माँ को भी प्यार करता हूँ।”
“मैं अपने प्यार को बंटते हुए नहीं देख सकती। तुम्हें हम दोनों में से एक को चुनना होगा और हाँ,मेरी एक शर्त है।”
”कैसी शर्त…?” आश्चर्य से मैंने उसे देखते हुए पूछा।
“तुम्हें अपनी माँ का कलेजा निकाल कर लाना होगा और मेरे हाथों में देकर मुझे ‘आई लव यू’ कहना होगा। तभी मुझे भरोसा होगा कि तुम इस दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार मुझसे करते हो।”
”क्या…!” अवाक् रह गया था मैं,आगे कुछ कह पाता कि,मालिनी ने मुझे धकेल कर दरवाजा बंद कर लिया। मैं वहीं दीवार के सहारे बैठ गया। मेरा सर घूमने लगा था। ये क्या शर्त रख दी थी मालिनी ने…! दिल- दिमाग और शरीर की हवस की जंग से बदहवास हो मैं घर पहुँचा। बहुत कोशिश की कि, इस बात के लिए मालिनी से नफरत करूँ पर कर नहीं सका। ये जो छः इंच का छोटा-सा दिल है न, वो छः हाथ के शरीर पर बहुत भारी पड़ रहा था। मेरा मालिनी के प्रति पागलपन और बढ़ता जा रहा था। मैं अपना मानसिक संतुलन खोता जा रहा था। मुझे माँ को देख कर गुस्सा आने लगा था,क्योंकि माँ हर पल मुझे मालिनी से बात करने,उसके पास जाने से रोकती। मैं माँ से चिढ़ने लगा था। उनकी हर बात पर चिल्लाता,क्योंकि मुझे लगता माँ मेरे प्यार को,मेरी हालत को समझ ही नहीं पा रही है। यही मेरे बीच की दीवार है। कई दिन तक पूरी-पूरी रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलते काटता,ऐसा लगता,मानों हजारों बिच्छू मेरे शरीर पर चल रहे हैं। किताबों में बहुत पढ़ा था-”प्यार ये होता है,प्यार वो होता है”,पर प्यार की आग इंसान को जला कर खाक कर देती है,ये नहीं पता था। उस दिन मैं आपे में नहीं था,तड़प कर मालिनी से मिलने महल पहुँचा। मालिनी ने मुझे देखते ही दरवाजा बंद कर लिया। मैं दरवाजा पीटता रहा,उससे प्यार की भीख माँगता रहा,पर मालिनी ने दरवाजा नहीं खोला। पिटे हुए जुआरी की तरह लड़खड़ाते क़दमों से मैं शराब की दुकान पर पहुँचा,जम कर शराब पी। किसी तरह गिरते-पड़ते घर पहुँचा। मुझे इस हालत में देख कर माँ ने माथा पीट लिया और गुस्से में चीखते हुए बोली-”क्या हो गया है तुम्हें…! क्या हालत बना ली है…पागल कर दिया है उस लड़की ने तुम्हें…।,”
”हाँ…कर दिया है पागल,क्या करोगी तुम।” चीखते हुए मैंने माँ से कहा।
”तू आपे में नहीं है बेटा…तू कुछ समझ नहीं पा रहा है। वो तुम्हें कभी नहीं मिलेगी,वो खेल रही है तुम्हारे साथ…।” गुस्से में चीखते हुए माँ ने कहा।
”क्यों नहीं मिलेगी…वो हमसे प्यार करती है। मिलेगी…मिलेगी…जरुर मिलेगी…।” मैं गुस्से से फट पड़ा था औऱ माँ को धकेलता हुआ अपने कमरे में चला गया। मैं गुस्से से काँप रहा था। अब मालिनी को पाने का जूनून सर चढ़ गया था। सारा दिन बिस्तर पर पड़े-पड़े गुजारा। माँ के बहुत आवाज देने पर भी नहीं उठा। माँ के कहे शब्द नश्तर बन कर चुभ रहे थे। रात के साथ-साथ मेरे अंदर का पागलपन बढ़ने लगा था। मैं धीरे से उठा, दिमाग सुन्न था और दिल चीत्कार रहा था ”मालिनी को पाना है तो शर्त पूरी कर…।” मैं माँ के कमरे में गया। माँ गहरी नींद में सो रही थी। मैंने आव देखा-न ताव,तकिए से उनका मुँह दबा दिया। थोड़ी देर वो छटपटाती रही,हाथ पाँव मारती रही। फिर अचानक से उनका शरीर शांत हो गया। रात के २ बजे थे। मैंने तकिए को उसके मुँह पर ही छोड़ दिया। अपनी जेब से तेज धार का चाकू निकाला,जो रसोई से लेकर आया था और उनकी छाती पर वार किया। उसके शांत शरीर में हल्की-सी हरकत हुई फिर सब शांत हो गया। मैंने कलेजा निकाल कर एक कपड़े में लपेटा और महल की तरफ भागा। मेरा शरीर मेरे काबू में नहीं था। एक तो शराब का नशा,और दूसरा अपनी जीत का नशा। मेरे पाँव जमीन पर नहीं थे। ठण्ड की रात थी,पर मैं पसीने से तरबतर था। एक ही ख्याल दिलो-दिमाग पर हावी था,किसी भी कीमत पर मुझे मालिनी को हासिल करना है। मैं बेतहाशा भागा जा रहा था। गहरी अँधेरी रात थी,रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। अचानक बड़े से पत्थर से टकरा कर गिर पड़ा। पाँव में बहुत जोर से चोट आई थी। लहूलुहान हो गया था मैं,आदतन मुँह से कराह निकली “आह…माँ…।” पाँव पकड़ कर वहीं जमीन पर लोट गया,तभी आवाज आई,-“अरे बेटा क्या हुआ! गिर गया क्या…तुम्हें चोट तो नहीं आई…च..च…च…मैं तुम्हें कैसे उठाऊँ बेटा…कैसे सम्भालूं तुम्हें…उठ जा मेरे लाल…उठ जा…।” माँ की आवाज सुन कर मैं घबरा गया। इधर-उधर देखा,तो नजर माँ के कलेजे पर अटक गई जो मेरे हाथ से छिटक कर दूर जा गिरा था,और जोर-जोर से फुदक रहा था,जिसमें से ऊ…ऊ…की आवाज आ रही थी। पूरा कलेजा भीगा हुआ था,मैं घबरा गया। जबरदस्त चोट से शराब का नशा उतर गया था। माँ के कलेजे को देख चीख पड़ा ”माँ…माँ…।” माँ के कलेजे से लगातार आवाज आ रही थी बेटा,तू ठीक तो है न…ज्यादा चोट तो नहीं आई…बेटा अपना ध्यान रख,मैं कैसे तुम्हें सम्भालूं…बेटा,धीरे चला कर मेरा बच्चा…।”
मैं हसीन ख्वाबों के समंदर में गोता लगा रहा था, उफनती लहरों ने जब मुझे हकीकत की चट्टानों पर पटका तो मुँह से आह निकल आई…-ये मैंने क्या किया,ओह! ये मैंने…क्या किया…! मैं पागलों की तरह बाल नोंचने लगा। माँ…माँ…चीखता हुआ माँ के कलेजे को उठा कर अपने कलेजे से लगा लिया। उसमें से एक ही आवाज आरही थी-”बेटा, तू ठीक तो है न,ज्यादा चोट तो नहीं आई मेरे लाल।”
माँ…माँ…कहता हुआ मैं फफक-फफक कर रो पड़ा। रात का गहरा सन्नाटा मुझे अहसास दिला रहा था कि,मैं कितना बड़ा अभागा हूँ। मैंने अपनी हवस की आग में अपना आशियाना जला डाला था। मैं अनाथ हो गया था। मेरे घृणित कर्मों को देख कर पूरी कायनात सिहर उठी थी। रात भी स्तब्ध हो ठहर गई थी…बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं माँ के कलेजे को हाथों में लिए घंटों रोता रहा, बिलखता रहा। कितना अकेला हो गया था मैं। रात के गहन सन्नाटे में मेरी आवाज मुझे ही डराने लगी थी। मैं टूटे हुए क़दमों से महल की तरफ चल पड़ा। कदम जरूर लड़खड़ा रहे थे,पर दिल ने अपनी सजा मुकर्रर कर ली थी।
मेन गेट बंद था और कोई दिन होता तो मैं हमेशा की तरह चुपके से पाइप के सहारे मालिनी के कमरे में पहुंच जाता,पर आज तो जिंदगी अलग ही मुकाम पर थी और दिल कटघरे में खड़ा अपनी सजा का इंतजार कर रहा था। मैं जोर-जोर से मेन गेट पीटने लगा। कुछ ही देर में पूरे महल की बत्ती जल गई। मेनगेट खोला गया,आवाज सुन कर महल के सारे लोग वहाँ इकट्ठे थे। मुझे देखते ही ठाकुर साहब चीख पड़े-“तुम…इतनी रात को…यहाँ… ?
उनके किसी भी सवाल का जबाब दिए बिना मैं मालिनी की तरफ बढ़ गया। कपड़े में लिपटे माँ के कलेजे को निकाल कर मालिनी के हाथों में रख दिया। वह खून से लथपथ कलेजे को देख कर घबरा गई और उसे दूर फेंकते हुए चीख पड़ी-”ये क्या है…”?
”मेरी माँ का कलेजा है,यही चाहिए था न तुम्हें। लो हाथ में लो,अभी तो तुम्हारी दूसरी शर्त बाकी है।” चीखते हुए मैंने कहा और माँ का कलेजा उसके हाथों पर रख कर चिल्लाते हुए बोला-”आई हेट यू…आई हेट… यू…” और पलक झपकते ही अपनी कटार निकाली और उसकी गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। खून की नदी बह गई थी,उसका सर धड़ से अलग हो चुका था,पर छटपटाहट बाकी थी। उसे छटपटाते देख मेरे अंदर की छटपटाहट कम हो गई थी। सब सकते में थे…ये सब इतना जल्दी हुआ कि,सब पत्थर के बुत बन गए थे। वे सब अपना होश खो चुके थे,बस फटी-फटी आँखों से मुझे देख रहे थे और मैं उस खून की नदी को पार कर खून से लथपथ कटार लिए पुलिस स्टेशन आ पहुँचा, क्योंकि मेरी सजा अभी बाकी थी। मेरा गुनाह बहुत बड़ा था,इसलिए मेरी सजा भी बहुत भयानक होनी चाहिए थी। मेरा जुर्म इतना भयानक था कि,पुलिस भी सन्नाटे में थी। बात ऊपर तक गई। आला अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को पूरी घटना से अवगत कराया। मैंने वीडिओ कॉलिंग पर प्रधानमंत्री के सामने अपना कन्फेशन दिया। उन्होंने बहुत ही दुखी स्वर में कहा-”तुम जानते हो इस जुर्म के लिए तुम्हें फाँसी की सजा होगी!”
”जी हाँ,हुजूर मैं जानता हूँ मेरा जुर्म इतना खतरनाक है कि फाँसी की सजा उसके लिए बहुत कम है,पर मेरी आपसे विनती है कि मुझे खुलेआम फाँसी दी जाए। मैं विनती करता हूँ मुझे इतनी दर्दनाक मौत दी जाए कि,मेरी मौत पूरी दुनियावालों के लिए सबक हो।” उन्होंने मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने का आश्वासन दिया। जाते-जाते एक आखिरी बात आप सबसे कहना चाहता हूँ-”जिसे मैं प्यार समझ कर अपने अस्तित्व को मिटा बैठा,वो प्यार नहीं था दोस्त। प्यार तो वो था,जो माँ मुझसे करती थी। उनका रोम-रोम मेरे लिए तड़पता था। दिल में उठते अरमानों के भवर जाल में फँस कर हम जिसे प्यार समझते हैं,परख लेना..वो प्यार है या आपकी बर्बादी का सबब। शर्तों की सीढ़ी चढ़ कर जो प्यार हासिल हो,वो प्यार हो ही नहीं सकता। प्यार देने का नाम है,पाने का नहीं। बात चाकू की हो या शब्दों के खंजर की,उसका वार उन पर कभी नहीं करना जो आपसे बेपनाह मोहब्बत करते हैं,क्योंकि धरती पर कहीं जन्नत हैं तो माँ-बाप के चरणों में है। मेरी आप सबसे विनती है,जब भी इस घटना की याद आए मुझ पर थूक देना। मुझे हजारों गालियाँ देना,क्योंकि ये नफरत ही है जो आपके अंदर के प्यार को जिन्दा रखने में सहायक होगी। अलविदा…।”
पूरे मैदान में सन्नाटा छा गया था। साहिल का कन्फेशन समाप्त हो गया था,पर सबकी आखें पर्दे पर गड़ी थी। साहिल के कहे एक-एक शब्द ने सबको झझकोर कर रख दिया था। पुलिस के काफी कहने पर भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी थी। सबकी जुबान पर ताला था और पाँव मन-मन भर भारी थे। इस घटना की व्याख्या करने के लिए किसी के पास शब्द नहीं थे। मीडिया भी स्तब्ध थी।
निः शब्द थी पूरी प्रकृति,
स्तब्ध था आसमाँ।
फट पड़ा था धरती का सीना,
बिलख उठा था सारा जहाँ॥

परिचय-मंजू भारद्वाज की जन्म तारीख १७ दिसम्बर १९६५ व स्थान बिहार है। वर्तमान में आपका बसेरा जिला हैदराबाद(तेलंगाना)में है। हिंदी सहित बंगला,इंग्लिश व भोजपुरी भाषा जानने वाली मंजू भारद्वाज ने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। कार्यक्षेत्र में आप नृत्य कला केन्द्र की संस्थापक हैं,जबकि सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत कल्याण आश्रम में सेवा देने सहित गरीब बच्चों को शिक्षित करने,सामाजिक कुरीतियों को नृत्य नाटिका के माध्यम से पेश कर जागृति फैलाई है। इनकी लेखन विधा-कविता,लेख,ग़ज़ल,नाटक एवं कहानियां है। प्रकाशन के क्रम में ‘चक्रव्यूह रिश्तों का'(उपन्यास), अनन्या,भारत भूमि(काव्य संग्रह)व ‘जिंदगी से एक मुलाकात'(कहानी संग्रह) आपके खाते में दर्ज है। कुछ पुस्तक प्रकाशन प्रक्रिया में है। कई लेख-कविताएं बहुत से समाचार पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। विभिन्न मंचों एवं साहित्यक समूहों से जुड़ी श्रीमती भारद्वाज की रचनाएँ ऑनलाइन भी प्रकाशित होती रहती हैं। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो आपको श्रेष्ठ वक्ता(जमशेदपुर) शील्ड, तुलसीदास जयंती भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान,श्रेष्ठ अभिनेत्री,श्रेष्ठ लेखक,कविता स्पर्धा में तीसरा स्थान,नृत्य प्रतियोगिता में प्रथम,जमशेदपुर कहानी प्रतियोगिता में प्रथम सहित विविध विषयों पर भाषण प्रतियोगिता में २० बार प्रथम पुरस्कार का सम्मान मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-देश-समाज में फैली कुरीतियों को लेखनी के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत करके दूर करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-दुष्यंत,महादेवी वर्मा, लक्ष्मीनिधि,प्रेमचंद हैं,तो प्रेरणापुंज-पापा लक्ष्मी निधि हैं। आपकी विशेषज्ञता-कला के क्षेत्र में महारत एवं प्रेरणादायक वक्ता होना है। इनके अनुसार जीवन लक्ष्य-साहित्यिक जगत में अपनी पहचान बनाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा साँसों की तरह हममें समाई है। उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। हमारी आन बान शान हिंदी है।’

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