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पड़ोसी मत उछल

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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क्यों बे पड़ोसी! आजकल तू बहुत उछल रहा,
औकात भुलाकर अपनी, हमें ही आँखें दिखा रहा।

क्या भूल गया वो दिन, जब तेरा अस्तित्व न था,
अहसान तुझ पर कर पड़ोस में रहने स्थान दिया।

नंगा फ़क़ीर था, तब तन ढकने कपड़ा दिया,
भूखा मर रहा, तब पैसा देकर अहसान किया।

गरीब था तब, तू रिश्ता अहसान मानता था,
पूँजीपतियों की भीख से झूठी अमीरी जताता था।

आजकल तेरे नालायक, निकम्मे, बद दिमाग,
बच्चे कुछ ज्यादा ही शरारत करते हैं।

घुसपैठ करके आँगन में मेरे, शांति भंग करते हैं,
सुनसान जगह पर मासूमों का खून-खराबा करते हैं।

औकात नहीं है तेरी सीधा-सीधा लड़ने की,
आदत गई नही है तेरी पागल जैसे रोने की।

मींची-मींची आँखों वाले से कितनी मदद माँगेगा ?
इससे तो तेरा लाल बालों वाला नाराज़ हो जाएगा।

क्या तुझे पता नहीं, तीन बार समझा चुके हैं हम,
अबकी तूने ज्यादती की तो निकाल देंगे तेरा दम।

अभी भी बात मान ले, थोड़ी अकल से काम ले,
जितने तेरे शरारती बच्चे हैं, कर दे हमारे हवाले।

नहीं तो तू बहुत पछताएगा और रोएगा,
तेरे तिरपन भाइयों में से कोई काम न आएगा।

हमारे बच्चे वीर हैं और वीरांगना भी हैं,
तुझे और तेरे बच्चों को ठीक करना जानते हैं।

अभी तो पानी बंद किया है, कल बिजली भी बंद कर देंगे,
नहीं सुना सीधे तरीके से, तो तेरी औकात तुझे दिखा देंगे…॥