विनय कुमार सिंह ‘विनम्र’
चन्दौली(उत्तरप्रदेश)
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जनवरी में जाड़े का अहसास देखो,
अंगीठी है किसके जरा पास देखो
शरीरों पे कपड़ों का मेला सजा है,
खूंटी पे देखो बस हैंगर टंगा है।
गरीबों को देखो निवाला नहीं है,
महल गाडियां क्या दोशाला नहीं है
आंतों में सूखे से दाने खड़े हैं,
सर्दी के कारण ठिकाने पड़े हैं।
राखों पे काली-सी कुतिया पड़ी है,
बस स्वांस को थामे यूँ ही खड़ी है
दधीचि की हड्डी का ताना खड़ा है,
अपनों की चिंता में बस वो पड़ा है,
सूरज छिपा है गगन में ये देखो,
सर्दी के डर से चमन में ये देखो
उसकी भी आंगों को नश्तर चुभा है,
गर्मी का गुंडा कहाँ पे छुपा है।
सत्ता की भूखी-सी कुतिया खड़ी है,
वोटों की गिनती में उलझी पड़ी है,
मौसम की उस पे कहाँ मार देखो,
सदा चल रहा उसका व्यापार देखो।
चाँद-तारों से अब मैं अगन मांग लूंगा,
हर ले जो पीड़ा तपन मांग लूंगा
जब भी निराशा ने आवाज दी है,
अभावों में अभावों ने ही साथ दी है।
धरा का निराला ये दस्तूर देखो,
गर्मी व जाड़ों को मगरुर देखो।
देखो ये दुनिया की पावन घटा को,
जीने को मजबूर हर एक इंसा को॥