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तुलसीदास के शब्दों में गुरु महिमा

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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गुरु पूर्णिमा १६ जुलाई विशेष…………

भारतीय वांग्मय में गुरु को इस भौतिक संसार और परमात्म तत्व के बीच का सेतु कहा गया है। सनातन अवघारणा के अनुसार इस संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता-पिता देते हैं,लेकिन मनुष्य जीवन का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है। गुरु जगत व्यवहार के साथ-साथ भव तारक पथ प्रदर्शक होते हैं। जिस प्रकार माता-पिता शरीर का सृजन करते हैं,उसी तरह गुरु अपने शिष्य का सृजन करते हैं। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है-अंधकार और रु का का अर्थ-उसका निरोधक। याने जो जीवन से अंधकार को दूर करे उसे गुरु कहा गया है।

आषाढ़ की पूर्णिमा को हमारे शास्त्रों में गुरुपूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करने के वैदिक शास्त्रों में कई प्रसंग बताए गये हैं। उसी वैदिक परम्परा के महाकाव्य रामचरित मानस में गौस्वामी तुलसीदास जी ने कई अवसरों पर गुरु महिमा का बखान किया है।

मानस के प्रथम सौपान बाल काण्ड में वे एक सौरठा में लिखते हैं-

बंदउँ गुरु पद कंज,कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज,जासु बचन रबि कर निकर।

अर्थात-मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूँ,जो कृपा सागर है और नर रूप में श्री हरि याने भगवान हैं,और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।

रामचरित मानस की पहली चौपाई में गुरु महिमा बताते हुए तुलसीदास जी कहते हैं-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।

अर्थात-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ,जो सुरुचि(सुंदर स्वाद),सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी)का सुंदर चूर्ण है,जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।

इसी श्रंखला में वे आगे लिखते हैं-

श्री गुर पद नख मनि गन जोती,सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।

अर्थात-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है,जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है,वह जिसके हृदय में आ जाता है,उसके बड़े भाग्य हैं।

बाल काण्ड में ही गोस्वामी जी राम की महिमा लिखने से पहले लिखते हैं-

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

अर्थात-गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है,जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है।

गुरु के सम्मुख कोई भेद छुपाना नहीं चाहिए,इस बात को तुलसीदास जी मानस के बाल काण्ड में ही दोहे के माध्यम से कहते हैं-

संत कहहिं असि नीति प्रभु,श्रुति पुरान मुनि गाव।

होइ न बिमल बिबेक उर,गुर सन किएँ दुराव।

अर्थात-संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद,पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।

बाल काण्ड में ही शिव-पार्वती संवाद के माध्यम से गुरु के वचनों की शक्ति बताते हुए वे कहते हैं-

गुर के बचन प्रतीति न जेहि,सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।

अर्थात-जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं होता है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होती है।

अयोध्या कण्ड के प्रारम्भ में गुरु वंदना करते हुए हुए तुलसीदास जी कहते हैं-

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं,ते जनु सकल बिभव बस करहीं।

मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें,सबु पायउँ रज पावनि पूजें।

अर्थात-जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं,वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण-रज की पूजा करके मैंने सब-कुछ पा लिया।

अयोध्या काण्ड में ही राम और सीता के संवाद के माध्यम से गौस्वामी जी एक दोहे में कहते हैं-

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख,जो न करइ सिर मानि।

सो पछिताइ अघाइ उर.अवसि होइ हित हानि।

अर्थात-स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता,वह हृदय में खूब पछताता है और उसका अहित अवश्य होता है।

उत्तर काण्ड में काकभुशुण्डिजी के माध्यम से एक चौपाई में कहते हैं-

गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो,किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता।

और भी कईं प्रसंगों के माध्यम से तुलसीदास जी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिए शब्दों की नहीं, भाव की प्रधानता होती है। गुरु के प्रति समर्पण की जरुरत होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है,जब हम गुरु के प्रति सम्मान,सत्कार और अपनी तमाम भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।

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