कुल पृष्ठ दर्शन : 264

`कोरोना` और आज का `युगधर्म`

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
*****************************************************************
न जाने किसने ‘धर्म’ का भाषांतरण ‘रिलीजन’ कर दिया कि,शताब्दियों से दुनिया उसी गलती को दोहराती आ रही है। धर्म एक विस्तृत अर्थपूर्ण शब्द है,जबकि रिलीजन अर्थात संप्रदाय की सीमा किसी ग्रंथ या महापुरुष के विचारों या सिद्धांतों के पालन तक सीमित है। भारतीय वांगमय में धर्म का अर्थ है कर्तव्यपालन। इसलिए इसके जितने प्रकार बना सकते हैं,बना लें,जैसे-राजधर्म, प्रजा धर्म,पिता-पुत्र का धर्म,राष्ट्रधर्म,सनातन धर्म,अध्यापक का धर्म यानि जितनी जिम्मेदारी उतने धर्म। इन्हीं प्रकारों में एक है `युगधर्म` अर्थात वर्तमान परिस्थितियों में हमारा धर्म अर्थात जिम्मेवारी क्या हो। हर युग व काल का अपना-अपना धर्म होता है। गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं -`नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥`
जैसे विदेशी सत्ता के दौरान हर भारतीय का युगधर्म था स्वतंत्रता प्राप्ति संघर्ष,उसी तरह आज `कोरोना` जैसी महामारी से लड़ाई हमारे लिए युगधर्म कही जा सकती है। वैसे तो कोरोना के मोर्चे पर भारत की अभी तक की लड़ाई सराहनीय रही है,परन्तु तबलीगी जमात प्रकरण,इसके बाद की परिस्थितियों व श्री हरि मंदिर साहिब के हजूरी रागी भाई निर्मल सिंह पद्मश्री की पार्थिव देह के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं ने ये संकेत दिया है कि,समाज युगधर्म के पथ पर कहीं न कहीं भ्रमित हो रहा है।
इस बात में संदेह नहीं कि,देश कोरोना से लड़ाई लगभग जीतने की हालत में था कि तबलीगियों के चलते यह महामारी पुन: हम पर हावी हो गई। तबलीगियों ने जिस जहालत का प्रदर्शन किया,वे शायद नहीं जानते कि उनका यह व्यवहार उस इस्लाम के ही खिलाफ है,जिसका प्रचार करने के जमात दावे करती है। प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान डॉ. कायनात बताती हैं कि स्वच्छता,दूसरों की चिंता करना,सरकार को सहयोग देना इस्लाम के जरूरी दिशा- निर्देशों में शामिल हैं।
इस्लाम में `तहारत` ऐसे अनुष्ठानों को कहते हैं कि जो किसी एक व्यक्ति या समाज की स्वच्छता और स्वास्थ्य एवं ऊर्जा में वृद्धि के लिए अंजाम दी जाती हैं। इनमें वह समस्त शैलियां शामिल हैं,जो व्यक्ति एवं समाज के स्वास्थ्य की सुरक्षा में प्रभावी होती हैं। इस्लाम में आचरण की शुद्धता,मानसिक एवं शारीरिक स्वच्छता को बहुत महत्व दिया गया है। कुरान और हदीसों की रौशनी में धर्म गुरुओं और समाज द्वारा तय इन नियमों को `शरीयत के मसले` कहते हैं। पैगम्बरे इस्लाम फरमाते हैं-`ईश्वर स्वच्छ है और स्वच्छता को पसंद करता है और गंदगी से घृणा करता है। आचरण और व्यवहार की शुद्धता,मानसिक और शारीरिक शुद्धता,भोजन सम्बन्धी शुद्धता(हलाल और हराम की अवधारणा) आदि।` शारीरिक शुद्धता हासिल करने के लिए इस्लाम में कई प्रक्रिया हैं,जिनका नियमपूर्वक पालन करना होता है। निजासत (अशुद्ध) से शुद्ध होने की प्रक्रिया को तहारत कहते हैं। वजू,गुस्ल,इस्तिंजा,यौन स्वच्छता, दन्त स्वच्छता आदि के बारे में इस्लाम में बहुत विस्तार से दिशा-निर्देश हैं,परन्तु तबलीगियों द्वारा स्वास्थ्य कर्मचारियों पर थूकना,नर्सों के आगे निर्वस्त्र होना,पुलिस वालों पर पत्थरबाजी दुनिया में इस्लाम की गलत तस्वीर पेश कर रही है। जब इस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का-मदीना, दिल्ली की जामा मस्जिद सहित सभी बड़े इस्लामिक संस्थान कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं,तो मजहब के नाम पर तबलीगियों को मनमर्जी का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
दूसरी ओर,तबलीगियों की आड़ में पूरे इस्लामिक जगत को लपेटने का प्रयास भी उतना ही निंदनीय है,जितनी कि इन जमातियों की हरकत। इसी के चलते हिमाचल प्रदेश में एक युवक को आत्महत्या तक करनी पड़ी। ऊना जिले के गांव बनगढ़ में ३७ साल के मोहम्मद दिलशाद ने अपने घर में आत्महत्या कर ली। वह गाँव वालों के तानों और सामाजिक भेदभाव का शिकार हो रहे थे। दिलशाद की गलती इतनी थी कि,वह एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आए जो तबलीगी जमात से लौटा और मस्जिद में ठहरा था। कुछ दिन पहले उन्हें घर पर ही संगरोध(क्वारेंटाइन) कर दिया गया,जहां उनकी परीक्षण रिपोर्ट नकारात्मक आई। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि,गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप या सामाजिक बहिष्कार से किसी समाज को बदला नहीं जा सकता। केवल प्यार,विश्वास व ज्ञान के सहारे ही परिवर्तन लाया जा सकता है। कुछ नासमझ तबलीगियों की हरकतों का अर्थ यह भी नहीं लगाना चाहिए कि,पूरा मुस्लिम समाज इसी सोच का धारणी हैl शिक्षित मुस्लिम समाज भी तबलीगियों की निंदा कर रहा है। इसी तरह देश के अन्य हिस्सों से भी समाचार आते रहे हैं कि,कोरोना से दिन-रात लड़ने वाले स्वास्थ्य कर्मियों,पुलिसकर्मियों व सफाईकर्मियों से समाज में ही दुर्व्यवहार हो रहा है। कुछ लोग ताली और थाली बजाने के साथ-साथ गालियां भी दे रहे हैं। घरों में संगरोध किए गए लोगों से अछूतों जैसा व्यवहार किया जाने लगा है। विदेश से लौटे भारतीयों को संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है।
अमृतसर के हजूरी रागी भाई निर्मल सिंह का कोरोना की बीमारी के चलते स्वर्गवास हो गया। वे कोई साधारण रागी नहीं,बल्कि उनका पूरा जीवन सिख पंथ का जीवंत सिद्धांत था। वे गुरु ग्रन्थ साहिब में वर्णित सभी ३१ रागों में पारंगत थे और पंथ के पांच तख्तों के साथ-साथ ७१ देशों में अपनी रसमयी व जयमयी जिव्हा से करोड़ों आत्माओं को गुरुओं,भक्तों,संतों व फकीरों की वाणी का अमृतपान करवा चुके थे। उनकी इन्हीं सेवाओं के बदले भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया,लेकिन देहांत के बाद उनके पैतृक गाँव में ही लोगों ने उनका अंतिम संस्कार होने नहीं दिया। लोगों ने अज्ञानतावश समझ लिया कि,उनके अंतिम संस्कार के समय उठने वाले धुएं से कोरोना फैल सकता है। इसी कारण उनको १२ किलोमीटर दूर एक खेत में जलाया गया,और वह भी पुलिस प्रशासन द्वारा। देश के अन्य हिस्सों से भी इसी तरह की हृदय विहीनता के समाचार मिल रहे हैं।
कोरोना को लेकर दिए जा रहे `सामाजिक दूरी` के संदेश का अर्थ दिलों की दूरी नहीं है। सावधानी जरूरी है,परन्तु मानवीय संवेदनाओं को जिंदा रखना होगा,यही युगधर्म है। तुलसीदास जी ने सही कहा है कि,-युगधर्म हर मानव के दिलों में विद्यमान होता है परन्तु माया के वश हो मानव विस्मृति का शिकार हो जाता है।` हमें आत्मस्मृति से उठ समयानुकूल आचरण करना होगा,तभी इस वैश्विक संकट पर काबू पाया जा सकेगा।

Leave a Reply