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वादा किया तो निभाना..

कनक दांगी ‘बृजलता’
गंजबासौदा(मध्य प्रदेश) 
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हाल ही में मेरी इकलौती सहेली नीतू के विवाह की सालगिरह गुजरी, तो उसकी शादी से जुड़ा एक अविस्मरणीय संस्मरण याद आ गया। हुआ कुछ ऐसा था कि,जिस दिन उसकी शादी थी,उस दिन और भी शादियों का मुहुर्त था,जिसके चलते मुझे उसके गाँव जो करीब पचास-साठ किलोमीटर दूर पड़ता है,ले जाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। पहले से ही यह पता होने के कारण मैं शादी में जाने की तैयारियां करने की बजाय..न आ पाने के बहाने खोज रही थी,जो मुझे,उसे फोन करके बताने थे। मैंने उसे फोन किया और कहा-“यार मेरी तबीयत बिगड़ गई है,कैसे आऊं ?”
वह कौन-सा मानने वाली थी,बोली-“बेटा बहाने रहने दे,तुझे अच्छे से जानती हूँ। क्यूँ नहीं आ रही है ये बता ?”
“ओह तेरी,भांडा फूट गया। अच्छा सुन,कोई लेकर आने वाला नहीं है यार।”
“और ये अब बता रही है। पहले बताती,किसी को भेज देती यहाँ से..! रुक देखती हूँ किसी को।”
“अरे,तू रहने दे न यार। मेरी तबीयत सच में ठीक नहीं है। काफी लेट भी हो गया है और मैंने शॉपिंग भी नहीं की।”
मैंने इतना कहा ही था कि,वह अचानक गुस्से में माँ चंडी बन गई। उसके मुँह से जले हुए अरमानों के अंगारे बरसने लगे। वैसे वह कभी गुस्सा नहीं होती थी,पर उस दिन…बस। गुस्सा करते-करते उसने मुझे अपना किया वह वादा भी याद दिलाया,जो मैंने हमारी आखिरी मुलाकात के दौरान उससे किया था। करीब पांच-छः साल पहले वह हमारी आखिरी मुलाकात थी,दोनों की आँखों में आँसू थे। डर था, शायद भविष्य में कभी नहीं मिल पाएंगे। कौन लेकर आएगा ? पापा-भाई काम के चलते सुनते नहीं और अकेले सफर करने की इजाज़त ही कहाँ है। जब हम आखिरी बार गले मिल रहे थे तब उसकी छोटी बहन ने पूछा था,-“क्या दीदी अब कभी यहाँ नहीं आओगी!” वही सवाल जैसे नीतू की आँखें भी दोहरा रहीं थीं।
उस समय मैंने उससे वादा किया था कि-“तेरी शादी में हम जरूर मिलेंगे,चाहे कुछ भी जो जाए…कैसे भी करके,पैदल चलकर आना पड़े तब भी।”
आज वह मुझे अपना वही वादा याद दिला रही थी।
“तू भूल गई न! जेंटलमैन प्रोमिस किया था तूने कि जब भी मेरी शादी होगी तू आएगी। सॉरी,तू बोल रही हूँ तुमको,पर अभी बहुत गुस्से में हूँ मैं। मुझे पूरा यकीन था कि तुम आओगी,आ जाओ यार प्लीज़… (उसका गुस्सा अब ठंडा पड़ने लगा था।),नहीं तो मैं शादी नहीं करूंगी।”
“तू ऐसा नहीं कर सकती,सब लोग हैं वहां।” तभी बड़ी मम्मी (मैं उसकी माँ को यही कहकर संबोधित करती हूँ।) ने उससे फोन ले लिया और कहने लगीं- “आ जाओ,चाहे कितना भी लेट हो। नीतू बहुत दुखी है और तुम दोस्त हो,तुम्हें तो यहां दो दिन पहले आना था। कब से फोन कर रहे हैं,उसने इसलिए दो कार्ड भी भेजे थे,कि मम्मी ऐसे नहीं आएगी..सुबह से पचास बार पूछ चुकी है मम्मी-बृजलता आयी क्या ? दीदी और बाकी सब भी नाराज़ हैं तुमसे।
जाने दो मम्मी वो भूल गई।” उसकी आवाज़ में भारीपन आ गया था,गला भर आया उसका। और यहां फोन की दूसरी ओर मैं रोए जा रही थी। कि.. क्यों मैंने बहाने बनाने का सोचा! मैं जाने का भी तो सोच सकती थी न। मैंने सोचा ही नहीं था,उसे इतना दुःख होगा। मैंने तो सोचा था वो गुस्सा हो जाएगी और कहेगी कि,ठीक है मत आ। गुस्से में फोन काट देगी। फिर कुछ दिनों बाद मैं मिलकर उसे मना लूंगी, इतनी अच्छी सहेली है मेरी,पक्का मान जाएगी,परंतु जिस तरह बात ने मोड़ लिया,यह मैंने नहीं सोचा था। उसने मुझे आखिरी चेतावनी दी,अगर मैं वरमाला से पहले शादी में नहीं पहुंची तो वह वापिस आते ही सबसे पहले मेरा नम्बर मिटा देगी अपनी फोन लिस्ट से,साथ ही आज के बाद कभी बात नहीं करेगी। जानती थी वह ऐसा कर सकती है,मेरी ही तरह जिद्दी है।
मैंने फोन रखते ही सबसे पहले पापा को फोन किया। उन्होंने कहा कि वह बहुत व्यस्त हैं और रात ग्यारह से पहले नहीं आ पाएंगे। मैं कुछ न कह सकी आगे…बस सुनकर फोन रख दिया। इसके पहले मैंने कभी खुद को इतना बेबस-लाचार नहीं पाया था। सच कहूं तो आवाज भी नहीं निकल रही थी मुँह से। बस आँसू ही थे,जो रुक नहीं रहे थे। जब कुछ देर हुई तो मुझे याद आया कि नीतू की जिनसे शादी होने जा रही है,वह मेरे छोटे भाई विश्राम के दोस्त हैं। उन दोनों ने साथ में कम्प्यूटर से संबंधित कोर्स किया था। मतलब दोनों भाई संग्राम व विश्राम शादी में जरूर शामिल होंगे। मैंने भाई को फोन लगाया, पूछा-“क्या वो मुझे लेने बीना से बासौदा तक आ सकते हैं ?
“हाँ दीदी,आ तो जाऊंगा पर अभी मुझे एक शादी में और जाना है,उसके बाद उस शादी में चल पाऊंगा.. कह नहीं सकता कितनी देर लगे।” जैसे कान ही सुन्न हो गये मेरे तो।
“आखिरी उम्मीद थी भाई आपसे! प्लीज,ले चलो बहुत ही जरूरी है। पापा भी व्यस्त हैं..और आप! मेरी बात खराब हो जाएगी प्लीज़…फिर जिंदगी में भले ही कोई बात न मानना मेरी।”
“अरे दीदी..,सुनो आप परेशान न हो। मैं अभी बताता हूँ आपको,करता हूँ कुछ।” सुनकर कुछ तसल्ली हुई। अब बात शत-प्रतिशत ‘न’ से आधी-अधूरी ‘हाँ’ तक आ गई थी। मैंने फोन रख दिया और कॉल-बैक का इंतज़ार करने लगी। थोड़ी देर बाद उन्होंने फोन किया,कहा-“चलिए दी,मैं चल रहा हूँ बस आते-आते साढ़े-नौ हो सकते हैं,कोई परेशानी तो नहीं ?”
धन्यवाद भगवान जी,सब ठीक कर दिया नहीं तो ये मुझे सारी उम्र माफ नहीं करती। हाथ-मुँह धोकर जाने की तैयारी करने से पहले भगवान जी का धन्यवाद करने पूजा स्थल गई। इतने मैं फिर कमरे से फोन की रिंगटोन सुनाई दी,भागकर देखा इस बार पापा का फोन था। कह रहे थे पन्द्रह मिनट में तैयार हो जाओ,आ रहे हैं,पर वो मुझे छोड़कर जल्दी घरवाजे से ही वापिस आ जाएंगे। उनके पास समय नहीं है। मैंने बताया संग्राम भाई जा रहे हैं,आप रहने दो।
“ठीक है,अच्छे से सावधानी से जाना दोनों,रात है। और कोई अच्छा-सा उपहार ले लेना।”
उपहार! अरे याद आया मैंने तो शॉपिंग ही नहीं की अभी। लो एक और सर दर्द। पहनने के लिए एक ड्रेस लेनी है,पार्लर जाना है,और उसके लिए भी कोई यादगार वस्तु उपहार में लेनी है।
“अच्छा सुन,मैं आ रही हूँ। कुछ चाहिए तुझे तो बता क्योंकि मार्केट होते हुए आऊंगी।” अब जिसके लिए ये सब हुआ उसे भी तो खुशखबरी दे दूं।
“बस देवी,तू ही आजा(हँसते हुए)।
“बड़ी मम्मी से पूछ ले,कोई सामान रह गया हो! बाकी तुझे आकर देखती हूँ।” अगली आवाज उसके बाद बड़ी मम्मी की थी। बताया कि कोई सामान नहीं रहा है,बस एस्ट्रा पिन की पैकेट और गर्मी के कारण पसीने से मेक-अप बह रहा है। इसके लिए कुछ हो तो..लेती आना।
भाई का फोन आया। पांच मिनट में पहुंच रहा हूँ, तैयार हो आप! मैंने बताया हाँ लगभग-लगभग,बस कुछ मार्केट का काम है। डर लग रहा था शायद वह मना कर देंगें,दिनभर से शादियां अटेंड करते भाग रहे हैं। फिर मुझे लेने यहां तक आए हैं उल्टा सफर करके,अब वापिस भी..,पर भाई ने हाँ कर दी।
खरीददारी ख़त्म होते ही हम बिना देर किए गंतव्य की ओर निकले। रात के करीब साढ़े दस हो रहे थे। हम शहर की सीमा से दूर हाइ-वे पर जा लगे। मन थोड़ा-सा अशांत था। सहेली से मिलने की खुशी भी थी,साथ ही ज्यादा देर हो जाने,पार्लर न खुलने से कुछ सामान छूट गया था,उसका खेद भी था। तभी कुछ दूर जाकर भाई ने बताया,-“दीदी लगता है हम रास्ता भटक गए हैं।”
“हाँ,शायद लग तो रहा है।” मैंने जबाव में कहा। एक तो अंधेरी रात दूसरा पांच-छः साल बाद इस रास्ते से जाना हो रहा था,भटकना बड़ी बात नहीं थी। ग़ज़ब तो तब हुआ जब गूगल चाचू भी नहीं बता सके कि हम लोग हैं कहां। जितना याद है उस हिसाब से हम हाइ-वे से अलग किसी सिंगल-वे पर लग चुके थे।
तभी फोन की रिंगटोन बजी। पापा की आवाज थी, पूछ रहे थे तुम लोग पहुंचे के नहीं..! वह अभी-अभी घर पहुंचे हैं और खाना खा रहे हैं। मैंने उन्हें रास्ते में खो जाने वाली नहीं बताई। कहा,बस पहुंचने वाले हैं। कारण,वह परेशान होते,साथ ही डांट लगाई जाती सो अलग। और यहां तो अभी मैं स्वयं ही ख़्यालों में खोई थी,परन्तु यह समय यादों में खोने का नहीं बल्कि समझ से काम लेने का है,मेरे मस्तिष्क ने मुझे समझाया।
मैंने आसपास देखा। दूर एक छोटा गाँव जैसा दिख रहा था।
“भाई,क्या हम उनसे जाकर रास्ता नहीं पूछ सकते ?”
“नहीं दी,ऐसे राह चलते कभी किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं नहीं करता कभी। आप रुको,यहीं पास के गाँव में एक दोस्त रहता है मेरा। उससे पूछता हूँ फोन करके।” उन्होंने ठीक वैसा ही किया। भाई के दोस्त द्वारा बताए गए रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद हम फिर से हाई-वे पर लग गए। एक गहरी साँस लेते हुए मैंने संग्राम भाई से कहा-“भाई बारह बजने वाले हैं।” उन्होंने कहा कि हम बहुत करीब हैं अब,आप चिंता न करें। दस मिनट में घरधनी के दरवाजे पर होंगे हम,आपकी सहेली के घर…मैं मन में मुस्करा दी।

परिचय-कनक दाँगी का जन्म १० मार्च १९९५ में वृन्दावन(मथुरा,उ.प्र.)में हुआ है। निवास वर्तमान में मध्य प्रदेश के विदिशा जिला स्थित गंजबासौदा में है। इनका उपनाम ‘बृजलता’ है। इन्होंने बी.ए.(अर्थशास्त्र) किया है,तथा एलएलबी में अध्ययनरत हैं। कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र लेखक व व्यक्तिगत परामर्शदाता हैं। बृजलता के लिए वह हर वह वस्तु प्रेरणा पुंज है जो सोचने पर विवश कर दे। इसमें कुदरत से चींटी तक शामिल है। सुश्री दाँगी की लेखन विधा-कविता, कहानी,उपन्यास औऱ लेख आदि है। काव्याग्रह (कविता संग्रह-२०१६) प्रकाशित हो चुका है तो,स्थानीय तथा प्रदेश के पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है। आगामी कहानी संग्रह औऱ उपन्यास प्रकाशाधीन है। आप चित्रकारी सहित नौ भाषाओं के ज्ञान,अंकशास्त्र और ज्योतिष एवं समस्त धर्म शास्त्रों का अध्ययन रखती हैं।  अखिल भारतीय दाँगी क्षत्रिय गौरव सम्मान-२०१७ से आप सम्मानित हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य आत्मिक शांति,समाज में बदलाव की आशा व साहित्य की ओर युवा वर्ग का रुझान जागृत करना है। 

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