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मातु शारदे दीजिए वरदान

रमेश शर्मा
मुम्बई(महाराष्ट्र)

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मातु शारदे दीजिए,यही एक वरदानl
दोहों पर मेरे करे,जग सारा अभिमानll

मातु शारदे को सुमिर,दोहे रचूँ अनंतl
जीवन में साहित्य का,छाया रहे बसंतll

सरस्वती से हो गया,तब से रिश्ता खासl
बुरे वक्त में जब घिरा,लक्ष्मी रही न पासll

आई है ऋतु प्रेम की,आया है ऋतुराजl
बन बैठी है नायिका,सजधज कुदरत आजll

जिसको देखो कर रहा,हरियाली का अंतl
आँखें अपनी मूँद कर,रोये आज बसंतll

पुरवाई सँग झूमती,शाखें कर श्रंगारl
लेती है अँगड़ाइयाँ,ज्यों अलबेली नारll

सर्दी-गर्मी मिल गए,बदल गया परिवेशl
शीतल मंद सुगंध से,महके सभी ‘रमेशll’

ज्यों पतझड़ के बाद ही,आता सदा बसंतl
त्यों कष्टों के बाद ही,खुशियां मिलें अनंतll

हुआ नहाना ओस में,तेरा जब-जब रातl
कोहरे में लिपटी मिली,तब-तब सर्द प्रभातll

कन्याओं का भ्रूण में,कर देते हैं अंतl
उस घर में आता नहीं,जल्दी कभी बसंतll

बने शहर के शहर जब,कर जंगल का अंतl
खिड़की में आये नजर,हमको आज बसंतll

खिलने से पहले जहाँ,किया कली का अंतl
वहां कली हर पेड़ की,रोये देख बसंतl

फसलें दुल्हन बन गई,मन पुलकित उल्लासl
आशा की लेकर किरण,आया है मधुमासll

पिया गये परदेश है,आया है मधुमासl
दिल की दिल में रह गये,मेरे सब अहसासll

 

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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