कुल पृष्ठ दर्शन : 497

हिन्दी के योद्धा: जॉन गिलक्रिस्ट

डॉ. अमरनाथ शर्मा
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
******************************************

विशेष श्रंखला:भारत भाषा सेनानी

जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट(जन्म-१९ जून १७५९)ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान की जातिय भाषा की सबसे पहले पहचान की,उसके महत्व को रेखांकित किया,भारत में उसके अध्ययन की नींव रखी,उसका व्याकरण बनाया और इंग्लिश-हिन्दुस्तानी कोष बनाकर अध्ययन करने वालों के लिए रास्ता आसान कर दिया। एडिनबरा में जन्म लेने वाले जॉन गिलक्रिस्ट वास्तव में एक चिकित्सक थे और ईस्ट इंडिया कम्पनी में चिकित्सक बनकर १७८३ ई. में भारत आए। उस समय भारत में शासन की भाषा फारसी थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल आर्मी में रहते हुए उन्होंने देश में दूर-दूर तक यात्राएं कीं और अनुभव किया कि हिन्दुस्तानी ही इस देश की संपर्क भाषा थी। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कम्पनी कर्मचारियों को यह भाषा सिखाने में कोई रुचि नहीं ले रही थी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के अध्ययन के लिए कम्पनी से १ वर्ष का अवकाश लिया,किन्तु अध्ययन में इतना रम गए कि उसके बाद दोबारा सेवा में नहीं लौटे। इस बीच वे पटना,फैजाबाद,लखनऊ, गाजीपुर,दिल्ली आदि स्थानों पर रह। गाजीपुर और बनारस में रहकर उन्होंने नील और अफीम की खेती का व्यवसाय भी किया और अंत में हिन्दुस्तानी सीखकर ‘इंग्लिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी’ तैयार की। १७९४ ई. के बाद वे कलकत्ता आ गए और वहीं ‘हिन्दुस्तानी ग्रामर’ और ‘द ओरियंटल लिंग्विस्ट’ जैसी पुस्तकें लिखीं। कम्पनी के कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए सन् १८०० में गवर्नर जनरल मार्क्वेस वेलेजली ने जब फोर्ट विलियम कॉलेज खोला तो जॉन गिलक्रिस्ट को हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया,क्योंकि उस समय देश में वही हिन्दुस्तानी के सबसे ज्यादा जानकार अंग्रेज थे। जॉन गिलक्रिस्ट सन् १८०४ ई. तक इस पद बने रहे और उसके बाद इंग्लैण्ड चले गए। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे पेरिस चले गए और वहीं ९ जनवरी १८४१ को देहान्त हुआ। इंग्लैड में भी उन्हें यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन तथा गिलक्रिस्ट एजूकेशनल ट्रस्ट की स्थापना के लिए जाना जाता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में हिन्दुस्तानी के प्राध्यापक के रूप में भी उन्होंने कुछ दिन तक सेवाएं दी थीं।

गिलक्रिस्ट,हिन्दी और हिन्दुस्तानी में शैलीगत भेद मानते थे। उनके अनुसार ‘हिन्दुई’ या ‘हिन्दवी’ शब्द हिन्दुओं की भाषाओं के द्योतक थे। उन्होंने ‘द ओरियंटल लिंग्विस्ट’ में एक लेख लिखा था,जिसका एक अंश है,-“हिन्दवी को मैंने शुद्ध हिन्दुओं की चीज माना है,इसलिए लगातार उसका प्रयोग भारत की प्राचीन भाषा के लिए किया है,जो मुसलमान आक्रमण से पहले यहां प्रचलित थी। वह हिन्दुस्तानी का मूलाधार है। यह हिन्दुस्तानी अरबीफारसी से कुछ दिन पहले बनी हुई ऊपर की इमारत है। अंग्रेजी के लिए जैसे फ्रांसीसी और लैटिन है,वैसे ही हिन्दुस्तानी के लिए फारसी और अरबी है। अंग्रेजी का मूलाधार जैसे सैक्सन है,वैसे ही हिन्दुस्तानी का आधार हिन्दवी है।”

यदि गिलक्रिस्ट को ‘हिन्दवी’ कहने से सिर्फ हिन्दुओं की भाषा जैसा बोध होता था और ‘हिन्दुस्तानी’ कहने से मुसलमानों के योगदान का भी आभास हो जाता था,जिनकी इसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका थी तो यह स्वाभाविक ही है।

गिलक्रिस्ट के अनुसार उस समय हिन्दुस्तानी की तीन शैलियां थीं,-दरबारी या फारसी शैली,हिन्दुस्तानी शैली और हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थेl वे हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता देते थे और उसे ही ‘द ग्रैंड पापुलर स्पीच’ कहते थे,मगर उनकी हिन्दुस्तानी फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू ही थी। हिन्दवी की जो विभिन्न शैलियाँ हिन्दी क्षेत्र में प्रचलित थीं,उनसे गिलक्रिस्ट का अधिक परिचय नहीं था। दिल्ली और मेरठ के आस-पास की खड़ी बोली को ही वे ‘हिन्दवी’ कहते थे। वैसे,उन्हें सबसे अधिक प्रिय रोमन लिपि थी,जिसे वह भारतीय भाषाओं पर लागू करना चाहते थे। गिलक्रिस्ट मानते थे कि हिन्दुस्तानी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए फारसी लिपि और भाषा का ज्ञान आवश्यक है। वे मानते थे कि उनकी हिन्दुस्तानी का बहुत थोड़ा-सा अध्ययन करके यह समझा जा सकता है कि इसका आधार पुरानी हिन्दुई या ब्रज भाषा है।

गिलक्रिस्ट स्वयं अरबी और फारसी भाषाओं के विद्वान थे।उनकी भाषा नीति का व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। फोर्ट विलियम कॉलेज के उनके हिन्दुस्तानी विभाग में हिन्दुई और नागरी लिपि से परिचित पंडित बहुत कम थे। कॉलेज की व्यवस्था में ‘भाषा मुंशी’ और ‘पंडितों’ का स्थान सदा गौण रहा। इनमें भी फारसी सिखाने वाले शिक्षकों और देवनागरी सिखाने वाले शिक्षकों की हैसियत में बहुत फर्क होता था। उनके वेतन में पांच गुने तक का अन्तर होता था,किन्तु इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि फारसी लिपि और नागरी लिपि सिखाने वाले शिक्षकों के वेतन में पाँच गुने का फासला हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने के लिए था,जैसा कि कुछ विद्वान समझते हैं। दरअसल,उस जमाने में फारसी ही शासन की भाषा थी,ऐसी दशा में फारसी सिखाने वालों को अधिक सम्मान मिलना स्वाभाविक है। सरकार बहादुर के लिए देवनागरी की कोई जरूरत ही नहीं थी,फिर उसके लिए पैसे क्यों खर्च किए जाएं ? जॉन गिलक्रिस्ट की यह उदारता ही थी कि,उन्होंने लल्लूलाल जैसे पंडितों की नियुक्ति करके कुछ पुस्तकें हिन्दवी शैली में तैयार करने का आदेश दिया,फलस्वरूप ‘प्रेमसागर’ जैसी कृतियां सामने आ सकीं। लल्लूलाल ने प्रेमसागर की भूमिका में लिखा है कि,-“श्रीयुत गुनगाहक गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से सम्वत् १८६० में श्री लल्लू जी लाल कवि ब्राह्मन गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने जिसका सार ले,यामिनी भाषा छोड़,दिल्ली-आगरे की खड़ी बोली में कह, नाम प्रेमसागर धरा।” लल्लूलाल की उक्त भूमिका और ‘प्रेमसागर’ की भाषा को देखने से सहज अनुमान हो जाता है कि ‘प्रेमसागर’ की भाषा एक कृत्रिम भाषा है। लल्लूलाल ने गिलक्रिस्ट के आदेश से अपने समय की सहज सरल लोक प्रचलित भाषा से भी अरबी-फारसी के शब्दों को निकाल कर बाहर कर दिया। गिलक्रिस्ट ने जिस खड़ी बोली में लिखने का आदेश दिया था,वही हिन्दुस्तानी का भी आधार थी। उनके इस प्रयास से हिन्दुस्तानी और हिन्दवी में दूरी बढ़ी और हिन्दी भाषी जनता के लिए एक जातिय भाषा विकसित होने में व्यवधान पैदा हुआ।

दरअसल,वह दौर भारत में एक जातिय भाषा के विकास का था। वह भाषा अमीर खुसरो के समय से,बल्कि उससे भी पहले से विकसित हो रही थी। उसके विकास का आधार औद्योगिक पूंजीवाद नहीं,अपितु ब्यापारिक पूंजीवाद था। गिलक्रिस्ट स्वयं देशभर में घूमकर इसे भली-भाँति समझ चुके थे। इसी जातिय भाषा को उन्होंने हिन्दुस्तानी कहा था। अंग्रेजों ने इस हिन्दुस्तानी के सहज विकास को अपनी नीतियों से अवरुद्ध किया,जिसकी अन्तिम और दुखद परिणति आजादी के बाद हिन्दी और उर्दू के रूप में २ भाषाओं को संवैधानिक मान्यता देने के साथ हुई। इस तरह एक ही हिन्दुस्तानी जाति की दो भाषाएं कृत्रिम रूप से विकसित की गईं। महात्मा गाँधी इस विभाजन से सहमत नहीं थे,और वे आजाद भारत की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दुस्तानी’ को ही बनाना चाहते थे। संविधान सभा में इस मुद्दे को लेकर ४ दिन तक बहस चली थी। उस समय तक गाँधी जी की हत्या हो चुकी थी। देश बँट चुका था,साम्प्रदायिकाता चरम पर थी।हमारे समाज में हिन्दी और उर्दू फिल्मों का कोई विभाजन नहीं है। संगीत आज भी हिन्दुस्तानी ही है,हिन्दी और उर्दू नहीं।

सन् १८०४ में फोर्ट विलियम कॉलेज से त्यागपत्र देकर गिलक्रिस्ट इंग्लैंड चले गए और उसके एक वर्ष बाद लॉर्ड वेलेजली भी इंग्लैंड लौट गए। कॉलेज का महत्व दिन-प्रतिदिन कम होता गया और १८५४ में बंद कर दिया गया,किन्तु गिलक्रिस्ट की भाषा नीति का असर कॉलेज में भी बहुत बाद तक बना रहा और उसका स्थाई प्रभाव भारत की भाषा नीति पर पड़ा। शिवमंगल राय ने ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी की हिन्दी नीति’ विषय पर शोध किया है और लिखा है,-“ज्ञातव्य है कि इन शिक्षण संस्थानों( ओरियंटल इंस्टीट्यूट,यूनिवर्सिटी कॉलेज)में अध्ययन-अध्यापन करने वालों की भी हिन्दुस्तान की संपर्क भाषा हिन्दुस्तानी के प्रति वही दृष्टिकोण बना रहा,जो दृष्टिकोंण फोर्ट विलियम कॉलेज और और ईस्ट इंडिया कॉलेज में अध्ययन करने वालों का था,क्योंकि सबके मूल में गिलक्रिस्ट की नीति और उनकी ही प्रेरणा और निर्देशन में लिखी गई पुस्तकें ही हिन्दुस्तानी का अध्ययन करने वालों के दृष्टिकोण को स्वरूप देने की आधार थीं।

१८३४ ई. में लार्ड मैकाले (थॉमस बैबिंगटन मैकाले)भारत आया और उसने इस देश का बारीकी से अध्ययन किया। इसके बाद वह ब्रिटेन लौटा तो ब्रिटिश पार्लियामेंट में भाषण देते हुए कहा,-“मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूँ…मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया,जो भिखारी हो,जो चोर हो,इस देश में मैंने इतनी दौलत देखी है,इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएंगे,जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है,और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ कि,हम इसकी पुरातन शिक्षा-व्यवस्था,उसकी संस्कृति को बदल डालें,क्योंकि अगर भारतीय सोचने लग गए कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है,और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है,तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं,एक पूर्ण रूप से गुलाम भारत।”

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मैकाले के प्रस्ताव का समर्थन किया। इसका भारत पर व्यापक प्रभाव पड़ा और कम्पनी की शिक्षा संबंधी भाषा-नीति भी बदलीl सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार का कार्य अपने हाथ में ले लिया। १८५८ ई. में लॉर्ड मैकाले द्वारा ‘इंडियन एजूकेशन एक्ट’ बनाया गया और उसे लागू किया गया। मैकाले का उद्देश्य स्पष्ट था,उसने लिखा है,-“हमें हिन्दुस्तानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है,जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिए का काम कर सकें,जिन पर हम शासन करते हैंl हमें हिन्दुस्तानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हो,लेकिन वह अपनी अभिरुचि, विचार,नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों।”

इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी के वर्तमान रूप को आकार लेना था। कम्पनी राज और उसके बाद के कालखण्ड में हमारी भाषा नीति के निर्धारण में जिन ४ महापुरुषों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं,वे हैं-राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद,राजा लक्ष्मण सिंह,सर सैयद अहमद खाँ और भारतेन्दु हरिश्चंद्र। हिन्दुस्तानी जाति के इन चारों महारथियों में से ३ अंग्रेजों के खास में से थेl भारतेन्दु के अलावा बाकी ने १८५७ की क्रान्ति के बदले में अंग्रेजों की ओर से तीनों को ऊंचे-ऊंचे ओहदे तथा ‘राजा’ और ‘सर’ की उपाधियां मिली थीं। जाहिर है,इन तीनों का गहरा असर अंग्रेजों के ऊपर पड़ सकता था-यदि ये एकसाथ मिलकर इस देश की जनता के हित में कुछ सकारात्मक करते। ये देश की जनता के शुभेच्छु तो थे,किन्तु इनके आपसी वैचारिक मतभेद समय-समय पर जाहिर होते रहते थे और अंग्रेजों ने इसका भरपूर फायदा उठाया। गिलक्रिस्ट की अन्य पुस्तकें भी हैं,जिनमें ‘द ओरियंटल फैब्युलिस्ट ऑर दी पॉलीग्लॉट ट्रांसलेशन्स ऑफ ईसप एंड अदर ऐंशिएंट फैबल्स फ्राम दी इंग्लिश लैंग्वेज इनटू हिन्दुस्तानी…’ आदि प्रमुख हैं। हम जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट को भाषा के क्षेत्र में किए गए उनके काम के लिए स्मरण करते हैं,और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

Leave a Reply