कुल पृष्ठ दर्शन : 240

You are currently viewing मास्साब

मास्साब

अंशु प्रजापति
पौड़ी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)
*********************************************************

आज फ़िर वैसी ही ओलावृष्टि है,वही असमय की वर्षा,परंतु आज मन उतना प्रफुल्लित नहीं है। १ माह से अधिक हुआ,मैंने पिता जी को खो दिया है। ऐसे में दो शब्द मेरे मस्तिष्क में रह-रहकर गूंज रहे हैं राम-राम सा...l
यही प्रथम परिचय था मेरा उनसे। आज से लगभग १७ वर्ष पूर्व जब मेरी नियुक्ति सहायक अध्यापिका के पद पर शिक्षा विभाग में हुई। अपनी माँ के साथ प्रथम नियुक्ति हेतु अलीगढ़ से २५ किलोमीटर दूर कौरियागंज जाना पड़ा था। मैं और माँ अलीगढ़ एटा चुंगी से निजी बस पकड़ कर कौड़िया गंज पहुँचे थे। विद्यालय में बैठे उनका इंतजार कर रहे थे,तो पता लगा कि वह चाय पीने पास ही की दुकान पर गए हैं क्योंकि हाफ टाइम था। हाफ टाइम, इसी शब्द का प्रयोग किया था वहां की शिक्षिकाओं ने,मुझे हल्की-सी हँसी आ गईl कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद मैं और माँ बात कर ही रहे थे कि,वहां उपस्थित शिक्षिका बोली-“लो मास्साब आ गएl”
यह संबोधन भी मैंने प्रथम बार सुना,तो कुछ अटपटा लगा किन्तु बिना ज्यादा दिमाग लगाए मन में बैठा लिया।
६ फुट लंबा कद,सफेद किंतु सतर सफेद बड़ी-बड़ी मूछें,चेहरे पर कठोर भाव,सफेद कुर्ता-पजामा,दाहिने कंधे से लटकता हुआ उनकी लंबाई से सटीक मैच करता हुआ कपड़े का झोला और काले रंग की चमड़े की जूतियां…उनके आते ही वहाँ उपस्थित स्टाफ ने हमारा परिचय भूरे सिंह मास्साब से करवायाl राम-राम सा,कैसे आए ? उनकी कड़क दृष्टि मुझ पर और माँ पर पड़ी,क्योंकि उस समय मेरी आयु कम ही थी तो उन्हें लगा कि नियुक्ति माँ की हुई है किंतु शीघ्र ही उनकी यह गलतफहमी दूर हो गई।
मेरे प्रधान शिक्षक भूरे सिंह कौड़िया गाँव के पास जिरौली के निवासी थेl ठाकुर वाली चिर-परिचित ठसक उनके व्यक्तित्व में थी। मैं ४ वर्ष वहां रही,इस अन्तराल में मजाल है जो कभी मक्खी बराबर दाग भी उनके सफेद कपड़ों पर देखा हो,कलफ लगे झक्क सफेद कपड़े..l पूरा अलीगढ़ एक टांग पर घूम आते थे,लेकिन चाय उन्हें मेरे ही कमरे पर पीनी होती थी,आते ही कहते-लली हार गये,गला सूख गयौ चाय पिला!
रौब ऐसा कि पूरे कौड़िया गंज के पांचों विद्यालय का कोई भी शिक्षक कुछ बोल नहीं पता था,लेकिन हृदय से इतने कोमल कि,आज उनके विषय में लिखते हुए कई बार कागज भीग गया।
मेरी नियुक्ति के समय अपनी सेवानिवृत्ति के वर्ष गिन रहे थे। बहुत समय से अकेले ही विद्यालय संभाल रहे थे,जब मैं आई उन्होंने बड़ी राहत की
साँस ली,उन्हें एक सहायक मिल चुकी थी और मुझे अलीगढ़ में उनके रूप में एक पिता। कई बार जब बच्चे शाला आने में आना-कानी करते थे तो वह मुझे गाँव में उनके घर नहीं जाने देते थेl मुझसे अक्सर कहते-लली! तू नाय समझत। जे कौरियागंज गाँव ना है,सातवीं विलायत हैl पूछे बगैर कहीं मत जइयो,छम्म है के बैठ जा,समझीl
उनकी रौबदार आवाज और पिता तुल्य आदेश के समक्ष मेरा सारा साहस धरा रह जाता था। शुरू में उनका कहा गया कुछ नहीं समझ पाती थी,उनकी टूटी-फूटी लड़खड़ाती वाणी में क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द मेरे सर के ऊपर से निकल जाया करते थे,किंतु उनके डर के कारण सिर्फ हाँ करती हुई सर हिला दिया करती थी। मुझसे उन्हें जाने क्यों विशेष लगाव था,आज भी सोचती हूँ तो आँख भर आती है,शायद कोई पूर्व जन्म का ही रिश्ता रहा होगा अपनी बेटियों अंजू और मंजू के बाद मुझे ही उन्होंने सबसे ज्यादा स्नेह दिया।
कई बार तो अंजू,मंजू अपने कामों के लिए अपने अनुशासित पिता के समक्ष मेरे द्वारा पैरवी करवाती थी-“जीजी ५ किलोमीटर हमसे साइकिल नाय चलत,तुम कह देंगीं तो पापा मोपेड दिलवा देंगें!” बड़ी हँसी आयी थी मुझे,दोनों डर कर मेरे पीछे खड़ी होकर उनके उत्तर की प्रतीक्षा इस प्रकार कर रही थी, जैसे कोई अपराध कर बच्चे छुप जाया करते हैं।
जब प्रथम वेतन मेरे हाथ में आया,तो मुझे सोने की अंगूठी दिलाने अपने साथ ले गए थेl मैं आज भी उनका स्मृति चिन्ह अपनी उंगली में पहनती हूँ, पर यदा-कदा आँसू भर आते हैं।
अपने जीवन के अंत समय में सुना कि,बहू से बड़ा कष्ट पायाl एकलौता लड़का था,सब-कुछ उसके नाम कर दिया। अंजू का फोन आया था,उस समय भी यही ओलावृष्टि थी,तब मैं बिजनौर आ चुकी थी-“जीजी पापा हमको छोड़कर चले गए। आपको याद करते रहेl”
मैं शब्दहीन,विचारहीन खड़ी रह गई। उनके शब्द कानों में गूंज रहे थे,जो मेरी बदली के समय माँ से कहे थे-“अपनी लली भेज दयी है। सम्भाल लियो अब!”
कहां संभल पा रही थी मैं ? कितनी बार उनके फोन आए,हर बार एक बार अलीगढ़ आने की जिरह। मेरे अधूरे कामों को पूरा कर लेने की दुहाई-“लली तेरे फंड कौ पईसा पड़ौ है लै जा,तू तो अब बड़ी आदमिन आदमी है गई है,अब चौं आबैगी!” उनके स्वर में असल में एक उलाहना,एक प्रार्थना छुपी होती थी जैसे कह रहे हों कि एक बार तो मिल जा।
उनके देहांत से कुछ महीने पहले मेरी बात हुई थी,तब उन्होंने मुझे कहा कि-लली तू तो ऐसी गई,फिर ना लौट पाई।
मास्साब ऐसे चले गए कि,लौट नहीं पाएंगे। मन चीत्कार करता है कि,काश! एक बार फ़िर मास्साब अचानक आ जाएं और कहें-`लली हार गये,गला सूख गयौ…!!”

परिचय-अंशु प्रजापति का बसेरा वर्तमान में उत्तराखंड के कोटद्वार (जिला-पौड़ी गढ़वाल) में है। २५ मार्च १९८० को आगरा में जन्मी अंशु का स्थाई पता कोटद्वार ही है। हिंदी भाषा का ज्ञान रखने वाली अंशु ने बीएससी सहित बीटीसी और एम.ए.(हिंदी)की शिक्षा पाई है। आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन (नौकरी) है। लेखन विधा-लेख तथा कविता है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-शिवानी व महादेवी वर्मा तो प्रेरणापुंज-शिवानी हैं। विशेषज्ञता-कविता रचने में है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“अपने देेश की संस्कृति व भाषा पर मुझे गर्व है।”

Leave a Reply