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राष्ट्रभाषा की वेदना

राधा गोयल
नई दिल्ली
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अंग्रेजी के दत्तक पुत्रों,आज रो रही भारती,
कोख से जिसकी जन्म लिया,वह माता आज पुकारती।
आज रसातल को जाता है मेरा भारत देश,
मेरे बच्चों! भूल गए तुम,क्यों अपना परिवेश ?
खान-पान और रहन-सहन बोली भी हुई विदेशी,
मेरे बच्चों मुझको ही तुम लगते हो परदेशी॥

कोख से मेरी जन्म लिया,हाँ! मेरी कोख लजाई,
अपने ही बच्चों को,मैं लगती हूँ आज पराई।
जिस भाषा में तुतलाए,तुम भूल गए वो भाषा ?
दूध कलंकित किया मेरा,टूटी सारी अभिलाषा।
क्या स्वरूप गंदा मेरा,जो धक्का मुझे दिया है ?
किसी दूसरे की माता को घर में स्थान दिया है॥

जिसने जन्म दिया…पाला,उसका अपमान किया है,
जिसने केवल गोद लिया,उसका सम्मान किया है।
इसीलिए मेरे उर अंदर,आज जल रही ज्वाला,
मेरे ही बच्चों ने दी,ये अपमानों की हाला।
अन्तर में जो आग जल रही,कैसे उसे बुझाऊँ ?
देश निकाला दिया सुतों ने,ठौर कहाँ अब पाऊँ ?
ठौर कहाँ अब पाऊँ ? ठौर कहाँ अब पाऊँ…?

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