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पड़ोसी

अंशु प्रजापति
पौड़ी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)
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सामाजिक सम्बन्ध और दूरी स्पर्धा विशेष………..


‘सामाजिक संबंध’ जैसे ही ये शब्द पढ़े तो सबसे पहले जो मस्तिष्क में विचार आया वो था ‘पड़ोस’, और सामाजिक सम्बंधों में ‘दूरी’ शब्द का पर्यायवाची है पड़ोसी। आप सोच रहे होंगे ये भला क्या तर्क है ? पड़ोसी शब्द दूरी का द्योतक कैसे हुआ ? बताती हूँ,इस शब्द में अपनापन क्यों नहीं लगता। बहुत छोटी थी आयु में,संयुक्त परिवार था हमारा। घर में दादा-दादी,ताऊजी-ताईजी और चाचा -चाची सभी थे। पता ही नहीं था कि,कौन-सा कमरा हमारा है और कौन-सी रसोई माँ की। जहां मन किया खाया,जहाँ मन हुआ ढेर हो गए। अमूमन यही दृश्य आस-पास के घरों का भी था।
मुझे गर्व है अपनी उस आयु की अल्पज्ञता पर जो मैं ‘पड़ोसी’ शब्द से अपरिचित थी,क्योंकि उस समय हमारे घर के पास में कोई पड़ोसी नहीं रहता था, बल्कि रिश्ते रहा करते थे। मुझे याद है हमारे घर से कुछ कदम की दूरी पर ‘सरबती अम्मा’ रहा करती थीं,जो बर्फ़ बेचा करती थीं। मेरी बाल स्मृतियों में अब भी अम्मा के ऊँचे से चबूतरे पर बोरियों से ढकी बर्फ़ की सिल्लियों की ठंडक बिल्कुल ताज़ा है। बर्फ़ लेने वाले ग्राहकों को बर्फ़ के साथ अम्मा की नसीहत मुफ्त में मिला करती थी,-“अरे सुन बिटुवा! तू तो रहत नाय घर में,तेरी बहू फलाने के सामने मूढ़ उघाड़े ठाड़ी हती,हमने तोय बताय दी है। कल को कछु ऊंच-नीच है जाय तो मत कहियो…।”
बस फिर न प्रत्यक्ष गवाह की ज़रूरत थी,न सुनवाई की,उस घर में महाभारत तय थी,लेकिन उनके इस व्यवहार का कभी किसी ने बुरा नहीं माना,क्योंकि वो पड़ोसी नहीं थी..वो पूरे मोहल्ले की अम्मा थी।
न-न…किसी निष्कर्ष पर मत पहुँचिए,घरेलू हिंसा की पक्षधर नहीं हूँ,कथा अभी शेष है। इसी क्रम में हमारे घर से ठीक नीचे की तऱफ ‘गुलजारी चाचा’ की दुकान थी। दुकान क्या थी,चाचा की पूरी गृहस्थी थी। चाचा अविवाहित थे और पेशे से सुनार थे। हम बच्चों पर चाचा का विशेष स्नेह बरसता था। वैसे तो, चाचा ईमानदार थे पर फ़िर भी आए-दिन उनकी मुहल्ले की किसी न किसी बहू से कहा-सुनी होती थी। वो कहती थीं,-“चाचा पजेब उत्ती भारी नाय लग रहीं,जित्ते तोले की हमने कयी हती।” तब चाचा बड़ी चालाकी से पूरे दांव-पेंच लगा कर थोड़ा ऊपर-नीचे कर ही देते थे।
ग्राहक और दुकानदार की इस उठापठक में फायदा हम बच्चों का होता था,जैसे ही चाचा की थोड़ी भी कमाई होती वो भरी दोपहरी में अपने सिलबट्टे पर सत्तू पीस,चवन्नी की बर्फ़ मंगा हम शैतान मण्डली की दावत कर दिया करते थे। फिर भी मुहल्ले की कोई औरत नहीं बची,जिसने चाचा के हाथ के आभूषण न पहने हों।
एक और पात्र से आपका परिचय करवा दूँ-वो थे मेरे बड़े ताऊ जी के घनिष्ठ मित्र,नाम था ‘मोती’ और हम उनको भी ताऊजी कहकर ही पुकारते थे। मोती ताऊ,हलवाई की दुकान पर काम किया करते थे। बचपन में मुझे जलेबी बेहद पसंद थीं। सुबह-सुबह जब कभी अपने पिताजी या माँ से दस पैसे भी पा जाती थी तो दौड़ कर मोती ताऊ की दुकान पर पहुँच जाती थी। ताऊ जलेबी के दोने के नीचे दस पैसे का सिक्का छिपाकर दोने सहित सिक्का वापस मेरे हाथ पर रख देते थे और लाड़ वाली मुस्कान देकर कहते,-“जा भाग जा लली।”
और भी न जाने कितने रिश्ते आस-पास रहते थे-नूरजहां चाची,जिनके घर की विदेशी सजावटी चीजें हमेशा हम बच्चों के आकर्षण का केन्द्र रहीं। ‘रूपो’ जो बाल विधवा थीं,उनके कर्ज़ के तकाज़े से मुहल्ले का कोई घर बेशक़ अछूता रह गया हो,लेकिन किसी की बेटी ब्याहने आए लड़के वालों का पूरा लेखा- जोखा बुआ के पास सदा होता था और हर एक की बिटिया के कन्यादान में कुछ अंश और कभी-कभी तो पूरा खर्च बुआ का हुआ करता था। काले चाचा, जिनका जूतों का कारोबार था,जब तक हमारे परिवार में बंटवारा नहीं हुआ और पिताजी अपना हिस्सा बेचकर नयी जगह नहीं आए,तब तक यानि चौथी कक्षा तक मेरे विद्यालय के जूतों का जिम्मा चाचा ने ही उठा रखा था। चाचा बिल्कुल लिखे-पढ़े नहीं थे,लेकिन अंग्रेजी ऐसी फर्राटेदार बोलते कि,हम चकित रह जाते थे। कागज़ पर मेरे पैर का नाप बना कर जाने उर्दू में क्या लिखकर देते थे कि,उनका नौकर बिल्कुल सही नाप का जूता मुझे देकर जाता था।
बताइए,है कुछ ऐसा आपके आस-पास ? आज मेरी पड़ोसी हैं श्रीमती अग्रवाल,वो चिकित्सक हैं लेकिन किसी की रिश्तेदार नहीं,क्योंकि रात-बिरात किसी को ज़रूरत पड़ी तो रिश्तों के चक्कर में उनकी मोटी फीस मारी जाएगी। घर के सामने आज भी एक सम्पन्न परिवार है श्री गुप्ता का। बाज़ार में उनका भी एक जूतों का बहुत बड़ा शो-रूम है, लेकिन वो किसी के ताऊ या चाचा नहीं हैं,क्योंकि उनके शो-रूम के ब्रांडेड जूते किसी को गिफ्ट नहीं किए जाते।
अध्यापिका हूँ,आस-पास के बच्चे आंटी कहकर संबोधित करते हैं,क्योंकि आज तक उनको वैसा प्रेम सत्तू घोल कर पिला ही नहीं पायी। वो प्यार कहां से लाऊँ,ज्यादा से ज्यादा पाने की चाह ने हृदय को प्रेम से रिक्त दिया। मेरे महंगे २ दरवाजे वाले फ्रिज में बर्फ जमती है,पर स्वार्थ की गर्मी से रिश्तों में जज़बातों की बर्फ़ घुलकर ख़त्म हो चुकी है। यदा-कदा जब कभी कुछ देने का प्रयास करती भी हूँ तो वो ‘नो थैंक्स आंटी’ कहकर मना कर देते हैं और करें भी क्यों न! अब पड़ोस में आंटी रहती हैं चाची,ताई या सरबती अम्मा नहीं।
और अब सुनती हूँ कि,जबसे अम्मा ने मुहल्ले पर निगाह रखनी छोड़ी है,बहुएं राहत में है,लेकिन कोई भी अनजान छोटी बच्चियों से कुकर्म कर जाता है।जबसे जलेबी खिलाने वाले हाथ नहीं रहे,तबसे कहीं कोई सड़क पर लावारिस भूखा मर जाता है। जबसे बुआ की महत्ता मायकों में ख़त्म हो गई,आए-दिन कोई न कोई बेटी दहेज के लिए फूंक दी जाती है।
क्या अब भी आपको लगता है कि पड़ोसी शब्द अपना है…??

परिचय-अंशु प्रजापति का बसेरा वर्तमान में उत्तराखंड के कोटद्वार (जिला-पौड़ी गढ़वाल) में है। २५ मार्च १९८० को आगरा में जन्मी अंशु का स्थाई पता कोटद्वार ही है। हिंदी भाषा का ज्ञान रखने वाली अंशु ने बीएससी सहित बीटीसी और एम.ए.(हिंदी)की शिक्षा पाई है। आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन (नौकरी) है। लेखन विधा-लेख तथा कविता है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-शिवानी व महादेवी वर्मा तो प्रेरणापुंज-शिवानी हैं। विशेषज्ञता-कविता रचने में है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“अपने देेश की संस्कृति व भाषा पर मुझे गर्व है।”

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