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लोभ में आकर न छोड़ें संस्कृति और समाज

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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अक्सर हम संस्कृति की बात करते हैं,पर कोई पूछे कि संस्कृति है क्या,तो क्या सही-सही जबाब दे पाते हैं ? संस्कृति को परिभाषित करना कठिन है; क्योंकि यह कोई वस्तु नहीं है। यह समझने की चीज है। यह हमारी भावनाओं को उजागर करने वाला वह दीप है,जो हमें औरौं की नजर में अलग कर और अच्छा बनाकर रखता है। स्वामी चिन्मयानंद के अनुसार-‘जब किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में,एक लम्बे समय तक,कुछ लोगों का समूह,अपने विशिष्ट जीवन मूल्यों का निर्वाह करते हुए,साथ-साथ रहता है,तब जो विशिष्टताएँ,जो पहचान उस जन समूह की बनती है,वह उस जन-समाज की संस्कृति होती है।’ संस्कृति के बारे में यह भी कहा गया है कि ‘संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण,दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।’
आज जो संस्कृति दिखाई पड़ती है,वह मिश्रित है,लेकिन ये बातें सिर्फ अनुमान पर टिकी हैं। वास्तविकता तो यह है कि आर्य या आर्येतर लोगों की जो संस्कृतियाँ थीं,वे मिलकर एक हो गईं। इसके कारण वैदिक संस्कृति का राष्ट्रीय महत्व है। वैदिक संस्कृति आरम्भ से ही सामासिक या समन्वयात्मक भूमिका निर्वाह करती रही है। कालान्तर में जब भारतीय समाज में मुस्लिम और इसाईयों का सम्मिश्रण हुआ तो दोनों की संस्कृतियाँ वैदिक संस्कृति से मिलकर सामासिक हो गई। आज जो संस्कृति दिखाई दे रही है,वही भारतीय संस्कृति है,जिसमें आपसी सहिष्णुता,सब धर्मों का आदर करना,समाज में एक होकर रहना,धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न करना आदि सभी सामाजिक कारक समन्वित हैं।

अनेक राष्ट्र अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लेते हैं,यह वहाँ की संस्कृति है। इसी क्रम में भारतीय जनता की संस्कृति का रूप कई संस्कृतियों के जुड़ने से बना है और उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है। यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आने वाले तथा फिर समुद्र की राह से आने वाले लोगों से बार-बार प्रभावित हुई। बहुत दिनों तक बाहरी दुनिया से अलग रहने के कारण भारत का स्वभाव भी और देशों से भिन्न हो गया। हम ऐसी जाति बन गए,जो अपने-आप में घिरी रहती है। किसी भी दूसरे देश के लोग यह नहीं जानते कि,छुआछूत क्या है तथा दूसरों के साथ खाने-पीने में,विवाह करने में जाति को लेकर किसी को क्या उज्र होना चाहिए। आज यह दीवार भी ढहती जा रही है,जहाँ अन्तर्वर्गीय या अन्तर्जोतिय विवाह बहुत होने लगे हैं।

भारत एक विशाल देश है,इसलिए यहाँ संस्कृतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं,जैसे-हिन्दू संस्कृति,मुस्लिम संस्कृति,ईसाई संस्कृति आदि,पर भारतीय जनता की संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोहनजोदड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान् सभ्यता तक पहुंचता है। दूसरी ओर,इस संस्कृति पर आर्यों की गहरी छाप है,जो भारत में मध्य एशिया से आ गए थे। इस प्रकार हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्कृति में मेल-मिलाप तथा नए अंग को पचाकर अपने अधिकार में करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा,यह संस्कृति जीवित और गतिशील रही,लेकिन बाद में इसकी गतिशीलता जाती रही और उसके सारे पहलू कमजोर पड़ गए।

आज के समाज में लगता है कि,हम अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं,क्योंकि हमारे बच्चों को ही माता-पिता से परिचय मम्मी-पापा के रूप में कराया जाता है। कहाँ मातृदेवो भव,पितृदेवो भव,गुरुदेवो भव की घुट्टी बचपन से ही पिलाई जाती थी,कहाँ सारे भारत में अंग्रेजियत लादने की बात हो रही हैl
“संस्कृतियाँ जब बदलती हैं तब रहन-सहन,खान-पान,पोशाक आदि भले ही बदल जाएं,किन्तु मन उनका नहीं बदलता,सोचने की पद्धति नहीं बदलती और जीवन को देखनेवाला दृष्टिकोण उनका एक ही रहता है। विशेषत: भारत जैसे प्रचीन देश यदि कोई दबाकर अमेरिका या यूरोप बनाना चाहेगा,तो इस दबाव का परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा। कल्याण इसमें है कि शासक उस दिशा को पहचान लें,जिस दिशा का संकेत भारत के दूर और निकट इतिहास से मिलता है। राजा राम मोहन राय,स्वामी विवेकानन्द,महर्षि दयानन्द सरस्वती,लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,नोबल पुरस्कार प्राप्त कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर और महात्मा गाँधी आदि को उस दिशा का पूरा ज्ञान था। इसीलिए,जनता ने उन्हें अपना उद्धारक समझा,भारत के इतिहास ने उनका साथ दिया। भारत ने स्वतंत्रता की लड़ाई उसी दिशा की ओर मुँह करके लड़ी थी,इसीलिए उसकी विजय हुई। अब यदि हम उस दिशा की ओर मुँह फेर कर केवल सुविधा के लिए अपनी भाषाओं को छोड़ देंगे,केवल समृद्धि के लोभ में आकर अमेरिका और इंग्लैंड की नकल करेंगे तो निश्चय ही भारत का रहा-सहा व्यक्तित्व भी विनष्ट हो जाएगा,जो नाना संघर्ष में अब तक शेष रहा है।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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