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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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‘आत्मजा’ खंडकाव्य से भाग -१६………………
बेटी देख चित्र ये सारे,
पढ़ इनके जीवन स्तर को
कोई हो पसन्द जो तुझको,
इनमें से चुन अपने वर को।

सुनी पिता की बात धैर्य से,
पर अधीर हो गयी स्वयं वह
यह कैसी दुविधा है आई,
अपने पर ही हो निर्मम वह।

यह कैसा बाजार लगा है,
जिसमें वर आये बिकने को
कोई एक खरीदूँ आकर,
उसकी ही पत्नी बनने को।

मैं ग्राहक कितनी हूँ सस्ती,
जो विक्रेता दे सो ले लूँ
चित्र देख कर चुनूँ खिलौना,
गुड़िया बन कर एवं खेलूँ।

नहीं पिता ने पूछा मुझसे,
बेटी तेरी क्या है चाहत
जिसे बनाये तू पति अपना,
करूँ उसी का मैं भी स्वागत।

सुना दिया बस निर्णय अपना,
निर्णय भी आदेश सहित है
मैं भी क्यों न सोच कर कह दूँ,

मेरा किस पति के संग हित है।

क्यों न बात रख दूँ मैं मन की,
अवसर आज न जाने पाये
क्यों न तौल लूँ प्यार पिता का,
पीछे होगा क्या पछताये।

साहस जुटा प्रभाती बोली,
इनमें कोई योग्य न मेरे
मेरे हेतु रचा जो विधि ने,
उसके हैं अति कुशल चितेरे।

अंशुमान मेरा सहपाठी,
जिससे है पहचान पुरानी
साथ उसी के शुरू हुई है,
पूरी होगी साथ कहानी।

है घर द्वार सभी अति उत्तम,
दिखता सच्चा भारतीय वह
सभी तरह से सक्षम दिखता,
पर न पिता जी सजातीय वह।

सुन कर चौंक पड़े वे सहसा,
बोल गई क्या उनकी गुड़िया
जैसे वाणी से ही उसने,
घोल पिलाई विष की पुड़िया।

निकल गई क्या वह हाथों से,
बज्राघात हुआ यह कैसा
सम्मुख आयेगा यह भी दिन,
कभी विचार न आया ऐसा।

अब तो पति का और पिता का,
प्यार तुला पर लगे तौलने
पलड़ा भारी देखा पति का,
लगे माप पर माप खोलने।

कोई पैमाना मिल जाये,
पितृ प्रेम को कर दे भारी
भीतर ही भीतर रोये यों,
देख पिता अपनी लाचारी।

क्या न दिया मैंने बेटी को,
कहाँ कमी हो गई प्यार में
कहाँ अभाव हुआ है उसको,
कडुआपन था किस बयार में।

वस्त्राभूषण खेल खिलौने,
थे सब सुख आराम सदन में
शिक्षा में भी कमी न कोई,
कमी न उसके ध्यान लगन में।

यह मेरे आँगन की शोभा,
यह मेरे जीवन की आशा
यह प्रकाश की किरण स्वयं ही,
पढ़ न सकी दीपक की भाषा।

मैं पालक मैं जनक न जानूँ,
कहाँ भंग हो गई तपस्या
कब कर्तव्य विमुख हो बैठा,
क्यों सम्मुख आ गई समस्या।

ममता से रच-रच कर तूने,
निर्ममता से जगत सजाया
ओह विधाता जीवन पथ पर,
कितना निर्मम हमें बनाया।

कैसे कर लूँ अपने टुकड़े,
कैसे बेटी से मुख मोडूँ।
कैसे रखूँ आज हठ उसका,
उसे हाल पर उसके छोड़ूंगा॥

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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