डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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आज समाचार पत्र में पढ़ा कि एक कैदी को आगरा जेल से बिना अपराध सिद्ध किए २० वर्ष के बाद न्यायालय ने अपराध मुक्त किया। यह मात्र एक प्रकरण नहीं है,ऐसे हमारे देश में लाखों विचाराधीन कैदी जेलों में सड़ रहे हैं और वे विचारे कभी कभी अकथनीय यातनाओं के कारण मर जाते हैं,जबकि न्याय व्यवस्था में उनको भी अधिकार दिए गए हैं,पर उनकी कोई भी सुनने वाला नहीं होता है। इस दौरान जो समय बीत गया, वह वापिस नहीं आता और न सरकार कोई विशेष लाभ देती है। इसके बाद उस व्यक्ति की सामाजिक व्यवस्था दागदार हो जाती है।
हमारे संविधान में सब सुविधाएँ तय हैं और लाभ मिलना चाहिए,किन्तु जो सामान्य रूप से बलशाली या आर्थिक सुविधा देने में सक्षम होते हैं, उन्हें मिल जाती हैं।
समय-समय पर जेल में बंद विचाराधीन कैदियों के अधिकारों की बात होती रही है,खासकर उच्चतम न्यायालय के कुछ न्यायाधीश ने अपने निर्णय में सजायाफ्ता और विचाराधीन कैदियों के अधिकारों एवं सरकार के दायित्वों के बारे में अपने कई बार उल्लेख भी किया है। देखा जाए तो किसी भी विचाराधीन या फिर सजायाफ्ता कैदी के मूल अधिकार जेल में भी बने रहते हैं और कानून के हिसाब से ही उनके अधिकारों पर अंकुश लगाया जा सकता है,वैसे नहीं।
कानून के मुताबिक किसी भी शख्स को तब तक गुनाहगार नहीं माना जा सकता,जब तक कि अदालत आरोपी को दोषी नहीं मानती। जब भी किसी शख्स के खिलाफ कोई आरोप लगाया जाता है तो वह आरोपी होता है और जब उक्त शख्स का प्रकरण अदालत के सामने आता है,तब उसका यह संवैधानिक अधिकार है कि उसे अपने बचाव का मौका मिले। मूल अधिकार के तहत संविधान के अनुच्छेद-२२ में इस बात का अधिकार मिला हुआ है कि प्रत्येक आरोपी को बचाव का मौका दिया जाएगा। इसके तहत अदालत की ड्यूटी है कि जब भी कोई आरोपी अदालत में पेश हो तो उससे पूछे कि क्या उसे वकील चाहिए ? इसके बाद अदालत आरोपी को सरकारी खर्चे पर वकील (एमिकस क्युरी)मुहैया कराती है। इसके अलावा प्रत्येक जेल में जेल प्राधिकारी इस बात की घोषणा कर देते हैं कि अमुक समय में वकील आने वाले हैं और जिन्हें वकील चाहिए,वह उनसे मिल सकते हैं।
सरकारी वकील के मुताबिक किसी सजायाफ्ता का मूल अधिकार जेल में भी बना रहता है। कानून के मुताबिक जो सजा दी गई है,उसके अलावा कैदी को किसी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। किसी भी अंडर ट्रायल को बिना कोर्ट के आदेश के सेल में नहीं रखा जा सकता। कानून के हिसाब से ही कैदी की जिंदगी और आजादी को खत्म किया जा सकता है,वैसे नहीं। किसी कैदी को जेल में प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। कैदियों को जेल में कैसे रखा जाए,उसके लिए जेल नियम बना हुआ है और उसे पालन करना होता है।
अगर कोई कैदी जेल में स्वास्थ्य संबंधी शिकायत करता है तो उसे तुरंत अस्पताल में दिखाना अनिवार्य है। इसके अलावा कैदियों को अनुशासन में रखने के लिए भी कई प्रावधान किए गए हैं। अगर कोई कैदी जेल में हमला करता है, भूख हड़ताल करता है या धमकी देता है,तो उसे अपराध माना जाता है और पहली बार में चेतावनी देकर छोड़ा जा सकता है,लेकिन जेल प्रशासन को यह अधिकार है कि ऐसे कैदियों को सजा में मिलने वाली छूट में कटौती कर सकता है। ऐसे कैदी को मनोरंजन या पैरोल आदि सुविधा से वंचित किया सकता है। यानी कैदियों के मानवाधिकार व मूल अधिकार जेल में भी बने रहते हैं,लेकिन उसे जेल नियमों का पालन करना होता है।
ऐसे में सरकार अपने स्तर से उपयुक्त सक्षम अधिकारी नियुक्त कर ऐसे प्रकरणों का नियमानुसार निराकरण करे,जिससे अपराध रहित व्यक्ति बिना अपराध के सजा काटे,क्योंकि विलम्ब से न्याय भी अन्याय लगता है।
परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।