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भारतीय भाषाओं में है आत्मनिर्भरता का मूल

प्रो. गिरीश्वर मिश्र
दिल्ली
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भाषा संवाद में जन्म लेती है और उसी में पल-बढ़ कर समाज में संवाद को रूप से संभव बनाती है। संवाद के बिना समाज भी नहीं बन सकता न उसका काम ही चल सकता है,इसलिए समाज भाषा को जीवित रखने की व्यवस्था भी करता है। इस क्रम में भाषा का शिक्षा के साथ गहरा सरोकार बन जाता है। शिक्षा पाने के दौरान बच्चा भाषा भी सीखता है और भाषा के सहारे विभिन्न विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करता है। उसकी योग्यता,कौशल और मानसिकता के विकास पर उसके आस-पास फैली पसरी भाषा की दुनिया का बड़ा व्यापक असर पड़ता है। भाषा के सहारे ही सोचना संभव होता है और दक्षता आने पर ही जीवन के विभिन्न कार्य हो पाते हैं। इस तरह भाषा पकड़ में आने के साथ भाषा से मिलने वाली शक्ति को आत्मसात करते हुए व्यक्ति आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ता है।
मनुष्य के कृत्रिम आविष्कारों में भाषा निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है। वह प्रतीक (अर्थात कुछ भिन्न का विकल्प या अनुवाद!)होने पर भी कितनी समर्थ और शक्तिशाली व्यवस्था है,इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो भाषा से अछूता हो। हमारी भावनाएं, हास-परिहास,पीड़ा की अभिव्यक्तियों और संवाद को संभव बनाते हुए भाषा सामाजिक जीवन को संयोजित करती है। उसी के माध्यम से हम दुनिया देखते भी हैं और रचते भी हैं। इस तरह भाषा हमारे अस्तित्व की सीमाएं तय करती चलती है।
हमारी भाषा नीति और शिक्षा के आयोजन में अभी भी जरूरी संजीदगी नहीं आ सकी है। इसका स्पष्ट कारण हमारी औपनिवेशिक मनोवृत्ति है जो आवरण का कार्य कर रही है और जिसे हम अकाट्य नियति मान बैठे हैं। इसका परिणाम यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी स्वाधीनता और स्वराज्य हमसे कोसों दूर है। भाषा और संस्कृति साथ-साथ चलते हैं। यदि सोच -विचार एक भाषा में करें और शेष जीवन दूसरी भाषा में जीएँ तो भाषा और जीवन दोनों में ही प्रामाणिकता क्षतिग्रस्त होती जाएगी। दुर्भाग्य से आज यही घटित हो रहा है। दो फांके का जीवन जीने के लिए हम सब अभिशप्त हो चले हैं।
शिक्षा क्षेत्र की जड़ता और उसकी सीमित उपलब्धियों को ले कर सरकारी और गैर सरकारी प्रतिवेदनों में बार-बार चिंता जताई गई है और समस्या के विकराल होते जाने को ले कर उपज रहे आसन्न संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। अब बच्चे अधिक संख्या में शिक्षालय में तो जाते हैं पर वहां टिकते नहीं हैं और टिकते भी हैं तो उनका सीखना बड़ा ही कमजोर हो रहा है। ऊपर से उनके लिए सीखने के लिए भारी भरकम पाठ्यक्रम भी लाद दिया गया है जिसे ढोना (भौतिक और मानसिक दोनों ही तरह से!)भारी पड़ रहा है। यह सब एक खास भाषाई संदर्भ में हो रहा है। आज की स्थिति में अंग्रेजी भाषा नीचे से ऊपर शिक्षा के लिए मानक के रूप में प्रचलित और स्वीकृत है,जबकि हिंदी समेत अन्य भाषाएं दोयम दर्जे की हैं। यह मान लिया गया है कि सोच-विचार और ज्ञान-विज्ञान के लिए अंग्रेजी ही माता-पिता रूप में है और उत्तम शिक्षा उसी में दी जा सकती है। इस स्थिति में हम परमुखापेक्षी होते जा रहे हैं।
शिक्षा नीति-२०२० में भारतीय भाषाओं को लेकर जो विचार दिए गए हैं,उनसे कुछ आशा बंधती है। यह संतोष की बात है कि यह नीति औपचारिक दुनिया में भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीनता और इस कारण उनके अस्तित्व पर आ रहे संकट को रेखांकित करती है। भाषा द्वारा व्यक्ति और समाज की चेतना के निर्माण के महत्व को देखते हुए यह नीति इस बात को स्वीकार करती है कि, भाषा का सवाल केवल शिक्षण माध्यम और विषय तक ही सीमित नहीं है। इसके साथ शिक्षा के मूल सरोकार,राष्ट्रीय एकता,अवसरों की समानता, संस्कृति के पोषण और आर्थिक विकास के प्रश्न भी गुंथे हुए हैं। अतएव,भाषा के बारे में फैसला सिर्फ बहुमत के आधार या प्रयोग की सुलभता के आधार पर नहीं लिया जा सकता,उसमें विविधता और समावेशन का पूरा स्थान होना चाहिए। नई नीति में भाषा की उपस्थिति को भाषा-शिक्षण,शिक्षा के माध्यम के रूप में,भाषा को अध्ययन विषय के रूप में और भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदना की दृष्टि से समझा जा सकता है। इस नीति के अनुसार भारतीय भाषाएं पूर्व विद्यालयी स्तर से लेकर शोध के स्तर तक औपचारिक शिक्षा का माध्यम बननी चाहिए,साथ ही भाषाओं को केवल उनके साहित्य तक सीमित न रख इतिहास,कला, संस्कृति तथा विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने का माध्यम बनाया जाना चाहिए। इस तरह भाषा के समुचित प्रयोग द्वारा समाज को लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया जा सकता है। नीति का यह मानना है कि ज्ञान-विज्ञान और कौशल की दृष्टि से भाषाओं को रोजगार की दुनिया में स्थापित किया जाना चाहिए।
जहां तक पूर्व विद्यालयी शिक्षा का प्रश्न है,मातृभाषा का प्रयोग करते हुए सोचने- विचारने की प्रक्रिया का सूत्रपात करना ही सर्वथा हितकर होगा। बच्चे की भाषा सीखने की सहजात क्षमता का उपयोग करते हुए सीखने का सक्रिय परिवेश बनाया जा सकता है। बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए चित्र वाली किताबों एवं अन्य भाषा शिक्षण सहायक सामग्री का विकास करना आवश्यक होगा। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण को अनिवार्यत: लागू किया जाना ही श्रेयस्कर है। भारतीय भाषाओं में बालोपयोगी साहित्य के लिए राष्ट्रीय मिशन को संचालित कर युद्ध स्तर पर यह कार्य करना होगा।
यह बात सर्वविदित है कि चीनी,जापानी,फ्रांसीसी, जर्मन,रूसी,हिब्रू आदि गैरअंग्रेजी भाषा माध्यम में उच्चतम स्तर की शिक्षा दी जा रही है और शोध किया जा रहा है,अत: भारतीय भाषाओं में भी उच्च स्तरीय शोध होना चाहिए। नई शिक्षा नीति कला और लोक विद्या को भी औपचारिक शिक्षा के दायरे में लाने को सोच रही है। इनमें प्रवेश के लिए अपनी भाषा ही उपयुक्त होगी। भारतीय भाषाओं को व्यावसायिक शिक्षा में यथोचित स्थान देते हुए रोजगार बाजार से जोड़ना होगा।
कहना न होगा कि सभी प्रकार की नौकरी और रोजगार में बिना किसी भेद-भाव के भारतीय भाषाओं को स्थान देना आवश्यक है। अपनी भाषा के प्रयोग से ही स्वराज और स्वायत्तता का मार्ग प्रशस्त होगा। आत्मनिर्भर और समर्थ भारत के लिए यह प्रमुख आधार होगा।

(सौजन्य: वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

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