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मानव सेवा से सुलभ हो पुण्य

सुजीत जायसवाल ‘जीत’
कौशाम्बी-प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)
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मैं हूँ कपड़ों का व्यापारी,व्यापार ही मेरा अब कर्म,
हर ग्राहक को समझूं देवतुल्य निज तेवर रखूं नर्म
तब क्या खाएगा वो घोड़ा जिसे प्रेम हो घास के संग,
पूज्य पिताजी के वचनों से समझा व्यापारिक धर्म।

मृदु भाषा,व्यवहार कुशलता व्यापार का है मूलमंत्र,
दाल में नमक-सा लाभ मिले तो उन्नत व्यवसाय तंत्र
ग्राहक को दूँ पूर्ण संतुष्टि तो मिले सहज़ आत्मसुख,
पूज्य पिता जी ने ही सिखाया ईमान का दिव्य यन्त्र।

टोपी,चश्में को बेचूँ मैं,बेचता हूँ हर एक परिधान,
जब दुकान में भीड़ हो,चोरों से रहता हूँ सावधान
थोक-फुटकर दोनों ही बेचूं मंहगाई से हुआ हूँ त्रस्त,
धर्म-कर्म में लीन रहूं,तब व्यापार में न हो व्यवधान।

मेरे दिए गए कर से सब नेताजन मौज हैं करते,
विकास का रुपया कर घोटाला अपनी तिजोरी भरते
उनके झूठे वादों व बातों से त्रस्त ही रहती जनता,
नेता के चमचे पता नहीं क्यों मेरी कविता से डरते ?

‘तालाबंदी’ में जमाखोरी का लाभ उठाते हैं व्यापारी,
क्रय दाम से वो दस गुना में बेचें,मानवता प्रति गद्दारी
मास्क,ऑक्सीजन,गोली वो बेचें मौज उड़ाए,
व्यापार मंडल से जुड़े हुए निज ढोंग से हैं देश पे भारी।

कहां रखेगा अर्जित धन को किस पर खर्च करेगा ?
निर्धन की बद्दुआ लगेगी तू तिल-तिल कर ही मरेगा।
मानव योनि में मानव सेवा से सुलभ हो पुण्य का मेवा,
निज पाप कर्म से नर्कलोक में तू निर्दयता से ही लड़ेगा॥
(विशेष-व्यापार के गुणों पर यह कविता उन जमाखोरों एवं भ्रष्ट नेताओं पर कटाक्ष है,जो ‘कोरोना’ महामारी में कभी इंजेक्शन,कभी प्राणवायु तो कभी चिता की लकड़ी के लिए भी कालाबाज़ारी कर रहे हैं। निवेदन-मानवता के हित का भी पूरा ध्यान दें।)

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