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प्रकृति-संस्कृति है बिसु पर्व

तारकेश्वर महतो ‘गरीब’
बोकारो(झारखंड)
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बिसु पर्व(परब) को अनेक क्षेत्रीय नाम से भी जाना जाता है जैसे-भोगता परब,मण्डा परब,चड़क पूजा,गाँजन परब आदि। बिसु परब मधुमास के तीसरे पहर के आखरी पखवाड़े में मनाया जाता है। यह मूलतः आदिवासी,आदिम जनजाति,कुड़मि जनजातियों के परब हैं,परन्तु वर्तमान में आदिवासी समुदाय के साथ सदानों में भी प्रचलित है।
इस परब में बुढ़ाबाबा और माहामाय की पूजा-अर्चना बुढ़ाथान में होती है। बिसु परब सारहूल के नहान-खान(संजोत)दिन से ही प्रारंभ होता है। इसमें भी सखुआ पेड़ की अहम भूमिका है। सखुआ पेड़ का खूँटा-पाटा-डाँडी आदि सालभर तालाब में डुबा कर रखा जाता है और परब के प्रारंभ होते ही खोजकर बाहर (सखुआ लकड़ी का यह गुण कि पानी में न सड़ती है,न गलती है,बल्कि और अधिक टिकाऊ होती है) निकाला जाता है।
इस परब में उपवास रखने वाले पुरूष को ‘भोगता’ एंव महिला को ‘भोगताइन’ कहा जाता है। ५,७ एवं ९ दिन इसमें होते हैं,जिसकी जैसी सुविधा हो। भोगता परब के लिए मूलतः ९ दिन का होना सर्वश्रेष्ठ माना गया है। भोगता परब में भोगतिया बनने के बाद ‘तेल-हरदी’ की मनाही(बारन) रहती है। तेल-हरदी शरीर में न लगाते हैं,न ही खाते हैं। मंडा या गाँजन परब अपने पूर्वजों की स्मरण में सम्पन्न करते हैं। मंडा परब और नटुआ नृत्य का अनन्य संबंध है। ये पारम्परिक परब व नटुआ नृत्य एक-दूसरे के संपूरक हैं। मंडा और नटुआ नृत्य के मूल स्वरूप और मुख्य उदेश्यों से हम भटक गए हैं। वर्तमान समय में हम करते सब-कुछ हैं,और समझते कुछ नहीं हैं। इस महान झारखण्डी संस्कृति (परब) को खास कबीलाई गुष्टि व जनजाति ही मनाते और आस्था रखते हैं। नटुआ नाच कुड़मि-जनजाति का महत्वपूर्ण नृत्य है। इसे योद्धाओं का नृत्य भी कहा जाता है। इस नृत्य में नटुआ(नर्तक)अपने हाथों में पारम्परिक हथियार टाँगी,फरसा,भाला-तलवार आदि लेकर और कमर में गमछा एवं पैरों में घुँघरू बाँध कर नृत्य करते हैं। यह एक प्रकार से
आत्मरक्षा के लिए ‘मार्शल आर्ट्स’ है।
भोगताओं(पुरुष)द्वारा ‘फूल’ (दहकते अंगार) के ऊपर चलकर बुझाना और शरीर-जीभ में काँटा लेना इस परब की सबसे बड़ी विशेषता है। झारखंड के किसी भी परब में ऐसा पराक्रम नहीं होता है। हमें स्मरण करना चाहिए उस पीड़ा का,जब हमारे पैर में एक काँटा चुभ जाता है,तो कितना दर्द होता है, परन्तु इन बुढ़ाबाबा के भोगताओं को देखिए कि आखिर कैसे पीठ,छाती,जीभ में सुई,कील,तार आदि चुभा लेते हैं।
ऐसे ही महिलाएं खोंछा में आरवा चावल,फूल,बेल पत्र,कुछ खुरचा पैसा रखते हैं,और झूलते समय गिरा देते हैं। इसे नीचे ताक में बैठे बच्चे लूटा-लूटी करते हैं। बुजुर्गों का कहना है कि,यह बिछा हुआ पैसा शुभ होता है और किसी भी शुभ काम में साथ ले के चलते हैं,जिससे बिगड़ा हुआ काम भी बुढ़ाबाबा के आशीष से शुभ हो जाता है। बिसु परब झारखंड, उड़ीसा,पश्चिम बंगाल,केरल,तमिलनाडु आदि में बुढ़ाबाबा का सबसे कठोर परब माना जाता है।

परिचय-तारकेश्वर महतो का उपनाम गरीब हैl इसकी जन्म तारीख १५ जून १९८७ हैl इनकी शिक्षा-बी.एस-सी.(गणित) और बी.एड. हैl आप संप्रति से दक्षिण रेलवे में कार्यरत हैंl प्रकाशित पुस्तक-`खोरठा माइ माटी` हैl आपकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हैंl इनका स्थाई पता ग्राम-बाराडीह(जिला-बोकारो,झारखंड) हैl इनकी अभिरुचि-लेखन और शोध में हैl लेखन विधा-काव्य हैl

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