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विधिवत दीक्षित न होते हुए भी भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी:स्मृतियाँ

प्रो. ठाकुर दास-

सुप्रसिद्ध हिंदी भाषाविद् और अनुवाद सिद्धांत विशेषज्ञ प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी का असामयिक निधन अत्यंत दुखद एवं स्तब्ध करनेवाला है। गोस्वामी जी के साथ मेरा लगभग ५६-५७ वर्ष का मैत्रीपूर्ण परिचय एवं संबंध रहा है। वर्ष १९६४ में वे संघ लोक सेवा आयोग में कार्यरत थे,तभी मेरी आयोग में अनुसंधान सहायक के पद पर नियुक्ति हुई थी। उसके बाद वे लोक सभा सचिवालय में हिंदी अनुवादक के रूप में चले गए और मैं वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग में चला गया। दिसंबर १९६९ में हम दोनों ४० दिन के लिए डेक्कन कालेज(पुणे) में एक कार्यक्रम में गए थे। वहाँ उनसे मित्रता अंतरंग होती गई। फिर वहाँ से हम दोनों मुंबई,अहमदनगर, अजंता-ऐलोरा घूमने गए। उस यात्रा में कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों की स्मृतियाँ आज भी उभर आती हैं।
मेरे संस्थान में नियुक्त होने के बाद,गोस्वामी जी अक्सर मिला करते थे और कई बार उन्होंने संस्थान में नियुक्ति की इच्छा प्रकट की। तब मैंने दिल्ली केन्द्र के प्रभारी डॉ. जगन्नाथन तथा संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रो. व्रजेश्वर वर्मा से चर्चा की। सन् १९७२ में उनकी संस्थान में प्राध्यापक पद पर नियुक्ति हो गई।
तब गोस्वामी जी मेरठ विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच.डी थे। उनमें लेखन के प्रति प्रारंभ से ही विशेष रुचि थी। वे प्रो. रवींद्र नाथ श्रीवास्तव और डॉ. भोलानाथ तिवारी के संपर्क में थे। इससे उन्हें उनकी पुस्तक ‘अनुप्रयुक्त हिंदी भाषाविज्ञान’ में सह-संपादक के रूप में काम करने का अवसर मिला। वर्ष १९७६ में मेरा रीडर पद पर चयन हो गया। उन्होंने भी कोशिश की थी किंतु कम अनुभव के कारण उन्हें साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाया गया था। तब उन्होंने मुझे कहा था-”तुम रीडर पहले बन गए हो,लेकिन प्रोफेसर मैं पहले बनूँगा।” ख़ैर,बात आई-गई हो गई। इस बीच उनका पी-एच.डी का शोध प्रबंध तथा राजभाषा हिंदी आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं। शायद १९८५-८६
में वे दक्षिण हिंदी प्रचार सभा(हैदराबाद) में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो गए। कुछ वर्ष वे वहाँ रहे,किंतु संतुष्ट नहीं थे। अंतत:वे संस्थान के मैसूर केन्द्र में रीडर-प्रभारी के रूप में लौट आए। बाद में वे केन्द्रीय हिंदी संस्थान आगरा में स्थानांतरित हो गए। तब हम दोनों कुछ वर्ष एकसाथ रहे। प्यार भरी नोंक-झोंक चलती रही। मैं इस बीच मैं पेरू के एक विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर बन कर चला गया। अंतत:: सन् १९९९ में हम दोनों एकसाथ प्रोफेसर बने। वर्ष २००३ में वे भाषाविद् के रूप में सी-डैक(नोएडा) से जुड़ गए और सात-आठ वर्ष तक वहाँ कार्य करते रहे। मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में उन्होंने वहाँ काम किया।
सेवानिवृत्ति के बाद वे अधिक सक्रिय हो गए थे। वे महात्मा गांधी अंतर-राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) की शासी परिषद के सदस्य रहे। केन्द्रीय हिंदी स्थान के दिल्ली केन्द्र में चलनेवाले अनुवाद सिद्धांत और व्यवहार डिप्लोमा पाठ्यक्रम में भी कुछ वर्ष हम दोनों ने अध्यापन कार्य किया।
उन्होंने अनुवाद,अनुप्रयुक्त हिंदी भाषाविज्ञान,हिंदी व्याकरण,कोशकला आदि क्षेत्रों में आधिकारिक कार्य किया। भाषा विज्ञान के क्षेत्र में विधिवत दीक्षित न होते हुए भी उन्होंने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। पंजाबी-हिंदी शब्दकोश,अनुवाद विज्ञान की भूमिका,अनुवाद कोश उनकी अप्रतिम कृतियाँ हैं।
इधर व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलना नहीं हो पाता था किंतु फ़ोन पर पंद्रह-बीस दिनों में एक बार बात हो जाती थी। अस्वस्थ रहने के बावजूद वे अपने कई कामों में व्यस्त रहते थे।
उनके निधन से हिंदी भाषा विज्ञान तथा अनुवाद जगत की अपूरणीय क्षति हुई है और हमारी ५६ वर्ष की मित्रता का दुखद अंत। स्व. प्रोफेसर गोस्वामी को विनम्र श्रद्धांजलि। ओम शांति शांति शांति।

प्रो. जगन्नाथन-

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी के आकस्मिक और दुखद निधन का समाचार सुनकर अत्यंत क्लेश हुआ। बात अविश्वसनीय लगी। कुछ ही दिन पहले बात हुई थी और उन्होंने विश्वास से कहा था कि ‘कोरोना’ के लिए आवश्यक सावधानियां बरत रहा हूँ। काल ने उन्हें हमसे छीन लिया है। वे मानसिक रूप से इतने सजग थे कि अभी लंबे समय तक हिंदी की अनवरत सेवा कर सकते थे। हमारे संबंध ५० वर्ष पुराने हैं। शुरू-शुरू में हम दोनों ने केन्द्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केन्द्र में एक साथ काम किया था। हम दोनों में घनिष्ठ संबंध रहा। हमारे प्रेरणा स्रोत भी समान रहे-प्रो. रमानाथ सहाय और प्रो. रविंद्र नाथ श्रीवास्तव। भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में आई नई क्रांति से प्रेरित होकर हमने भाषा के प्रयुक्ति परक क्षेत्रों में योगदान देने के उद्देश्य से भाषा-शिक्षण,अनुवाद,कोष-विज्ञान आदि अनुप्रयोग के क्षेत्रों में दक्षता भी हासिल की और यथा योग्य निर्माण कार्य भी किया। उनकी शैली-विज्ञान में भी अच्छी गति थी। जब मैं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में नियुक्त होकर दिल्ली आया, तो वे संस्थान के दिल्ली केन्द्र में क्षेत्रीय निदेशक बनकर आए। इस तरह हम दोनों को समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सानिध्य का भी सुयोग मिलता रहा। सेवानिवृत्ति के बाद भी हम दोनों ने संस्थान के विविध कार्यक्रमों में साथ-साथ काम किया। वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की प्रारंभिक दिनों में उसके पाठ्यक्रमों को अंतिम रूप देने में हमारा लंबा सम्मिलित प्रयास रहा है। उनका इस तरह जल्दी चला जाना हिंदी जगत के लिए अपूरणीय क्षति तो है ही,मेरे लिए भी व्यक्तिगत रूप में गहरी क्षति है। विनम्र श्रद्धांजलि।

अनिल जोशी(उपाध्यक्ष-केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल,शिक्षा मंत्रालय)-

आदरणीय कृष्ण कुमार गोस्वामी जी का हिंदी भाषा और साहित्य में महती योगदान है। केन्द्रीय हिंदी संस्थान में भाषा विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में उनका योगदान एक अधिकारी के रूप में अंकित नहीं किया जा सकता। वे भाषा के विविध रूपों विशेषकर व्याकरणिक कोटियों और भाषाविज्ञानी प्रस्तुतियों के प्रति सचेत थे। उन्होंने एक प्रोफेसर के रूप में देश के विविध भागों में भाषा और साहित्य को लेकर अनन्य योगदान दिया।
मेरा उनसे परिचय केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो के समय से था। मैं वहां प्रशिक्षण से जुड़ा था। उन्हें त्रिनिडाड में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के दौरान मिला और उनकी विद्वता और योग्यता से भली-भांति परिचित हुआ। इसके बाद तो उनसे निरंतर परिचय आता रहा। सेवानिवृत्ति के पश्चात वे सी-डैक से जुड़े और भाषाविज्ञानी स्वरूप को प्रौद्योगिकी से जोड़ कर हिंदी को अधुनातन बनाने का प्रयास किया। उन्होंने लिखित में अपनी संस्तुतियां राजभाषा में प्रस्तुत की थी,जो औरों के लिए प्रेरणा थी।
उनसे मेरी आखिरी मुलाकात बहुत पुरानी नहीं है । मार्च २०२१ में वे किन्हीं अधिकारियों की पदोन्नति संबंधी फाइल के लिए केन्द्रीय हिंदी संस्थान(दिल्ली ) में पधारे थे। वहां उनसे विश्व हिंदी कोश के संपादन के संबंध में चर्चा हुई। आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि वे इस आयु में भी पूर्णकालिक सेवा को तैयार थे। मैं उनका हौंसला देखकर दंग था। हिंदी को लेकर उनकी जिजीविषा और इच्छा शक्ति अनन्य थी।
कई बार उनके सेवानिवृत्त जीवन के बारे में सोचता हूँ तो दंग रह जाता हूँ। चाहे बोलियों को लेकर अमरनाथ जी का समर्थन हो या वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा भाषा को लेकर उठाए गए मुद्दे,वे जैसे अपनी प्रतिबद्धता के चलते कहीं भी समय और विद्वता देने को तैयार थे। उन्हें मंच की दरकार नहीं थी। भाषा को लेकर उनकी दृष्टि साफ थी। केन्द्रीय हिंदी संस्थान की प्रसिद्धि हुई तो उनके जैसे व्यक्तियों के आचरण और प्रतिबद्धता के कारण। वे हम सबके लिए प्रेरणा प्रतीक थे। हम उनके कामों से जुड़ें, गति दें और जीवन के लिए उनसे प्रेरणा ले। यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

प्रो. जायसवाल-

बहुमुखी प्रतिभावान प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी मेरे सहयोगी थे। हिंदी संस्थान में हम एकसाथ नियुक्त हुए थे। आज वे हमारे बीच में नहीं हैं,विश्वास नहीं होता। मैं उनके निधन पर कोई शोक संदेश नहीं लिखना चाहता हूँ वरन उनकी जीवंतता,उनकी स्फूर्ति,निरंतर लेखन की शक्ति तथा भाषा से संबंधित विभिन्न विषयों पर अधिकारिक भाषण देने की कला का स्मरण करना चाहता हूँ। उन जैसे कर्मठ विद्वान् के अभाव का अनुभव भाषा विज्ञान, कोश कला,अनुवाद विज्ञान और भाषा-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत लंबे समय तक किया जाएगा। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

प्रो. अमरनाथ(पूर्व विभागाध्यक्ष-कोलकाता विवि)

बेहद दुखद खबर। गोस्वामी जी से लगभग २५ साल पुरानी दोस्ती थी। वे बेहद ईमानदार और अपने उसूलों पर कायम रहने वाले लेखक थे। भाषा प्रौद्योगिकी और शैली विज्ञान के वे बड़े विद्वान थे। इस क्षेत्र में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिन्दी और उसकी बोलियों के संबंध पर उन्होंने कई लेख लिखे। दिल्ली में गृह मंत्री तथा मंत्रालय के अन्य अधिकारियों से मिलने के दौरान वे हमारे साथ थे। हमने हिन्दी का एक सच्चा साथी खो दिया। उन्हें मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’(निदेशक-वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)-

हिंदी सहित भारतीय भाषा के विद्वानों की तो देश में बड़ी संख्या है,लेकिन प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी जैसे भाषाविद् कम ही हैं। अध्ययन,अध्यापन और अनुसंधान के क्षेत्र में वे वृद्धावस्था में भी चिरयुवा थे। हर कार्य में उनकी सक्रियता देखते ही बनती थी। वे उस पीढ़ी के विद्वानों में थे,संगणक l जिनके सेवाकाल के अंतिम दौर में ही आया। इसके बावजूद प्रो. गोस्वामी ने न केवल भाषा विज्ञान के विषयों में बल्कि भाषा-प्रौद्योगिकी के लिए भी विशिष्ट योगदान दिया। देवनागरी लिपि के मानकीकरण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन समूह’ को प्रारंभ करने का उद्देश्य देश भर के भारतीय भाषा सेनानियों को एकजुट करते हुए भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने और जन-जागरुकता के जरिए भारतीय भाषा आंदोलन को शक्ति प्रदान करना था। इस कार्य में पिछले ५-६ वर्षों से गोस्वामी जी का योगदान अतुलनीय था।
भले ही आंदोलन हिंदी की बोलियों को हिंदी से अलग होने से रोकने का हो,जनता को उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में भारतीय भाषाओं में न्याय के लिए हो,जनता को सूचनाएं जनता की भाषा दिए जाने के लिए हो,ऐसे सभी भाषाई आंदोलनों में वे एक योद्धा की तरह कलम उठा कर खड़े हो जाते थे। यही नहीं,वे उसके लिए किसी से मिलना हो या पत्राचार करना हो,हर काम में वे सबसे आगे खड़े दिखते थे। लगभग ७५-८० वर्ष की उम्र में यह सक्रियता युवाओं और बुजुर्गों के लिए विस्मयकारी और प्रेरणादायी थी।
मृत्यु के कुछ दिन पहले ही पांडिचेरी विवि द्वारा आयोजित ई-संगोष्ठी में उन्होंने एक शिल्पी और वक्ता की भूमिका निभाई और वक्ता के रूप में मुझे भी जोड़ा। करीब ८-१० दिन पहले ही तो उनका फोन आया था,मेरा हालचाल पूछा और अपना बताया। उन्होंने कहा था कि गर्दन दर्द में अब आराम है,लिखना छूटा हुआ था,लेकिन अब लिखेंगे । उऩ्होंने ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के लिए एक लेख भेजने की बात कही थी,लेकिन जो भी उन्होंने लिखा,भेजने के पहले ही चले गए।
गोस्वामी जी का निधन हिंदी सहित भारतीय भाषाओं की तो एक बड़ी हानि है ही,निजी स्तर पर भी मेरे लिए अत्यंत पीड़ादायक है। ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ ने भी भीष्म पितामह की तरह अपना संरक्षक और एक परम योद्धा खो दिया है। गोस्वामी जी को सादर वंदन व हृदय से श्रद्धांजलि।

डॉ. राकेश पांडेय(संपादक)-

मृत्यु-लीला के इस काल में डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी का यूं अचानक चले जाना हम सबको आहत कर गया। हिंदी भाषा के संवर्धन में डॉ. गोस्वामी के योगदान को सदैव याद किया जाएगा। वह हिन्दी के प्रति अपने विचारों से एकदम स्पष्ट थे,वे बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात लिखते व कहते थे। ‘हिंदी बचाओ मंच’ जब आठवीं अनुसूची के मुद्दे पर संघर्ष कर रहा था,तो अनेक बड़े-बड़े लेखक मुँह से भले ही कुछ बोलते रहे, लेकिन कुछ लिखने के लिए तैयार नहीं हुए। इस मुद्दे पर डॉ. गोस्वामी ने न केवल ध्यान दिया,बल्कि अपना मत स्पष्ट करते हुए कई लेख लिखे। हिंदी के लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन दिया। ईश्वर उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दे,वह हमारी स्मृतियों में सदा बने रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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