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आत्मा को ज्योतिर्मय करने का पर्व

ललित गर्ग
दिल्ली
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उपवास और आराधना (पर्यूषण पर्व विशेष)

पर्यूषण पर्व जैन समाज का ८ दिन का एक ऐसा महापर्व है, जिसे खुली आँखों से देखते ही नहीं, जागते मन से जीते हैं। यह ऐसा मौसम है जो माहौल ही नहीं, मन को पवित्रता में भी बदल देता है। आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुंचा देता है, जो सारी दुनिया में मनाया जाता है। जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में इस पर्व का अपना अपूर्व महत्व है। इसको पर्व ही नहीं, महापर्व माना जाता है, क्योंकि यह आध्यात्मिक पर्व है, और एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक है। चारों ओर से इन्द्रिय विषयों एवं कषाय से सिमटकर, स्वभाव में, आत्मा में निवास करना, ठहरना, रहना ही पर्यूषण का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य है। जिसका भावार्थ एवं फलितार्थ होता है-कषायादि का उपशमन, इन्द्रियों का संयम, विभावों से हटकर स्वभाव में रमण, भूलों का सिंहावलोकन, शुभ संकल्पों का आभास, मैत्री भाव का विकास एवं नव वर्ष के लिए नवीन योजनाओं का सृजन आदि।
पर्यूषण पर्व- जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है। यह आत्मिक उज्ज्वलता का पर्व है। आत्मावलोकन का दिन है, भीतर में झांकने का समय है। प्राणी के अनंत जन्म बाहर ही बाहर देखने में व्यतीत हो जाते हैं। वह नहीं जानता कि भीतर में क्या है ? पर्यूषण पर्व भीतर की ओर मुड़कर देखने की बात सिखाता है। बाहर देखने वाला किनारे पर रह जाता है, परंतु गहराई में डुबकी लगाने वाला अमूल्य रत्नों को पाता है। मनुष्य का मन तब तक हल्का-भारहीन नहीं बन सकता, जब तक वह अंतर की गहराई में पहुंचकर भारमुक्त नहीं हो जाता। भार-मुक्तता उपदेश सुन लेने मात्र से प्राप्त नहीं हो सकती। वह प्राप्त हो सकती है-निःशल्य भाव से अथवा आराधना-विराधना के शास्त्रीय ज्ञान से। इस हेतु प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-प्रमाद के कारण जो गलतियाँ हुई और उससे चेतना पर जो व्रण या घाव हो गए हैं, उनकी दैनिक, पाक्षिक एवं सांवत्सरिक अवसर पर चिकित्सा कर भर देना।
आज का मनुष्य जो इतना अशांत है, उसका मूल कारण आत्मावलोकन का अभाव है। हर कोई दूसरे को तो दोषी ठहरा रहा है, लेकिन अपनी भूल को स्वीकार करने में किंचित मात्र भी पहल नहीं कर पा रहा है। प्रतिक्रमण द्वारा अपनी जाने-अनजाने में हुई गलतियों का चिंतनपूर्वक निराकरण किया जा सकता है।
प्रतिक्रमण का प्रयोग-भूत, भविष्य एवं वर्तमान इन तीनों कालों की शुद्धि का आध्यात्मिक प्रयोग है। सत्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही अपनी शत्रु है। अतः किसी को मित्र बनाना है, उसका रहस्य भी अंतर में खोजें और शत्रुओं को मिटाना है तो उसका राज भी अंतर में ही मिलेगा। वस्तुतः, पर्यूषण भीतर की सफाई का अमोघ उपाय है।
दिगंबर परम्परा में इसकी ‘दशलक्षण पर्व’ के रूप में पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्रव शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परम्परा में भाद्रव शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का होता है, जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है। पर्यूषण पर्व का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा में अवस्थित होना। पर्यूषण शब्द परि उपसर्ग व वस् धातु इसमें अन् प्रत्यय लगने से पर्यूषण शब्द बनता है। एक अर्थ है-कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा, तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी। अतः यह पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है। इसका जो केन्द्रीय तत्व है, वह है-आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्यूषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है।
इस पर्व में सभी अपने को अधिक से अधिक शुद्ध एवं पवित्र करने का प्रयास करते हैं। प्रेम, क्षमा और सच्ची मैत्री के व्यवहार का संकल्प लिया जाता है। खान-पान की शुद्धि एवं आचार-व्यवहार की शालीनता को जीवनशैली का अभिन्न अंग बनाए रखने के लिए मन को मजबूत किया जाता है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवनशैली  का समर्थन आदि तत्व पर्यूषण महापर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से पर्यूषण महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है।
मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्म- परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले- यही पर्यूषण की साधना का हार्द है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं आम-जन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करे।
धर्म की दिशा में प्रस्थान करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही महापर्व की सार्थकता का आधार है।
महापर्व का अन्तिम चरण-क्षमावाणी या क्षमायाचना है, जो ‘मैत्री दिवस’ के रूप में आयोजित होता है। इस तरह से महापर्व एवं क्षमापना दिवस दूरियों को समाप्त कर एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है।  भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’ यानि सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है।
पर्यूषण पर्व अंर्तआत्मा की आराधना का पर्व है-आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है, तो जरूरी है कि प्रमादरूपी नींद को हटाकर विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने-आपको सुवासित करते हुए अंर्तआत्मा में लीन हो जाऍं, जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।

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