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माधवी,अब तो बता दे…

अंशु प्रजापति
पौड़ी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)
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मेरा अज्ञान कई बार मुझे शर्मिंदा करता है, कुछ किस्से हैं जिनके अंत आज तक समझ नहीं पाती..
क्या हर भाव को सिर्फ एक ही कसौटी पर कसा जा सकता है ? क्यों इतनी स्वच्छंदता मानव स्वभाव में नहीं है कि बिना न्यायोचित ठहराए,बिना सही-गलत का मूल्यांकन किए हम हृदय में उमड़ते भावों को मात्र एक भावात्मक बांध में बांध सकें ? क्यों हम ओरों को सुनते समय एक न्यायाधीश की भूमिका बांध लेते हैं ? क्यों भूल जाते हैं हम अपनी की गई प्रत्येक भूल ?
मैं ओरों से असत्य कह सकती हूँ,किंतु स्वयं से असत्य किस प्रकार सम्भव है ? मुझे लगता है कि,”मेरे कृत्यों की गवाक्ष मैं स्वयं हूँ” ये याद रख पाऊं तो कभी किसी के साथ कुछ अनिष्ट कर ही न सकूँ! मुझे मनुष्य व्यवहार में जो बात सर्वथा अस्वीकार्य लगती है,वो है ‘आदर्शवादिता।’
हर व्यक्ति जो अप्रत्यक्ष रूप में,अर्थात अपने वक्तव्यों के माध्यम से स्वयं को आदर्श घोषित करता है,सबसे बड़ा पाखंडी है। ऐसा व्यक्ति दरअसल मानसिक रोग से ग्रस्त है। ख़ैर,इतनी भूमिका जिस व्यक्तित्व के लिए बांधी,उसे मैं सखी तो नहीं कह सकती किंतु मात्र परिचित थी ये कहना भी,अपितु उसका अपमान ही होगा।
‘माधवी’ नाम था उसका,बहुत गहरा साँवला रंग, छोटा कद और लड़कों जैसे कटे हुए बाल। उसकी चाल-ढाल और हाव-भाव देख कर मैं अक़्सर उसको माधव कहकर पुकारती थी। मैं नहीं जानती थी क्यों उसको लड़की होना स्वीकार नहीं था,लेकिन कुछ था जो एक क्रोध,एक विद्रोह उसके स्वभाव में था!
वह स्वयं को कभी स्पष्ट नहीं कर पाती थी,अक्सर उसके वाक्यों का अंत एक प्रश्न,एक स्मित से होता था। हर भाव को एक अधूरेपन की ओर ले जाना उसकी आदत थी। मुझे अक्सर अपनी कक्षा के बाहर लगे पीपल के पेड़ को निहारती उसकी छांव तले बैठना बहुत ही ज्यादा सुहाता था,जब भी खुश होकर मैं कहती कि मुझे यहाँ बैठना अच्छा लगता है,वो कहती अगर कोई किसी दिन इसको काट दे तो ? या फ़िर कहती स्कूल बदल जाएगा,तब कहाँ बैठेगी ? मैं खीज जाती थी,उसकी इन अटपटी बातों से…।
अब लगता है वो कच्ची वय के शब्दहीन अनुभव थे, जो कहते थे कि कुछ भी जो सुखदायक है,स्थायी नहीं है!
पूरी कक्षा में मैं ही मात्र उसकी एक सखी थी वो भी उसके अनुसार। मेरी मित्रता तो पूरी कक्षा से थी। मैं ११वीं में थी,जब माँ बीमार हुईं,इतनी ज्यादा कि, मेरी पढ़ाई बाधित होने लगी। तब एक माधवी थी जो मेरे साथ कई बार घर तक आयी मेरा हाथ बंटाने।
वो लड़कों की तरह रहने वाली,इतने सुघड़ तरीके से घर के काम कैसे करती थी,ये मेरे लिए एक और आश्चर्य का विषय था। एक और बात जो मुझे अचम्भित करती थी कि, उसको घर जाने की कभी जल्दी नहीं होती थी,न तो कभी अपने पितृगृह के प्रति उसने प्रेम परिलक्षित किया,न ही देर होने पर बच्चों में उत्पन्न स्वाभाविक भय का उसे भान था।
कुछ अलग ही रहस्य था उसका।
मुझे याद है एक दिन वो कक्षा में जब दो-तीन दिन अवकाश लेने के बाद उपस्थित हुई तो उसकी आँखें बहुत ही ज्यादा लाल,जैसे रक्त भर गया हो ऐसी लग रही थीं। बहुत पूछा मैंने,बदले में ‘बस ऐसे ही…’ कहकर वो मुस्कुरा दी थी! उसके बाद उसका विद्यालय आना धीरे-धीरे कम होने लगा। मैंने सुना कुछ छात्राओं को बात करते कि उसके माता-पिता नहीं चाहते वो पढ़े,क्योंकि वो एक बिगड़ी हुई लड़की है। नियंत्रण से बाहर है,लड़कों के साथ घूमती है…और भी न जाने क्या-क्या…।
मैं समझ नहीं पाई,सहसा ये कौन-सा रुप उसका सुन रही हूँ। जिज्ञासा शांत नहीं हो रही थी और उधर माधवी विद्यालय आ नहीं रही थी। एक अनचाहा हेय भाव मैंने उसके प्रति अपना लिया था, वो भी मात्र ओरों के विचार सुनकर। फ़िर भी चाहती थी कि माधवी आए और घोषणा कर दे जो कुछ भी चल रहा है,सब झूठ है।
इसी उधेड़बुन में लगी मैं उसके घर जा पहुँची। उसकी आँखों की लालिमा कम नहीं हुई थी,अपितु और डरावनी हो गयी थी।
मैंने पूछा-‘तेरी आँखों मे कुछ हुआ है क्या, इतनी लाल क्यों है ??’
मुझे याद है उसका भावहीन बिल्कुल निस्तेज, कांतिहीन चेहरा,सच कहूँ उस समय वो इतनी शान्त थी,जैसे जीवित ही न हो।
‘मैंने मरने की कोशिश की’ उसने कहा।
मेरा भयभीत मुख देखकर दूसरे ही क्षण मुस्कुरा दी, जैसे इशारों में बोल रही हो-बन गयी न मूर्ख…कुछ राहत महसूस हुई मुझे।
‘पागल लड़की कुछ भी बोलती है।’
मैंने कहा-‘बता न ये सब क्या सुन रही हूँ तेरे बारे में ? क्या हैं ये सब चक्कर तेरे बोल ?
अगर सच है तो कह दे,क्योंकि मैं ऐसी लड़कियों से बात करना पसंद नहीं करती।’
बदले में वही प्रश्न वाचक दृष्टि और विद्रोही प्रश्न उसने मुझ पर उछाला-‘हाँ,सच है तो ? क्या जो तूने मुझे परखा वो झूठ ?’
मैं तिलमिला गई उसके इस व्यवहार से और पैर पटकती हुई वापस घर आ गयी। उसके बाद कभी दोबारा नहीं देखा उसको। कुछ दिन बाद खबर आई कि उसने आत्महत्या कर ली है!
उसके जाने के बाद ही पता लगा कि,जिस माँ का दिन-रात वो महिमा-मंडन करती थी, वो सब काल्पनिक था। उसकी माँ तो थी ही नहीं,बहुत छोटी आयु में किसी बीमारी के चलते उनका देहांत हो गया। छोटा भाई जिसकी शरारतों का ज़िक्र करते समय उसका निश्छल भाव दिखता था,वो भी २ वर्ष पूर्व रहस्यमय तरीके से किसी बीमारी के चलते मर गया था। फ़िर माधवी किस प्रकार मुझसे ये सब साझा करती थी..? जिन लड़कों के साथ उठने-बैठने के आरोप उस पर लगाए गए थे,वो मात्र अपने खोए हुए भाई की स्मृतियों को सहेजने के प्रयास थे, जो उसके पिता और सौतेली माँ समझ ही नहीं पाए।
मैं नहीं जानती उसकी मृत्यु का सच भी…लेकिन आज सिर्फ़ अपनी अज्ञानता,अपनी उस समय की सोच पर पछतावा होता है। इस घटना के बाद मैंने स्वयं को ही वचन दिया था कि,कभी किसी को उस आदर्शवादी खोखले नज़रिए से देखने का प्रयास नहीं करूंगी। जिसे भी अपनाऊंगी,उसकी कमियां भी मेरी होंगी और खूबियां भी।
इस सबको सीखने में ज़िन्दगी की हार जो देखी है मैंने। आज भी अक्सर उससे पूछती हूँ-‘अब तो बता दे सखी तेरा रहस्य क्या था ? वही चिरपरिचित प्रश्न मेरी ओर उछाल देती है और मुस्कुरा कर कहती है.. क्या करेगी जानकर! कुछ कर सकती है तो बता ???
अब वो पीपल का पेड़ किसी के द्वारा वास्तव में काट दिया गया है…। मन चीत्कार कर कह रहा है,तू ही सही थी माधवी लेकिन अपनी बात को सिद्ध करने का कोई इतना बड़ा मूल्य चुकाता है क्या सखी ??

परिचय-अंशु प्रजापति का बसेरा वर्तमान में उत्तराखंड के कोटद्वार (जिला-पौड़ी गढ़वाल) में है। २५ मार्च १९८० को आगरा में जन्मी अंशु का स्थाई पता कोटद्वार ही है। हिंदी भाषा का ज्ञान रखने वाली अंशु ने बीएससी सहित बीटीसी और एम.ए.(हिंदी)की शिक्षा पाई है। आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन (नौकरी) है। लेखन विधा-लेख तथा कविता है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-शिवानी व महादेवी वर्मा तो प्रेरणापुंज-शिवानी हैं। विशेषज्ञता-कविता रचने में है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“अपने देेश की संस्कृति व भाषा पर मुझे गर्व है।”

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