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शब्दों का खेल

डॉ.सरला सिंह`स्निग्धा`
दिल्ली
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बाबू जी,माँ का हाथ पकड़ कर बच्चों की तरह रोये जा रहे थे,-‘बीनू की माँ मुझको छोड़ कर मत जाना। देखो तुम्हारे बिना मैं जिंदा नहीं रह पाऊँगा।’
माँ की तबियत खराब होने पर बाबूजी हमेशा ही
डर जाते थे। माँ ने धीरे से आँखें खोलीं और फिर उन्हें समझाते हुए बोलीं,-‘मैं कहीं नहीं जाऊँगी जी,
आप बिलकुल परेशान मत हों।’ सभी लोगों के
चेहरे पर एक सुकून की रेखा मुस्कान बन कर
छा गई। माँ की उम्र भी अधिक हो रही थी,सो
उनकी बीमारी सभी को डरा देती थी-विशेष रूप से बाबू जी को।
माँ का विवाह बहुत ही कम उम्र में हो गया था
यही कोई बारह-चौदह साल की उम्र रही होगी। रंग साँवला,मुख पर चेचक के दाग तथा कद-काठी से भी बहुत कमजोर थीं। उस समय बिना लड़की देखे ही विवाह हो जाया करता था। माँ को भी दादा जी ने बिना देखे ही चुन लिया था। वे दादा जी के एक दोस्त की बेटी थीं। एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने दादा जी से पूछ ही लिया,-आपका बेटा मोहित तो इस साल इण्टर कर रहा है,उसके विवाह के बारे में कुछ सोचा नहीं है क्या ?’
‘सोच तो रहा हूँ कोई अच्छी लड़की मिल जाए तो विवाह के बारे में सोचा भी जाए। आपकी बेटी
भी तो अब बड़ी हो गई होगी।’
‘हाँ पर…!’
‘पर क्या ? तुम शादी की तैयारी करो। आपकी
बेटी से अच्छा रिश्ता मुझे कहाँ मिलेगा।’
उस समय लोग परिवार देखते थे कि लड़की या
लड़के का परिवार कितना सम्पन्न है। माँ एक बड़े
जमींदार परिवार से थीं तो कुछ और जाँचने की
जरूरत ही नहीं थी। उस समय लड़के की पसंद
या ना पसंद नहीं देखी जाती थी। और दो महीने के अन्दर ही विवाह भी सम्पन्न हो गया।
माँ बहुत बड़े घर से थी तो दहेज से तो पूरा घर ही भर गया। दादी इतना सारा दहेज पाकर
फूली नहीं समा रहीं थीं। धन-दौलत के साथ साथ
पाँच गाँव की जागीर भी मिली थी।
तीन साल बाद माँ का गौना आया। अब वे
सत्रह साल की हो गई थीं। बाबू जी हर तरह से
उनसे इक्कीस थे। गोरा रंग,ऊँचा कद,खूबसूरत
चेहरा साथ ही साथ वकील भी बन चुके थे। तीन
साल बाद पहली बार जब उन्होंने माँ को देखा तो
सीधे कमरे से बाहर निकल कर वे दादी के पास
पहुँचे,-‘माँ यही लड़की मेरे लिए चुनी है आपने।’
“हाँ,बेटा गलती तो हुई है कि,पहले हमने लड़की
नहीं देखी,पर यह हमारी गलती है,उस लड़की की नहीं। तुमने उसके साथ अग्नि के सात फेरे लिए हैं।’
‘जी माँ जी।’ बाबू जी बड़े ही धैर्य से दादी की बातें सुन रहे थे।
‘बेटा इसे छोड़ कर तुम्हारा दूसरा विवाह भी किया जा सकता है,इसमें भी कोई दो राय नहीं है।’ दादी ने कहा।
बाबू जी के थोड़ा और नजदीक आकर वे धीमे से
पर स्थिर भाव से बोलीं,-‘पर बेटा इस मासूम के
दिल से जो आह निकलेगी,उसके कारण तुम कभी भी चैन से नहीं जी सकोगे। तुमको कभी भी सुख नहीं मिल पाएगा। अब तुम ही बताओ कि क्या करना है ?’
बाबू जी धीमे से उठे और माँ के कमरे में चले
गए। इसके बाद कभी भी उन्होंने दादी से कोई शिकायत नहीं की। यही नहीं,कभी भी उन दोनों में किसी प्रकार की भी अनबन नहीं हुई। धीरे-धीरे सब-कुछ सामान्य हो गया। माँ बाबू जी के साथ शहर में आ गईं,वहीं पर चार बच्चों का जन्म हुआ। उनके पालन-पोषण के साथ ही साथ उनकी पढ़ाई- लिखाई सब सामान्य रूप से चलता रहा। दादी जी हमेशा ही माँ के साथ उनका सम्बल बनकर खड़ी नजर आतीं थीं।
बाबू जी वकील से जज बन गए,पर घर में राज माँ का ही चलता रहा। धीरे-धीरे सभी बच्चों की शादियाँ हो गई। दादी-दादा भी इस लोक से चले गए। माँ और बाबू जी एक-दूसरे के पूरक बने अस्सी-पच्चासी की उम्र में भी एक-दूसरे के प्रति
अगाध प्रेम लिए दिखाई देते हैं। दादी के एक
वाक्य ने उनके घर को बिखरने से बचा लिया था।
उसी घर में दादी की देवरानी के बेटे रोहित चाचा की जब शादी हुई,तो सब-कुछ ठीक-ठाक था। कुछ समय बाद चाचा जी को चाची जी में
हजार ऐब नजर आने लगे। चाचा जी को शहर
की ही एक पढ़ी-लिखी लड़की भा गई थी। उनकी
माँ ने भी उनका पूरा साथ दिया,अन्ततः चाची जी को उन लोगों ने उनके मायके वापस भेज दिया। चाचा जी ने दूसरी शादी कर ली थी।
मायके में चाची जी एक चाकर की जिंदगी ही गुजारती रहीं। वे अपने भाईयों और भाभियों के रहमो-करम पर जिंदगी गुजारती रहीं। उनके बच्चे पालना,घर के सारे काम करना और अंत में चार खरी-खोटी सुनकर भोजन नसीब होता था। उनकी आह के कारण ही चाचा जी को भी कभी सुख नसीब नहीं हुआ। हमेशा कोई न कोई परेशानी उनको लगी ही रही। बीमार पड़ने पर बच्चे व बीबी तक साथ नहीं देते थे। अगर घर के बड़ों ने कोशिश की होती तो शायद चाचा जी दूसरी शादी न करते और चाची जी का जीवन भी इतनी कठिनाइयों में नहीं गुज़रता। चाचा जी अपने बुरे कर्म के लिए पछतावे की अग्नि में सदा झुलसते ही रहे। एक माँ ने अपने शब्दों के बल पर अपने बेटे का घर टूटने से बचा लिया था तो एक माँ ने अपनी स्वार्थ लोलुपता से अपने बेटे का घर तोड़ने के साथ ही साथ एक महिला को भी असहाय बनाकर छोड़ दिया था, जबकि वे स्वयं एक महिला थीं।

परिचय-आप वर्तमान में वरिष्ठ अध्यापिका (हिन्दी) के तौर पर राजकीय उच्च मा.विद्यालय दिल्ली में कार्यरत हैं। डॉ.सरला सिंह का जन्म सुल्तानपुर (उ.प्र.) में ४अप्रैल को हुआ है पर कर्मस्थान दिल्ली स्थित मयूर विहार है। इलाहबाद बोर्ड से मैट्रिक और इंटर मीडिएट करने के बाद आपने बीए.,एमए.(हिन्दी-इलाहाबाद विवि), बीएड (पूर्वांचल विवि, उ.प्र.) और पीएचडी भी की है। २२ वर्ष से शिक्षण कार्य करने वाली डॉ. सिंह लेखन कार्य में लगभग १ वर्ष से ही हैं,पर २ पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं। आप ब्लॉग पर भी लिखती हैं। कविता (छन्द मुक्त ),कहानी,संस्मरण लेख आदि विधा में सक्रिय होने से देशभर के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख व कहानियां प्रकाशित होती हैं। काव्य संग्रह (जीवन-पथ),२ सांझा काव्य संग्रह(काव्य-कलश एवं नव काव्यांजलि) आदि प्रकाशित है।महिला गौरव सम्मान,समाज गौरव सम्मान,काव्य सागर सम्मान,नए पल्लव रत्न सम्मान,साहित्य तुलसी सम्मान सहित अनुराधा प्रकाशन(दिल्ली) द्वारा भी आप ‘साहित्य सम्मान’ से सम्मानित की जा चुकी हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-समाज की विसंगतियों को दूर करना है।

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