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आत्मनिर्भर भारत ‘बिना हथियार का युद्ध’

डॉ. नीलम महेंद्र
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
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आजकल देश में सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर चीन को बहिष्कृत करने की मुहिम चल रही है। इससे पहले ‘कोविड-१९’ के परिणामस्वरूप जब देश की अर्थव्यवस्था पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभाव सामने आने लगे थे तो प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का मंत्र दिया था। उस समय यह मंत्र देश की अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक लाभ पहुंचाने की दृष्टि से उठाया गया एक मजबूत कदम था जो आज भारत-चीन सीमा विवाद के चलते बहिष्कार चायना का रूप ले चुका है, लेकिन जब तक हम आत्मनिर्भर नहीं बनेंगे,चीन के आर्थिक बहिष्कार की बातें खोखली ही सिद्ध होंगी। इसे मानव चरित्र का पाखंड कहें या उसकी मजबूरी कि एक तरफ अंतरजाल के विभिन्न माध्यम चीनी समान के बहिष्कार के संदेशों से पटे पड़े हैं, तो दूसरी तरफ ई-कॉमर्स की वेबसाइट्स से भारत में चीनी मोबाइल की रिकॉर्ड बिक्री हो रही है। जी हाँ,१६ जून को हमारे सैनिकों की शहादत से सोशल मीडिया पर चीन का बहिष्कार करने वाले संदेशों की बाढ़ ही आ गई थी। चीन के खिलाफ देशभर में गुस्सा था तो उसके एक दिन बाद ही चीन अपने मोबाइल की सेल लगाता है और कुछ घंटों में ही वे बिक भी जाते हैं।
अगर भारत के मोबाइल बाजार में चीनी हिस्सेदारी की बात करें तो आज की तारीख में यह ७२-७५ के बीच है और यह अलग-अलग कम्पनी के हिसाब से सालभर में ६ से ३३ फीसदी की वृद्धि दर दर्ज करता है। सिर्फ आम आदमी ही चीनी समान के मायाजाल में फंसा हो,ऐसा नहीं है। देश की बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी चीन के भ्रम जाल में उलझी हुई हैं,क्योंकि यहाँ सिर्फ मोबाइल बाजार की हिस्सेदारी की बात नहीं है। टीवी व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से लेकर गाड़ियों के मोटर पार्ट्स,चिप्स,प्लास्टिक,दवा कम्पनियों द्वारा आयातित कच्चे माल का बाजार भी चीन पर निर्भर है। यही कारण है कि चीन से सीमा पर विवाद बढ़ने के बाद जब भारत सरकार ने चीनी समान पर किराया दर बढ़ाने की बात कही तो मारुति और बजाज जैसी कम्पनियों को कहना पड़ा कि सरकार के इस फैसले का भार ग्राहक की जेब पर सीधा असर डालेगा।
इन परिस्थितियों में जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं तो मंज़िल काफी दूर और लक्ष्य बेहद कठिन प्रतीत होता है। इसलिए अगर हम आत्मनिर्भर भारत को केवल एक नारा बना कर छोड़ने के बजाए उसे यथार्थ में आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं तो हमें जोश से नहीं,होश से काम लेना होगा। इसके लिए सबसे पहले हमें सच को स्वीकार करना होगा और सत्य यह है कि आज की तारिख में विज्ञान और तकनीकी ही चीन का सबसे बड़ा हथियार है,जिसमें हम चीन को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं। यानी हम बिना हथियार युद्ध के मैदान में कूद रहे हैं तो फिर जीतेंगे कैसे ?
दरअसल युद्ध कोई भी हो,उसे जीतने के लिए अपनी कमजोरियाँ और ताकत दोनों का पता होनी चाहिए। अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी क्षमताओं का दोहन। यह सच है कि आज की तारीख में विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी कमजोरी है,लेकिन भारत जैसे देश में क्षमताओं और संभावनाओं की कमी नहीं है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। हमारी सबसे बड़ी ताकत है हमारी कृषि और हमारे किसान दोनों को ही मजबूत बनाने की जरूरत है। सरकार ने इस दिशा में घोषणाएं भी की हैं,लेकिन भारत की अफसरशाही का इतिहास देखते हुए उन्हें क्रियान्वित करके धरातल पर उतारना सरकार की मुख्य चुनौती होगी। हमारी दूसरी ताकत है हमारी सदियों पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि,जिस देश में इस पूर्णतः वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का उद्भव हुआ, उसी देश में उसे यथोचित सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया,पर वर्तमान ‘कोरोना’ काल में इसने समूचे विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया है। इस मौके का सदुपयोग कर आयुर्वेद की दवाइयों पर सरकार अनुसंधान को बढ़ावा देकर आयुर्वेदिक दवाओं को एक नए और आधुनिक स्वरूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करें। इसी प्रकार आज जब पूरा विश्व प्लास्टिक के विकल्प ढूंढ रहा है तो हम पत्तों के दोने-पत्तल बनाने के लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर उनकी निर्यात योग्य गुणवत्ता बनाकर ग्रामीण रोजगार और देश की अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूती दे सकते हैं। हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विरासत भी हमारी ताकत है। अभी हमारे देश में विदेशी अधिकतर भारतीय आध्यात्म से प्रेरित होकर शांति की खोज में आते हैं लेकिन अगर हम अपने देश के विभिन्न राज्यों को एक पर्यटक स्थल की तरह दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं तो हमारी धरती ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाएगी।
अब बात करते हैं कमजोरियों की तो, इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान-तकनीक को नजर अंदाज करके विश्वगुरु बनने की बात करना बेमानी है। विश्व के किसी भी ताकतवर देश को देखें उसने इस दम पर ही उस ताकत को हासिल किया है। हम दावे जो भी करें,पर हकीकत यह है कि भारत इस क्षेत्र में इन देशों के मुकाबले बहुत पीछे है। हाँ,यह सही है कि पिछले तीन-चार सालों में हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं लेकिन इन देशों से अभी भी हमारा फासला काफी है। आवश्यक है कि भारत में अनुसंधानों और वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन दिया जाए,प्रौद्योगिकी पर शोध को केन्द्रित किया जाए। शिक्षा नीति में ठोस बदलाव किए जाएं,ताकि महाविद्यालय से निकलने वाले युवाओं के हाथों में खोखली उपाधियों के बजाए दिलों में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो। उनकी रुचि शोध-अनुसंधान-खोज करने की ओर बढ़े और हमें अधिक से अधिक प्रतिभावान युवा वैज्ञानिक मिलें। और यह तभी संभव होगा जब हमारे देश की योग्यता से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाएगा,जब प्रतिभावान युवा आरक्षण एवं भ्रष्टाचार के चलते अवसर ना मिल पाने के कारण विदेशों में चले जाने को मजबूर नहीं होंगे। अगर हम इन दिशाओं में सोचेंगे तो कम से कम पांच-छ साल में हम विजय प्राप्त कर के आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार कर पाएंगे।

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