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धीरे-धीरे भारतीयता भी छीन रही अंग्रेजी

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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हिंदी दिवस विशेष…..

नई शिक्षा प्रणाली ने मातृभाषा की आशाएँ जगा दी हैं। उसे महसूस होने लगा है कि अच्छा समय आ रहा है। शताब्दियों से निराश और कुंठित मातृभाषा अपने बच्चों को दोराहे पर खड़ा देख कर प्रतीक्षा कर रही है कि वे सही रास्ते पर कदम रखें। उनके सामने दो रास्ते हैं। एक भारतीय संस्कृति का और दूसरा पश्चिमी संस्कृति का है। हमारे बच्चे दूसरे रास्ते की ओर आकर्षित हैं,और उसी पर तीव्र गति से कदम बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि वे जिस रास्ते पर बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं,वह उनका है ही नहीं। उस रास्ते पर वे केवल अनुकरण करते हैं और प्रगतिशील दिखाई पड़ने वाले लोगों के पीछे-पीछे भागते हैं। उन्हें आगे निकलने का रास्ता नहीं मिल सकता। जिस प्रकार बरगद की छाँव में उपजने वाला पौधा बरगद से बड़ा कभी नहीं हो पाता,उसी तरह उस दूसरे रास्ते पर हमारे प्रतिभाशाली बच्चे खोते अधिक हैं,पाते कम हैं।
इस रास्ते पर ले जाने वाली हमारी शिक्षा नीति ही है,जिसने मातृभाषा की अवहेलना कर अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा देना प्रारम्भ कराया। अँग्रेजी माध्यम ने न केवल अँग्रेजी पढ़ाई है,बल्कि धीरे-धीरे हमारी भारतीयता भी छीन ली है। आज बच्चे पश्चिमी खेल, पश्चिमी पहनावे,आहार,संगीत,फिल्म और पश्चिमी जीवन शैली पसन्द करते हैं। यहां तक कि उन्हें भारतीय संस्कृति वाले अपने माता-पिता भी पसन्द नहीं आते। शिक्षा पूरी करने के बाद वे विदेशों की ओर भागते हैं,जैसे उनके देश में उनके लिए कुछ है ही नहीं,जबकि उन्हें ये बतलाने वाला ही कोई नहीं है कि उनके अपने रास्ते पर उनके लिए कहीं कोई अवरोध नहीं है। उनका रास्ता सीधा और साफ है,जिस पर उन्हें केवल अपनी संस्कृति को साथ लेकर दौड़ना है। उसमें प्रगति और विकास की अनगिनत सम्भावनाएँ हैं। उस पर उनका अपना स्वतंत्र चिन्तन है,उनके अपने निजी अधिकार और कर्तव्य हैं। परिवर्तन लाने के लिए स्वतंत्र कदम उठाने के प्रावधान हैं। उन्हें अपनी सरकारों को बदलने का अधिकार है। यह उनका अपना देश है,वे इसे जैसे चाहें संवार सकते हैं,परन्तु वे बहुत दूर निकल चुके हैं।
हमारे गुरुकुलों का अवसान हो चुका है। वे गुरुकुल जहां धर्म और नीति की शिक्षा सर्वोपरि थी,जहां संयम-नियम,मनसा,वाचा, कर्मणा से कर्तव्यनिष्ठा सत्यवादिता और सद्चरित्रता की तपोभूमि पर शिक्षा प्रदान की जाती थी। जहां न स्वार्थ होता था,न अपना- पराया होता था,न जाति-पांति होती थी और न किसी प्रकार का आर्थिक भेदभाव होता था। गुरु पर समाज का अटूट विश्वास था। समाज के विश्वास को पाना गुरु का धर्म था। अँग्रेजी ने धीरे-धीरे ये सब छीन लिया। बोर्ड की परीक्षाओं में प्रति वर्ष लाखों की संख्या में छात्रों का हिन्दी विषय में अनुत्तीर्ण होना जितना शर्मनाक है,उतना ही दु:खद और चिन्ताजनक है।
अँग्रेजी हमारे विकास की गति में वृद्धि करने से अधिक हमारी संस्कृति को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने का षडयंत्र है। हमारे ही कंधों पर बंदूक रख कर हमारे ऊपर प्रहार किए जा रहे हैं। यह एक खौफनाक नाटक है,जिसे देख कर हम डरे हुए हैं और बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए आँख बंद कर कुछ भी किए जा रहे हैं ।
बड़ा दु:ख होता है,जब हिन्दी के वरिष्ठ कवियों,लेखकों और साहित्यकारों के निराशाजनक वक्तव्य सुनती हूँ। वे लेखन से पलायन कर रहे हैं। उनके सामने घना अँधकार है। अँग्रेजी ने उनके पाठक छीन लिए हैं। उनकी पुस्तकें कौन पढ़ेगा ? बच्चे तो नर्सरी से ही अंग्रेजी पढ़ते हैं। न वे हिन्दी जानते हैं,न ही उनकी कोई रुचि हिन्दी पढ़ने में है।
इसमें दो राय नहीं है और परोक्ष सत्य यही है कि अब हमारे घरों में पुत्र और पुत्रवधूओं के रूप में अंग्रेजों का वास हो चुका है।
आज टी.वी. चैनलों पर रामानंद सागर की ‘रामायण’ का प्रसारण बुजुर्गों का हृदय जीत चुका है और वे उसे बार- बार देख कर भी तृप्त नहीं होते,परन्तु हमारे बच्चे प्रसारण प्रारम्भ होते ही कक्ष से बाहर निकल जाते हैं। यह हल्के में लेने का विषय नहीं है। सरकार द्वारा इस प्रकार का सर्वे होना चाहिए जिससे हमारी नई पीढ़ियों की भटकती अभिरुचियों का पता लग सके।
गाँव-गाँव में अंग्रेजी विद्यालय भोले-भाले लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखा रहे हैं। ग्रामवासी यह कहने में गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके बच्चे कान्वेंट में या अंग्रेजी शाला में पढ़ते हैं। इसके आगे वे कुछ नहीं जानते।
इधर,शहरों के बड़े विद्यालय बच्चों की पढ़ाई से अधिक प्रबंधकों की कमाई का साधन हैं।
हिन्दी के साहित्यकार,हिन्दी के प्रकाशक, हिन्दी के अध्यापक और हिन्दी के पाठक आज सभी के रास्ते अंग्रेजी ने अवरुद्ध कर दिए हैं। सभी मातृभाषा के साथ हो रहे इस अन्याय को झेल रहे हैं। उनमें इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस नहीं है,क्योंकि उनके अपने बच्चे ही अंग्रेज बन रहे हैं और माता पिता स्वयं उन्हें अंग्रेज बनाने पर मजबूर हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में अंग्रेजों का शासन हो या हमारे ही देशवासी अंग्रेज बन कर शासन करें, बात एक ही है। आज देश में सभी बड़े ओहदों की परीक्षाएँ एवं साक्षात्कार अंग्रेजी में होते हैं। हमारे बच्चों की जीविका अंग्रेजी में निहित कर दी गई है। ऐसा लगता है कि हमें भविष्य में हिन्दी के लिए भी आरक्षण मांगना होगा।
अब अपने ही घर में हिन्दी का यह पतन असह्नीय होता जा रहा है। जिन्होंने अंग्रेजी नहीं पढ़ी,वे मूक हो गए हैं। अपने ही बच्चों से वे खुल कर बात नहीं कर पाते। वे शर्मिन्दगी और निराशा के शिकार हो रहे हैं।

नई शिक्षा प्रणाली इन सभी समस्याओं का समाधान लेकर आएगी,ऐसी आशा है। हमें प्रकाश की किरणें दिखाई देने लगी हैं।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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