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हिन्दी के विकास में गाँधी जी का योगदान

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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गांधी जयंती विशेष…………..

अप्रतिहत स्वतंत्रतासेनानी,अतुलनीय देशभक्त,जन-जन के बापू राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्म दिवस २ अक्टूबर को पड़ता है। बापू हमारी परम्परा के ऐसे विरले चिंतक हैं,जो प्रकाश के साथ-साथ अंधकार को भी दूर तक देखते थे। हमारे चिंतन में जो सर्वोच्च था,वह महात्मा गाँधी के रूप में शरीर धारण कर हमारे समीप खड़ा हो गया। महात्मा गाँधी एक ज्ञान-ज्योति थे।
महात्मा गाँधी संत,महात्मा बाद में थे,पहले वे राजनीतिज्ञ थे। यदि हम उनको राजनीतिज्ञ नहीं मानते हैं,तो यह उनका अपमान ही होगा,साथ ही महात्मा गाँधी को श्रेष्ठ बौद्धिक के रूप में नहीं देखते,तो उनके साथ न्याय नहीं करेंगे। उन्होंने जिस किसी विषय को भी अपनाया,वह आज भी जन-जन के हृदय में बसा हुआ है। इसी संदर्भ में हिन्दी की भी चर्चा होती है। राष्ट्रपिता ने पारतंत्र्य के संकट से मुक्ति पाने के लिए सबसे पहली वस्तु को जो रेखांकित किया,वह भाषा थी,जो हिन्दी है। आज से एक सौ एक वर्ष पहले १९१९ में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए एक कार्यालय दक्षिण भारत के मद्रास (अब चेन्नई) में खुला,जो चार-पाँच वर्षों तक इसी रूप में चला और बाद में ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति’ का रूप ले लिया। सभा ने अपने स्थापना-काल से अब तक दक्षिण के चारों प्रांतों के करोड़ों लोगों तक हिन्दी को पहुंचाया। उनमें हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान उत्पन्न किया। आज दक्षिण भारत के सभी प्रांतों में हिन्दी समझने वाले हजारों लोगों की संख्या मिल जाएगी। आखिर यह कैसे हुआ ? गाँधीजी के सामने देश की सामाजिक समस्या थी, भाषिक समस्या थी। गाँधी जी एक ओर अंग्रेजों से लड़ रहे थे,तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त छूआ-छूत,ऊँच-नीच की भावना, भाषा की समस्या का हल निकालना चाहते थे।

गाँधीजी की इसी व्यापक दृष्टि का प्रतिफल है कि,उन्होंने दूरगामी प्रभाव से देखा और समझा कि देश के स्वतंत्र होने पर देश का शासन किस भाषा में होगा। पूर्वानुमान में वे देख चुके थे कि लगभग ७०० वर्षों के इस्लामिक शासन और ३०० वर्षों के अंग्रेजी शासन के वाबजूद अरबी-फारसी और अंग्रेजी राजभाषा होते हुए भी जनभाषा नहीं हो सकी थी। ये भाषाएं केवल शासन और शासनतंत्र की ही भाषाएँ बन सकीं। ये जन से दूर रहीं,इसीलिए द्विभाषिकता के कारण शासक और शासित २ वर्ग बने रहे। गाँधीजी इस भेद को मिटाना चाहते थे। वे शासक और शासित के बीच की खाई पाटना चाहते थे। इसलिए,वे शासकों से शासितों की भाषा में राज-काज चलाने की आकांक्षा रखते थे।

अपने आंदोलनों के दौरान जब गाँधीजी पगडंडियों से गुजरे तो एक तरह से उन्होंने देश की भाषा का भी सर्वेक्षण किया। उन्होंने गुजरात से नोआखाली और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा में पाया कि,गुजरात से निकलकर राजस्थान,पंजाब,कश्मीर,दिल्ली,उत्तर प्रदेश,बिहार,बंगाल,उड़ीसा,असम, आंध्र,कर्नाटक,केरल,तमिलनाडु में पहुंच कर गुजराती मूक हो जाती है लेकिन एक भाषा ऐसी है,जिसके सहारे हर जगह अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सकते हैंl वह भाषा है हिन्दी और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद इस देश की राजकाज की भाषा हिन्दी ही हो सकती है।
हिन्दी के प्रश्न पर हम गाँधीजी की तुलना सम्राट अशोक से कर सकते हैं। जिस प्रकार बौद्ध-धर्म का प्रचार करने के लिए सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा,उसी प्रकार महात्मा गाँधी ने दक्षिण मेंं हिन्दी प्रचार के लिए अपने पुत्र देवदास गाँधी को मद्रास भेजा। यहाँ यह बात भी द्रष्टव्य है कि महात्मा गाँधी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन में हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर मत-भिन्नता चलती रही। मत विभेद के कारण गाँधीजी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन से त्यागपत्र दे दिया। वैसे,महात्मा गाँधी अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति सन् १९१८ और सन् १९३५ में हुए। इसी से हिन्दी से उनका अगाध-प्रेम झलकता है।
देश के आन्दोलन में,राष्ट्रीय आन्दोलन में,हिन्दी की लड़ाई लड़ने में महात्मा गाँधीजी का सर्वोच्च स्थान था। १५ अगस्त १९४७ को जब भारत स्वाधीन हो रहा था,उसके एक दिन पहले महात्मा गाँधी से बी.बी.सी. का एक पत्रकार साक्षात्कार के क्रम में धड़ाधड़ अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछ रहा था और गाँधीजी उसका उत्तर हिन्दी में दे रहे थेl पत्रकार से गाँधीजी ने कहा कि लोगों से कह दो कि गाँधी अंग्रेजी भूल गया। इस बात में बहुत गंभीर मर्म छिपा हुआ है। गाँधीजी हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान बैठे थे।
महामा गाँधी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ में भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा के बारे में बार-बार आग्रह किया है। वे लिखते हैं-‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने में एक दिन भी खोना देश को भारी सांस्कृतिक नुकसान पहुँचाना है।’ राष्ट्रभाषा के बारे में उनके विचार थे-उसे सरकारी अधिकारी ठीक से समझ सकें,उसे समस्त भारत के धार्मिक,आर्थिक तथा राज्य कारोबार के व्यवहार के संबंध में आवश्यक संभव बनाना चाहिए,जिस भाषा को भारतवर्ष के अधिकाधिक लोग बोलते हैं,यह भाषा राष्ट्र के लिए सरल होनी चाहिए तथा इस भाषा का ख्याल जब करते हैं तब क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति के ऊपर आग्रह नहीं होना चाहिए।`

गाँधीजी ने १९१५ में भारत आगमन के बाद देश को आगे बढ़ाने के लिए जो रचनात्मक कार्यक्रम दिए,उनमें एक राष्ट्रभाषा प्रचार का भी था। १९१५ से १९४८(मृत्यु पर्यंत) उन्होंने हमेशा देश की एकता के लिए भी हिन्दी का उपयोग किया और कहा भी कि देश को एक बनाए रखने में राष्ट्रभाषा हिन्दी का हिस्सा भी कुछ कम नहीं है। गाँधीजी का कहना था कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूँगा है।

दक्षिण अफ्रीका में भी गाँधीजी ने अपने ‘टालस्टाय फार्म’ में बच्चों को उनकी मातृभाषाओं के साथ हिन्दी,उर्दू की शिक्षा भी दी। १९१२ में गाँधीजी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले वहाँ गए तो हिन्दुस्तानियों की सभा में गाँधीजी ने उन्हें साफ बताया कि गोखले मराठी में बोलेंगे और गाँधी उसका हिन्दी अनुवाद करेंगे।

१९०९ में गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह की लड़ाई के संबंध में विलायत गए,तब वहाँ से लौटते समय ‘हिन्दस्वराज’ नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी,जिसके १८वें शिक्षा संबंधी प्रकरण में उन्होंने हिन्दी के संबंध में लिखा-“प्रत्येक शिक्षित हिन्दुस्तानी को स्वभाषा,हिन्दू को संस्कृत,मुसलमान को अरबी,पारसी को पर्शियन तथा सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए।”

हिन्दी की स्पष्ट परिभाषा वे देते हैं कि,-“सारे हिन्दुस्तान को जो चाहिए,वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। इसको फारसी या नागरी लिपि में लिखने की छूट देनी चाहिए।”

१९१५ में भारत वापस आने के बाद अपने गुरु गोखले के परामर्श के अनुसार गाँधीजी ने देशभर का खाली पैर,रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में भ्रमण किया। पूरा वर्ष अन्य भाषा-भाषी लोगों के साथ टूटी-फूटी हिन्दी ही उनके काम आई। १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन में गाँधीजी ने अपना भाषण हिन्दुस्तानी में दिया और प्रतिनिधियों की अंग्रेजी में बोलने की माँग पर उन्होंने एक शर्त रखी कि एक साल में सबका हिन्दी जान लेना आवश्यक होगा, तब दुबारा वे अंग्रेजी में नहीं बोलेंगे। १९१७ में भारत का पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारण में निलहों के अत्याचार के विरुद्ध हुआ। इस सत्याग्रह के दौरान राजेन्द्र बाबू,कृपलानी जी जैसे उनके महत्त्व के साथी बन गए। गाँधीजी उन्हें दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई के बारे में सुनाते थे। सारी चर्चा हिन्दी में ही होती थी।

१९१७ में ही कलकत्ता में लोकमान्य तिलक की अध्यक्षता में हुई सभा में जब वे अंग्रेज़ी में बोले,तो गाँधीजी ने आलोचना करते हुए कहा कि ‘लोकमान्य तिलक अगर हिन्दी में बोलते होते तो बहुत ही लाभ होता। लॉर्ड डफरिन तथा लार्ड चेम्बर फोर्ड की तरह लोकमान्य को हिन्दी सीखने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। रानी विक्टोरिया ने भी हिन्दी सीख ली थी।’
इस तरह हम पाते हैं कि,गाँधीजी जीवन पर्यन्त हिन्दी के पक्षधर रहेl यहाँ तक कि,मृत्यु के समय उनके मुँह से हे राम ही निकला। वे हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली भाषा हिन्दुस्तानी चाहते थे और हिन्दी को देवनागरी तथा फारसी लिपि में भी लिखना चाहते थे,पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रबल समर्थक थे! काश! संविधान-सभा में राष्ट्रभाषा विचार की अवधि में वे जीवित रहते,तो भारत की राष्ट्रभाषा के बिना गूँगा कहे जाने की स्थिति नहीं होतीl राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की स्मृति को शत-शत नमनl

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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